रविवार, 6 नवंबर 2022

सभी धर्म समान नहीं हैं

श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।

आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्॥ पद्मपुराण, शृष्टि १९/३५७-३५८ 

पद्मपुराण ने स्पष्ट कर दिया है कि जो आचरण हमारे लिए अनुकूल नहीं है वह अन्य लोगों के लिए भी अनुकूल नहीं है। दूसरों के साथ भी वैसा ही आचरण किया जाना चाहिए जैसा कि हम दूसरों से अपने लिए चाहते हैं। यह है सनातन धर्म की वह विराट दृष्टि जो स्व के साथ-साथ लोककल्याण का भी मार्ग प्रशस्त करती है। इससे पृथक यदि कुछ है तो वह धर्म हो ही नहीं सकता। सभी तथाकथित धर्मों को एक समान स्वीकार करना उतना ही सत्य है जितना यह कि सभी द्रव “पीने योग्य” हैं और सभी कृत्य “स्तुत्य” हैं। कुँजड़े का हठ है कि वह अपने खट्टे बेर भी मीठे कहकर बेच देगा। दुष्टबुद्धि दलनायकों का हठ है कि वे अपने पापों को पुण्य मनवाकर ही सत्ता को छीन लेंगे। 

धार्मिक समानता का यह पाखण्ड उन द्रवों की स्वीकार्यता के दुष्प्रचार के लिए गढ़ा गया है जो हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक ही नहीं बल्कि प्राणघातक भी हैं। दूध और सल्फ़्यूरिक एसिड को, गन्ने के रस और हलाहल को, गोमुख से निकले जल और समुद्र के जल को एक जैसा स्वीकार कैसे किया जा सकता है?

हत्या और प्राणरक्षा के कृत्यों को, पाप और पुण्य को एक समान कैसे स्वीकारा जा सकता है? यौनदुष्कर्म करना और स्त्री को पूज्य मानना एक जैसे कृत्य कैसे हो सकते हैं? न्याय और अन्याय एक जैसे कैसे हो सकते हैं? यह अच्छे-बुरे, शुभ-अशुभ, हानिकारक-लाभदायक और शत्रु-मित्र के बीच की विभाजक रेखा के विवेक को समाप्त कर सब धान बाइस पसेरी तौलने का दानवी षड्यंत्र है। यह संस्कृति और अपसंस्कृति के विवेक को समाप्त करने का कुचक्र है। यह अपने अपराधों, हिंसा, कुकर्मों और क्रूरता को न्यायोचित सिद्ध कर पूरे विश्व में स्थापित करने की दुष्टता है।

समान लक्षण वाले बहुत सारे धर्मों को गढ़ने का औचित्य क्या है? चैतन्यावस्था में जब भी कभी एक धर्म पहचान लिया गया होगा तो फिर उस जैसे ही अन्य धर्मों को स्थापित करने के लिए युद्ध करने और हिंसा करने की आवश्यकता क्यों होती है? यदि सभी धर्म समान हैं तो एक धर्म की निंदा और किसी दूसरे धर्म की प्रशंसा के आधार पर धर्मांतरण की आवश्यकता ही क्यों है? यदि सभी धर्म समान हैं तो धर्म के आधार पर देश के विभाजन की आवश्यकता क्यों हुयी? यदि सभी धर्म समान हैं तो उनकी बहुलता, विविधता और भिन्नता की आवश्यकता ही क्या है? यदि सभी धर्म समान हैं तो धार्मिक हिंसा क्यों हो रही है? यदि सभी धर्म समान हैं तो सनातनी, यहूदी, ईसाई और ज़ेरोस्ट्र आदि मुस्लिमेतर लोग अल्लाह के शत्रु क्यों हैं और अल्लाह ने अपने शत्रुओं को जन्म ही क्यों लेने दिया? यदि सभी धर्म समान हैं तो रमजान का माह बीतते ही घात लगाकर अन्य धर्मों को मानने वालों को देखते ही उनकी हत्या कर देने की आवश्यकता इस्लामिक पुस्तकों में क्यों लिखी गयी है?

 

हमारे सामने साधु के वेश में राक्षस, दैत्य और दानव खड़े हो गये हैं जिन्हें उनकी सेना पवित्र सिद्ध करने और सच्चे साधु को पापी सिद्ध करने का दुष्प्रचार कर रही है। इस सेना में वे सभी लोग सम्मिलित हैं जो किसी भी तरह सम्पूर्ण मानव समाज पर अपना वर्चस्व स्थापित करने और सत्ता छीनने की ताक में लगे हुये हैं।

...और धर्म का तात्विक सत्य तो यह है कि धर्म बहुत हो ही नहीं सकते, जो बहुत हो सकते हैं वे सम्प्रदाय हैं धर्म नहीं। धर्म की प्रकृति और अस्तित्व सनातन है, परिवर्तनशील नहीं। इसीलिए इस्लाम या क्रिश्चियनिटी जैसा वैदिक सनातन धर्म का कोई विशिष्ट नाम नहीं है, सनातन धर्म मानवमात्र का धर्म है, अन्य जो भी स्थिति है वह व्यावहारिक स्तर पर या तो अधर्म (विचारशून्यता) है या फिर विधर्म (धर्म से विचलन)।  

प्रकृति ने धर्म में बहुलता की एक सूक्ष्म व्यवस्था केवल जीवन रहित पिण्डों एवं जीवनयुक्त शरीरों में की है। ब्रह्माण्डीय पिण्डों के धर्म एवं अन्य सभी जीवित कोशिकाओं के धर्म में केवल चेतना का अंतर है, धर्म को इसी स्तर पर समझे जाने की आवश्यकता है। भारतीय मनीषियों ने धर्म के तात्विक और व्यावहारिक स्तरों पर चिंतन कर लोककल्याण के लिए एक सर्वस्वीकार्य आचरण की अनुशंसा की है जिन्हें हम धर्म के दश लक्षणों के रूप में सुनते और जानते आये हैं 

“धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्॥“ - मनुस्मृति ६.९१                      

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