तुम मुझे थर्ड डिग्री टॉर्चर करते रहो और कहो कि मैं चीखूँ भी नहीं, यह कैसे हो सकता है? माना कि यह मेरे व्यक्तित्व की एक दुर्बलता है किंतु सच यही है कि मुझे नफ़रत होती है तुमसे । नफ़रत के कारणों के होते हुये भी कोई संवेदनशील व्यक्ति नफ़रतविहीन प्रतिक्रिया कैसे दे सकता है!
हाँ! जब
तुम झूठ और दुष्टता की सारी सीमायें तोड़ कर अपने सारे अपराध मुझ पर मढ़ देते हो तो
मुझे तुमसे नफ़रत होती है । मेरे मन में नफ़रत के इस विशाल पर्वत को तुम्हीं ने जन्म
दिया और पाल-पोस कर बड़ा किया है । वारिस पठान, अकबरुद्दीन ओवेसी, इरफ़ान लोन... आदि और टीवी पर सनातनियों के विरुद्ध आग उगलने वाले मौलवियों
एवं इस्लामिक स्कॉलर्स की धमकियों को सुनते हुये कम से कम दो पीढ़ियाँ सहमी-सहमी
रहने लगी हैं । राजा को इससे कोई अभिप्राय नहीं कि भारत के सनातनी लोग भय और हिंसा
के साये में किसी तरह जीने-मरने के लिये विवश हैं ।
राजा को
इससे भी कोई अभिप्राय नहीं कि कुछ लोगों को इस्लामिक-कश्मीर चाहिये, उन्हें
मस्ज़िद-मजार और दरगाह बनाने के लिये पूरा भारत चाहिये, इन्हें
हर हाल में भारत में सिर्फ़ और सिर्फ़ इस्लाम चाहिये ...वह भी हिंसा और यौनदुष्कर्म
करते हुये । क्या आपको नहीं लगता कि भारत के अधिसंख्य सनातनियों के पैसों पर
परोपजीवी की तरह पलने वाले माननीयों के गिरोह के लोगों ने भारत का सर्वाधिक अहित
किया है ।
मुझे
नफ़रत होती है जब मैं झण्डाबरदारों को यह कहते हुये सुनता हूँ कि “द कश्मीर फ़ाइल्स”
के प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगना चाहिये क्योंकि इसके प्रदर्शन से आपसी भाईचारा और
सौहार्द्य समाप्त हो जायेगा ।
कुछ लोग
कहते हैं कि इस फ़िल्म में आधा सच दिखाया गया है । उनके अनुसार पूरा सच यह है कि
कश्मीर में केवल हिंदुओं का ही नहीं बल्कि सभी धर्म के लोगों का जेनोसाइड किया गया
था । इतना निर्लज्ज झूठ बोलने का दुस्साहस करने वालों के प्रति मुझे नफ़रत होती है
।
कश्मीर
में जब यह सब हो रहा था तब मैं जयपुर में सर्जरी का अध्येता हुआ करता था और भारत
के प्रधानमंत्री थे विश्वनाथ प्रताप सिंह । उसी समय मुझे कुछ कश्मीरी छात्रों से
भी मिलने का अवसर मिला था । उनके द्वारा सुनाये गये कश्मीर के किस्से वातावरण को
सुन्न कर दिया करते थे । मंडल आयोग की रिपोर्ट पर जयपुर जलने लगा था, जगह-जगह
हिंसा और आगजनी हो रही थी और शहर में कर्फ़्यू लगा हुआ था । पता नहीं कैसे आरक्षण
को लेकर प्रारम्भ हुआ विवाद हिन्दू-मुस्लिम दंगे में बदल गया था । यह सब हुआ,
पर कश्मीर में जो हुआ उस पर पूरे देश में अभूतपूर्व सन्नाटा था ।
दिल्ली में कश्मीरी शरणार्थियों की भीड़ बढ़ती जा रही थी और भारत के तमाम राजनीतिक
दल नैतिक कॉमा में जा चुके थे । आज उन्हीं राजनीतिक दलों के लोग कहने लगे हैं कि
पुरानी बातों को उठाने से सौहार्द्य समाप्त हो जायेगा । यह कैसा सौहार्द्य है जो हमारी हत्या होने से समाप्त
नहीं होता, हमारी बहनों-बेटियों के साथ किये गये नृशंस
कुकृत्यों से समाप्त नहीं होता, हमारी सम्पत्तियों पर बलात्
कब्ज़ा कर लेने से समाप्त नहीं होता, हमारे साथ की जाती रही
हर तरह की क्रूरता और अन्याय से समाप्त नहीं होता, …किंतु जब
हम न्याय की माँग करते हैं और अपने दर्दनाक इतिहास को स्मरणीय बनाने का प्रयास
करते हैं तो सौहार्द्य समाप्त हो जाता है? मुझे तुम्हारे इस
पाखण्डी सौहार्द्य से बहुत नफरत होती है ।
ल्लो, हमने
भी विवेक अग्निहोत्री को दे दी धमकी, अब तो ख़ुश!
एक
राज्य के राजा ने “द कश्मीर फ़ाइल्स” देखे बिना ही इसका विरोध किया । राजा हैं, कोई
मामूली आदमी नहीं हैं अतः दूसरे राज्य के डायरेक्टर, प्रोड्यूसर
और अभिनेताओं का विरोध करना उनका दायित्व है,ठीक उतना ही
दायित्व जितना कि हिन्दुत्व और अपने सम्राट को गरियाने का है ।
उनके
राज्य के पवित्र सिनेमाघरों में फ़िल्म के प्रतिबंध तक की बातें उठने लगीं, कुछ
सिनेमाघरों में ध्वनिरहित फ़िल्म चलायी गयी तो कुछ जगह फ़िल्म का विरोध किया गया ।
फ़िर अपनी
प्रजा की याद आते ही राजा जी को लगा कि इससे मुसलमान तो ख़ुश हो जायेंगे पर हिन्दू
नाराज हो जायेंगे इसलिये उन्होंने ऐलान किया कि वे स्वयं फ़िल्म देखेंगे । यूँ, राजा
साहब आग को ख़ुश रखना अपना परम सौभाग्य मानते हैं, आग की
विनाशक शक्ति से राजा साहब भयभीत रहते हैं, पानी को ख़ुश रखने
से क्या लाभ! पानी में इतनी शक्ति कहाँ कि किसी के घर में आग लगा सके! बहरहाल,
मीडिया में समाचार आते ही हिन्दू ख़ुश हो गये पर मुसलमान नाराज हो
गये । फ़िल्म देखने के बाद उन्हें दोनों को ख़ुश करना था इसलिये वक्तव्य दे दिया कि
फ़िल्म में आधा सच दिखाया गया है ।
यह पूछे
जाने पर कि “वह कौन सा सच है जो नहीं दिखाया गया” राजा साहब ने फ़रमाया कि कश्मीर
में अत्याचार तो मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों और जैनियों के साथ भी हुआ था,
बस उसे ही नहीं दिखाया गया”। राजा साहब शीघ्रता में थे इसलिये यह
कहना भूल गये कि कश्मीर में तो “खग-मृग-चींटी-चुनगुन और पेड़-पौधों” के साथ भी
अत्याचार हुआ था जिसे नहीं दिखाया गया है । यह एक अद्भुत वक्तव्य है जिस पर राजा
साहब की बुद्धि और न्यायप्रियता की सराहना करनी होगी ।
योग्यतानिरपेक्ष
धर्म का पालन करते हुये सिखों को अपने राज्य में मात्र सफाई कर्मचारी की नौकरी
देने वाले कश्मीर में मुसलमानों के साथ किसने अत्याचार किया? कश्मीर
में ग़ैर-इस्लामिक लोगों के साथ अत्याचार करने वाले महाअत्याचारी के साथ किसने
अत्याचार किया? राजा जी का हुक्म है, ढूँढो
उसे, कौन है वह?
अखिल
विश्व के प्रति राजा जी की समदृष्टि प्रचण्डरूप से अद्भुत है । कश्मीर में 1947 से
निरंतर मुसलमान राजाओं के होते हुये भी ग़रीब मुसलमानों को नौकरी नहीं मिली, सेना
के मुस्लिम जवानों और मुस्लिम पुलिस कर्मियों की खुलेआम नृशंस हत्यायें होती रहीं
और तुम कश्मीरी पंडितों के साथ हुये क्रूर अत्याचारों की बात करते हो, जिस बात को सुनते ही राजा जी कॉमा में चले जाते हैं उस विषय पर फ़िल्म
बनाते हो, शर्म नहीं आती! विवेक अग्निहोत्री! तुम्हें हुक्म
दिया जाता है कि हमारे राजा जी का सम्मान करना सीखो और भविष्य में “सच्ची ऐतिहासिक
फ़िल्म” बनाने की पुनरावृत्ति से तौबा करो, वरना...।
हमें
नये शब्द गढ़ने होंगे
दो
सितम्बर 1946 से यह देश अपने साथ जो होता हुआ देखता रहा है वही यदि राज-नीति है तो
हमें भारत की नयी पीढ़ी को कुराज-नीति और कुराज-नीतिज्ञ की परिभाषायें बतानी पड़ेगी
। जब साधारण बोलचाल में ‘राजनीति’ को गाली की तरह प्रयोग किया जाने लगे तो
समझ लेना चाहिये कि यह शब्द अपने वास्तविक अर्थ खो चुका है । हम सब “राजनीति” के
नाम से यथार्थ में जो होता हुआ देख रहे हैं वह कुराज-नीति है जिसे राजनीति कहकर
संबोधित किया जा रहा है ।
समाज ‘नये
बोध’ के साथ ‘नये शब्द’ गढ़ता है.. और इस तरह भाषा समृद्ध होती है । जिस तरह हमने राजनीति के
वास्तविक बोध को विकृत कर दिया है उसी तरह असुरों ने वेद, ब्राह्मण,
गाय, मनुस्मृति और गीता जैसे शब्दों से,
उनके वास्तविक बोध को विलोपित करते हुये उन्हें विकृत बोध के साथ
प्रस्तुत करना प्रारम्भ कर दिया है । सार्वजनिक मंचों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के
विभिन्न मंचों से प्रचारित किया जा रहा है कि ये शब्द पवित्रता के नहीं बल्कि
दुष्टता और अपराध के द्योतक हैं इसलिये इन सबको समाप्त कर दिया जाना चाहिये ।
वेदों, पुराणों, मनुस्मृति और गीता जैसे
ग्रंथों को जला दिया जाना चाहिये और ब्राह्मणों को उनकी सवर्ण मण्डली के साथ भारत
से निष्कासित कर देना चाहिये या उनकी हत्या कर दी जानी चाहिये ।
थोपे हुये विकृतबोध को सत्य के रूप में स्थापित करने के जो षड्यंत्र भारत में किये जा रहे हैं वे तो आश्चर्यजनक है ही किंतु उससे भी अधिक आश्चर्यजनक है असुरों के विरुद्ध सुरों के संघर्ष का अभाव । वैचारिक शून्यता और सत्यनिष्ठा की दुर्लभता के इस युग में लेखनी, साहित्यकार और कलाकार की रचनाधर्मिता और भी महत्वपूर्ण हो गयी है ।
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