सोमवार, 10 मई 2021

भारत में आज भी रहते हैं दैत्य-दानव और असुर...

      प्राचीन भारत के पौराणिक आख्यानों में हम दैत्य-दानव और असुर जैसे आततायी समुदायों के बारे में पढ़ते रहे हैं । क्या आज भी उन समुदायों का भारत में अस्तित्व है या फिर कालक्रम से अब वे सब समाप्त हो गये हैं, इस विषय पर चर्चा करने से पहले मैं सन् 1962 के उन दिनों की बात बताना चाहूँगा जब पिता जी चीनी युद्ध के सम्बंध में रोज शाम को घर के सभी सदस्यों के सामने नये-नये समाचार दिया करते थे । उन समाचारों में भारत-चीन युद्ध की बातें और हीरोशिमा-नागासाकी पर डाले गये बमों की यादें भी हुआ करतीं । हमने पहली बार पिता जी के मुँह से माओ जेदांग और च्यांग्काई शेक जैसे अज़ीब नाम सुने । लोग आपस में चर्चायें करते कि चीन तो भारत का मित्र था यह अचानक उसने भारत पर हमला क्यों कर दिया? माँ भी अपने बचपन के किस्से सुनाया करतीं कि बरतानिया हुकूमत के दिनों में लोग किस तरह फिरंगियों से डरा करते और गाँव के लोग उन्हें देखते ही छिप जाया करते । दादी के किस्सों में अच्छे राजा, बुरे राजा, दैत्य राजा और दानवों की बातें हुआ करती थीं । मेरे बाल मन में बुरे और हिंसक लोगों के शब्दचित्र जमा होते रहे । मैं सोचा करता कि हो न हो फिरंगी और चीनी भी दैत्य, दानव या फिर असुर ही होते होंगे ।   

वे दहशत भरे दिन थे, मुझे रात में डरावने सपने आया करते । तब मेरी उम्र मात्र चार साल की थी, मैं सपने में देखा करता कि हाथ में बंदूकें लिये चीनी सेना ने हमारे गाँव को घेर लिया है और ऊपर आकाश में बम गिराने वाले जहाज मँड़रा रहे हैं । मैं दिन में भी चारपायी से नीचे उतरने में डरा करता, और पूरे दिन घर भर में यही खोजा करता कि कहीं कोई चीनी सैनिक तो नहीं है । सूरज डूबने के साथ ही मेरी मुश्किलें बढ़ जाया करतीं, मुझे लगता कि मेरे सो जाने के बाद किसी भी क्षण चीनी सेना टनकपुर तक आ जायेगी । जैसे-तैसे रात कटती तो सुबह होते ही थोड़ी राहत मिलती कि चलो एक दिन और निकला । गाँव के लोग बातें करते कि भारतीय सेना के पास हथियार नहीं हैं, चीनी सेना अगर टनकपुर तक आ गयी तो बरेली और लखनऊ पर चीन का कब्ज़ा हो गायेगा ।

उस समय ये ख़बरें भी आया करतीं कि भारत की आमजनता ने युद्ध के लिये अपने जेवर तक नेहरू जी को दान में दे दिये । उस समय एक ख़बर और भी आया करती कि बाजार में न तो चॉकलेट है, न जेबी मंघाराम के बिस्किट और न गेहूँ । चार साल की उम्र में मैंने जमाखोरी और कालाबाजारी जैसे शब्दों को भी सुना । मैं इन शब्दों के अर्थ नहीं जानता था पर इतना अवश्य जान गया कि ये दोनों शब्द अच्छे नहीं हैं और इन्हीं दोनों शब्दों के कारण बाजार में कोई भी चीज बहुत ऊँचे दाम पर बेची जाती है । मैं मन में सोचा करता कि नेहरू जी अगर इन दोनों शब्दों को हटा दें तो हर बच्चे को चॉकलेट और जेबी मंघाराम के बिस्किट पुराने दामों पर ही मिल जाया करेंगे ।

आज एक बार फिर भारत में चीन की दहशत है । चीन ने भारत के विरुद्ध विषाणु युद्ध छेड़ दिया है । गुरिल्लायुद्ध में विश्वास रखने वाले चीन ने अपनी युद्ध नीति में छल का स्तर और भी गिरा दिया है । लोग मर रहे हैं, दिल्ली में इलाज़ से लेकर शव को मरघट तक ले जाने और फिर दाह संस्कार करने के लिये मृतकों के घरवालों को पानी की तरह पैसा बहाना पड़ रहा है । लोग कोरोना पीड़ितों को बड़ी निर्ममता से लूट रहे हैं । कोरोना एक अवसर बन गया है, लोग दवाइयों और ऑक्सीजन की जमाखोरी और कालाबाजारी कर रहे हैं । कोरोना से संक्रमित आदमी एक निर्बल शिकार है जिसे बहुत से जंगली कुत्तों ने घेर लिया है और वे उसके मरने से पहले ही नोच कर खा जाने के लिये उतावले हो गये हैं ।

इन दोनों संकटों में चीन, दहशत, युद्ध, दर्द में अवसर, जमाखोरी और कालाबाजारी जैसे कुछ शब्द उभय हैं जिनकी पुनरावृत्ति आश्चर्यजनक है । दैत्य-दानव और असुर जैसे समुदाय भारत में आज भी हैं और अब वे पहले से भी अधिक क्रूर और आततायी हो गये हैं ।

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपको पढ़ा लगा जैसे मुझे गुरु मिल गया हो, अत्यंत रोचक एवं बाँध के रखने वाला लेख लिखा आपने। कृपया आशीर्वाद प्रदान करें

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  2. नमस्कार अभिनव जी! कल्याणमस्तु! लेख आपको अच्छा लगा इसके लिये साधुवाद! कहावत है कि पानी पिये छानकर, गुरु बनाये जानकर । विनम्र अनुरोध है कि मेरे प्रति इतनी बड़ी धारणा बनाने से पहले मेरे अन्य लेखों और कहानियों को भी पढ़ने का कष्ट कीजियेगा जो बहुत अधिक विवादास्पद हैं एवं जिन्हें लेकर लोगों के मन में मेरे प्रति धारणा बिल्कुल भी अच्छी नहीं है । अयन प्रकाशन, महरौली, दिल्ली से प्रकाशित लेख संग्रह "प्रतिध्वनि" और अधिकरण प्रकाशन, खजूरी ख़ास, दिल्ली से प्रकाशित कहा नी संग्रह "थोड़ा सा मंटो" का अवलोकन करने के बाद ही यदि कोई धारणा बनायेंगे तो अच्छा होगा, वरना दिल टूट सकता है कभी आपका भी ।

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.