संविधान में सामाजिक और आर्थिक समानता के उद्देश्य से कुछ जातियों के लिए लाये गये आरक्षण की व्यवस्था के परिणामों की समय-समय पर समीक्षा की जानी थी जिस पर गभीरता और निष्ठापूर्वक कभी कोई चिंतन-मंथन नहीं किया गया। परिणामतः आरक्षण बढ़ता गया, आरक्षित समुदायों में नयी-नयी जातियों को सम्मिलित किये जाने के लिए आंदोलन होने लगे, आरक्षण राजनीति का एक महत्वपूर्ण विषय बन गया। सामाजिक और आर्थिक समानता तो नहीं हो सकी किंतु आरक्षण भारत के लिए एक अनिवार्य व्यवस्था के रूप में अवश्य स्वीकार कर ली गयी।
जिनके उत्थान करने का आप दावा करते हैं
उन्हें बिना बैसाखियों के चलने के लिए कभी प्रोत्साहित क्यों नहीं किया गया? हर किसी
को यह भरोसा क्यों दिलाया जाता रहा कि वे इन बैसाखियों के सहारे ही दौड़ने लगेंगे और
उन लोगों से भी आगे निकल जाएँगे जो बिना बैसाखियों के ही दौड़ सकने की क्षमता रखते हैं।
दूसरी ओर नौकरियों और पदोन्नतियों में आरक्षण की व्यवस्था कर आपने तो उन सक्षम लोगों
की टाँगे ही तोड़ देने की क्रूरता की है जो किसी जघन्य अपराध से कम नहीं है।
बहुत हो गया, अब इस बात
पर चिंतन होना चाहिए कि आरक्षण की पात्रता का आधार कितना समाज-मनोवैज्ञानिक और न्यायपूर्ण
है!
कुछ जातियों को निर्धनता और सामाजिक असमानता
का आधारभूत कारण मान लिया गया और जो इस सीमा में समाहित नहीं हो सके उन्हें अपनी निर्धनता
और सामाजिक असमानता से जूझने के लिए छोड़ दिया गया।
तथाकथित उच्च जातियों की निर्धनता और सामाजिक
पिछड़ेपन को मैंने बहुत समीप से देखा है। चलिए, स्वतंत्रता
के सात दशक बाद आज बिहार और उत्तरप्रदेश के किसी गाँव में चलते हैं और कठोर निंदा एवं
कटुआलोचना के लिए सहज उपलब्ध ब्राह्मण जाति को अपनी आँखों से देखते हैं।
गाँवों के लोगों में जाति से परे सभी लोगों
का जीवनस्तर लगभग समान है, उनकी भाषा, विचारधारा
और चिंतन में भी बहुत कुछ समानता देखने को मिलती है, यहाँ तक
कि सामाजिक कुटैवों ने भी धर्म और जाति की सीमाओं को स्वीकार करने से मना कर दिया।
वहाँ जाति की सीमाएँ हैं जो परिदृश्य में तब तक कहीं दिखायी नहीं देतीं जब तक कि उन्हें
कण्ठ से वमन कर बाहर न निकाला जाय। मुझे आर्थिक और सामाजिक असमानता में जातियों का
भेद कहीं दिखायी नहीं दिया। जहाँ तक शिक्षा की बात है तो उसमें व्यय होने वाली धन राशि
कोई निर्धन व्यक्ति कैसे चुका सकेगा! आरक्षितों को तो सत्ताओं ने सुविधा दे दी है पर
विप्र तो यहाँ भी वंचित है। आपने शिक्षा और आर्थिक सम्पन्नता को सामाजिक समानता के
मूल्यांकन का जो आधार बनाया है उसने तो विरोधाभासी स्थिति उत्पन्न कर दी है, सामाजिक
असमानता एवं वर्गभेद को और भी बढ़ा दिया है। संविधान निर्माताओं की बुद्धि में यह सामान्य
न्याय की बात क्यों नहीं आ सकी कि यदि कोई निर्धन विप्र शिक्षा से वंचित होगा तो वह
सामाजिक समानता में बैसाखियों के समकक्ष कैसे खड़ा हो सकेगा!
सत्यनारायण की कथा में निर्धन विप्र की
चर्चा है, द्वापर युग
में भी निर्धन विप्र सुदामा की चर्चा है, सतयुग और
त्रेतायुग में भी विद्यानुरागी और सरल जीवनयापन करने वाले विप्रों की चर्चा है। कलियुग
में तो ब्राह्मण सर्वाधिक दयनीय, वंचित, भिक्षाजीवी, विद्याविहीन
और सामाजिक असमानता को भोगता हुआ जीने वाला कलंकित मनुष्य बनकर रह गया है। हाँ! कलियुग
में जिन ब्राह्मणों ने अंग्रेज़ी पढ़ ली, सनातनविचारधारा
और भारतीय संस्कृति के क्रूरता की सीमा तक कठोर निंदक बन गये, पश्चिमी
संस्कृति के अनुरागी हो गये और भारतीय सभ्यता को सदा के लिए समाप्त करने के लिए हर
तरह के षड्यंत्रों के खलनायक बन गये वे आर्थिक दृष्टि से समृद्ध हो गये, और स्वयं
को उच्च सामाजिक स्तर का व्यक्ति मानने लगे।
“सामाजिक स्तर की समानता” एक ऐसा गढ़ा हुआ
पाखण्ड है जिसका सही अर्थों में कोई अस्तित्व ही नहीं होता। सामाजिक स्तर पर समानता
के जो वास्तविक क्षेत्र हैं उनमें शिक्षा और स्वास्थ्य है, निरपेक्ष
न्याय है, बौद्धिकक्षमता
एवं कुशलता के आधार पर उपयुक्त संसाधनों की उपलब्धता की सुनिश्चितता है…। इन क्षेत्रों
में तो बहुत बड़ी असमानता व्याप्त है जो निरंतर बढ़ती ही जा रही है। आप कौन सी सामाजिक
समानता की बात करते हैं?
हमें यह स्वीकार करना होगा कि शिक्षा से
सामाजिक स्तर का कोई सम्बंध नहीं है। यह किसे नहीं पता कि भ्रष्टाचार में सरकारों के
संसाधन बनने वाले उच्चशिक्षित लोगों का सामाजिक स्तर कैसा होता है? क्रूरतम
अपराधियों में उच्च शिक्षित भी सम्मिलित हैं। झूठे और मक्कार लोगों में उच्चशिक्षित
भी सम्मिलित हैं। बड़ा सा बंगला, महँगी कार, महँगी शराब, घरेलू सेवकों
की लम्बी कतार, सर्वांग
लिपी-पुती अर्धनग्नपत्नी, गर्भपात
करवाने के लिए लुच्चे डॉक्टर्स को नोटों की गड्डियाँ थमाने वाली बिनब्याही बेटियाँ, चरस-गाँजे
के नशे में धुत्त बेटे... यही है न आपके उच्चसामाजिक स्तर का पता-ठिकाना!
आप कैसा भारत बनाना चाहते हैं? आप कैसे
सामाजिक-स्तर का विकास करना चाहते हैं? आप सरकारी
बैसाखियों पर वंचितों और अयोग्य लोगों को कब तक दौड़ाना चाहते हैं? तुम्हारी
यह धूर्तता किसी भी समाज को समाप्त कर देने के लिए पर्याप्त है, अन्य किसी
आयुध की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
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