सोमवार, 25 मार्च 2024

गुणसूत्रों की वैश्विक उड़ान

*भारतीयों में विदेशी मूल के गुणसूत्रों का ऐतिहासिक और वैज्ञानिक तथ्य*

यह सर्वविदित और सर्वस्वीकार्य है कि भारत ने अपनी ओर से कभी किसी विदेशीभूमि को आक्रांत नहीं किया। विभिन्न कारणों से विदेशी राज्यों के साथ सुरक्षात्मक युद्ध अवश्य होते रहे हैं पर हमने विजित देशों पर कभी अपना आधिपत्य स्थापित नहीं किया। जबकि इसके विपरीत भारतभूमि बारम्बार विदेशी आक्रमणकारियों से आक्रांत होती रही है। इन आक्रमणकारियों में भारत के पड़ोसी ही नहीं मध्य एशियायी, सुदूर यूरोपीय और अफ़्रीकी देश भी सम्मिलित रहे हैं।

गुजरात के राखीगढ़ी गाँव में मिले नरकंकालों के विदेशी गुणसूत्र इस बात के प्रमाण हैं कि भारत की शस्य सम्पन्नभूमि पर विदेशी आक्रमणकारी रहते रहे हैं, न कि इस बात के प्रमाण हैं कि भारतीयों के गुणसूत्र उनके विदेशी होने का तथ्य प्रस्तुत करते हैं!

इस कलंक को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि भारत के विभिन्न रजवाड़ों पर विभिन्न विदेशी आक्रमणकारियों का आधिपत्य रहा है, यहाँ तक कि अबीसीनिया (इथियोपिया) से मुस्लिम शासकों द्वारा पकड़ कर लाये गये एक दास मलिक अंबर ने भी भारत के दक्कन क्षेत्र के एक राज्य अहमदनगर में अपना गुलाम वंश स्थापित कर लिया था। भारत के दक्षिणी और पश्चिमी समुद्र तटीय क्षेत्रों में आज भी अफ़्रीकी मूल के लोग निवास करते हैं। गुजरात के सिद्दी लोग भी इथियोपियायी मूल के विदेशी ही हैं जिन्होंने स्थानीय भारतीयों से विवाह सम्बंध भी स्थापित किये हैं, उनकी संतानें भारत की नागरिक अवश्य हैं पर सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के आधार पर उन्हें भारतीय नहीं माना जा सकता।

राजतांत्रिक काल में सुदूर देशों से राजाओं के विवाह सम्बंध तत्कालीन राजनीति का एक महत्वपूर्ण भाग हुआ करता था । यही कारण है कि एक-एक राजा की कई रानियाँ हुआ करती थीं। चंद्रगुप्त मौर्य की यूनानी पत्नी कार्नेलिया हेलेना के वंशज भी भारतीय बनकर हमारे बीच में हैं। तुर्कीमंगोल एवं उज़्बेकिस्तान के मंगोलियन मुगल, अरबी, मिस्री, तुर्की, बैक्ट्रिया/बल्ख़ के वाल्हीक, तत्कालीन विशाल आर्यावर्त्त के सीमावर्ती देशों के पड़ोसी, यहाँ तक कि पुर्तगाली, डच, फ़्रेंच और ब्रिटिशर्स आदि यूरोपियंस भी विभिन्न कारणों से भारत में रहते रहे हैं। इन सभी लोगों ने भारतीयों से वैध या अवैध संतानें उत्पन्न की हैं। भारत के श्रेष्ठ घरानों की स्त्रियों से बलात् व्यभिचार की घटनाओं से तत्कालीन भारतीय समाज कलंकित होता रहा है।

सिकंदर के ग्रीक और मिस्री सैनिकों में से कई लोग यहाँ की सम्पन्नता देखकर वापस गये ही नहीं और भारत के ही पर्वतीय क्षेत्रों में बस गये। ऐसी न जाने कितनी घटनायें हुयी होंगी। रेशम मार्ग से आने-जाने वाले व्यापारी काफ़िलों में से भी कुछ लोग भारत में न बसते रहे हों ऐसा सम्भव नहीं लगता। सामान्य स्थितियों में भी सीमावर्ती देशों के ठीक पड़ोसियों के बीच वैवाहिक सम्बंध स्थापित होना पूरे संसार की रीति रही है। वनस्पतियों की तरह प्राणियों के गुणसूत्र भी भौगोलिक सीमाओं को स्वीकार नहीं किया करते। भारत-नेपाल की तरह नेपालियों और तिब्बतियों, तिब्बतियों और चीनियों, चीनियों और मंगोलियों, मंगोलियों और रूसियों, रूसियों और अन्य यूरोपीयों के बीच गुणसूत्रों का आदान-प्रदान सदा से होता रहा है, इसे न कभी रोका जा सका है और न कभी रोका जा सकेगा। इंदिरा नेहरू घांदी (अपभ्रंश गांधी) के वंशजों में ईरान और इटली जैसे विदेशी मूल के गुणसूत्र पिरोये जाते रहे हैं। ये सब भी आज भारतीय ही हैं। आज तो आवागमन के संसाधनों और अन्य कारणों से विदेशियों से विवाह या विवाहेतर सम्बंध सामान्य होते जा रहे हैं। क्या ऐसे विदेशीमूल के भारतीयों के गुणसूत्रों के आधार पर प्राचीन भारत के मूल भारतवंशियों के बारे में कोई अवधारणा बनाकर उसे वैज्ञानिक कहना उचित और न्यायसंगत होगा?

भारत का नागरिक होने और भारतीयहोने में सैद्धांतिक और व्यावहारिक अंतर हैं, दोनों के भेद को मिटाया नहीं जा सकता। कुछ लोगों के गुणसूत्रों के आधार पर भारतीयों को विदेशी सिद्ध करना उस कूटअभियान का भाग है जिसका उद्देश्य भारतीय संस्कृति को समाप्त कर अपना वर्चस्व स्थापित करना रहा है।  


भारतीयों के D.N.A. में Africa और Iran...

*भारत पर हो रहे सांस्कृतिक आक्रमणों का सामना करने के लिये हमें तथाकथित विद्वानों के झूठ का सतत विरोध करना ही होगा अन्यथा उनका झूठ ही भारत में सत्य की तरह स्थापित हो जायेगा और हमारी अगली पीढ़ियाँ अपने आपको एवं अपनी प्राचीनता को पूरी तरह भूल जायेंगी।* - मोतीहारी वाले मिसिर जी।

गिरिजेश वशिष्ठ ने रहस्योद्घाटन किया है कि भारतीयों के गुणसूत्रों में अफ़्रीका और ईरान के लोगों के गुणसूत्र पाये गये हैं । अपने एक वीडियो में वे बताते हैं कि भारतीयों की मौलिकता पर "पहली बार वैज्ञानिक पड़ताल” की गयी है।

आर्यों और भारतीयों को लेकर इतिहासकारों, वैदिक साहित्य और तथाकथित वैज्ञानिकों के बीच चल रहे बौद्धिक संघर्ष से हम सब परिचित हैं। पत्रकार गिरिजेश मानते हैं कि कुछ लोग तो अपना (भारतीयों का) इतिहास लाखों-करोड़ों वर्ष प्राचीन बताते रहते हैं पर यह बताने का उनके पास कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता। वे इस संघर्ष पर विराम लगाते हुये कहते हैं –“सच क्या है हमारा, ...हिन्दुस्तान के लोगों के डी.एन.ए. की पहली बार जाँच की गयी है। दुनिया भर की प्रजातियों के डी.एन.ए. से भारत के 2700 लोगों के डी.एन.ए. का मिलान किया गया है (जिससे आर्यों को विदेशी सिद्ध किया जा सके? किसी अमेरिकी, यूरोपीय या अफ्रीकी को यह आवश्यकता और जिज्ञासि क्यों नहीं होती कि उनके गुणसूत्रों में कोई मिलावट तो नहीं? यह आवश्यकता हम भारतीयों को ही क्यों होती है?)।

डार्विन के विकासवाद का वैज्ञानिक सिद्धांत आज अवैज्ञानिक स्वीकार किया जा चुका है। गिरिजेश को लगता है कि वैज्ञानिक अवधारणाओं के अतिरिक्त और कुछ सत्य हो ही नहीं सकता। ‘इट सीम्स’, ‘मे बी’, ‘प्रोबेबिलिटी’ और ‘हाइपोथीसिस’ जैसे शब्दों के साथ आगे बढ़ता आज का विज्ञान कितना वैज्ञानिक है इसका पता तो कोरोनाकाल में एक बार फिर पूरी दुनिया को चल चुका है। दूसरी ओर भारतीय गणित, खगोल विद्या, शिल्प, स्थापत्यविज्ञान, शब्दभेदी बाण, युद्ध विज्ञान, हस्तिवेद, वृक्षायुर्वेद, शल्यचिकित्सा, आयुर्वेद और विमान आदि उपलब्धियों को अवैज्ञानिक और पूरी तरह काल्पनिक मानने वाले अतिविद्वानों की भारत में कमी नहीं है।   

अयोध्या में श्रीराम मंदिर के प्राचीन अस्तित्व जैसे विषयों पर संतों के ऐतिहासिक वक्तव्यों और सर्वोच्च न्यायालय में दिये गये गणितीय एवं पुरातात्विक साक्ष्यों का एक तरह से परिहास करने वाले पत्रकार जी मानते हैं कि विज्ञान सम्पूर्ण और अंतिम है। उन्होंने Bio-Skive प्रयोगशाला में कार्यरत प्रिया मूर्जानी के एक शोध, जो कि फ़ॉसिल्स के डी.एन.ए. विश्लेषण पर आधारित है, का उल्लेख करते हुये बताया कि दक्षिण एशिया में सर्वाधिक विभिन्नताओं वाले लोग रहते हैं। उनके अनुसार 2700 भारतीयों के गुणसूत्र नमूनों में तीन समूहों के गुणसूत्र मिलने की हुयी पुष्टि से यह प्रमाणित होता है कि भारतीय आदिवासी अफ़्रीका से आये थे, भारतीय आर्य ईरान से आये थे और शेष भारतीय अज़रवेजान एवं कज़ाख़िस्तान से आकर भारत में बस गये थे (अर्थात् भारत एक निर्जन क्षेत्र था जहाँ विदेशी लोग आकर बसते रहे हैं, यदि नहीं तो फिर मूल भारतीय कौन हैं, कहाँ हैं?)।

प्रिया मूर्जानी के शोधों के आधार पर गिरिजेश जी ने बताया कि भारतीयों में "यूरेशियन स्टेम परिवार", "प्राचीन ईरानी किसान" और "हण्टर गेदर" के गुणसूत्र मिले हुये हैं।

विदेशी आगमन की एक धारा में यूरेशियन स्टेम परिवार के लोग अज़रबेजान एवं कज़ाख़िस्तान से ईसापूर्व दस हजार साल पहले भारत आकर बस गये थे, वे खेती और शिकार करते थे, भारतीयों में यह सभ्यता उसी समय की है। विदेशी आगमन की दूसरी धारा में अफ़्रीका से आये हण्टर गेदर लोग थे जो आज के भारतीय आदिवासी हैं और ईसापूर्व दस हजार से लेकर पाँच हजार साल पहले भारत आकर बस गये थे। विदेशी आगमन की तीसरी धारा में चार हजार सात सौ से लेकर तीन हजार वर्ष ईसापूर्व बड़ी संख्या में ईरानी लोग भारत आकर बस गये। ये लोग प्राचीन किसान थे।

गिरिजेश जी के अनुसार –


यह जाँच वैज्ञानिक तरीके से की गयी है। जो वैज्ञानिक तरीके से साबित हो जाय मैं उसे ही मानता हूँ जबकि भारतीय ग्रंथों की रचना कल्पनाओं और संभावनाओं पर आधारित है, जिस समय भारत में ग्रंथ लिखे गये तब इंटरनेट नहीं था । अमेरिका, योरोप या चीन से कोई जानकारी लेनी हो तो प्राचीन भारतीय लोग इंटरनेट के अभाव में नहीं ले सकते थे वे केवल उन देशों से आने वाले यात्रियों पर ही (ज्ञान के लिये) निर्भर थे (अर्थात अमेरिका, योरोप और चीन से भारत आने वाले यात्री वैज्ञानिक हुआ करते थे?) हमारे यहाँ से बाहर जाने वालों का कोई उल्लेख मिलता नहीं (अर्थात् हमारे यहाँ कोई वैज्ञानिक था ही नहीं)।

यह रिपोर्ट विज्ञान और धर्म के बीच मील का पत्थर सिद्ध होगी।

समय-समय पर विदेशी लोग भारत आकर बसते रहे हैं जिसमें सूफ़ीसंत भी हैं जिन्होंने भारत आकर यहाँ के लोगों को इस्लाम की बहुत सी अच्छाइयाँ बतायीं।



 

इस प्रकरण पर मोतीहारी वाले मिसिर जी की प्रतिक्रिया -

"...यह सत्य से परे जाकर अपना-अपना वर्चस्व स्थापित करने का युग है। हर कोई एन-केन-प्रकारेण अपनी प्राचीनता सिद्ध करने और अपने समुदाय की उपलब्धियों को महिमामण्डित करने का प्रयास कर रहा है। इस विश्वसमुदाय में केवल भारतीय ही ऐसे अपवाद हैं जो अपनी सभ्यता को बाहर से आयातित और सर्वाधिक नवीन सिद्ध करने के प्रयास में प्राणपण से जुटे हुये हैं। हमें सावधान रहना होगा रोमिला थापर जैसे इतिहास गढ़ने वाले स्वयंभू रचनाकारों से; गिरिजेश वशिष्ठ, रविश कुमार और पुण्य प्रसून वाजपेयी जैसे पत्रकारों से; दिव्या द्विवेदी और शुति पांडेय जैसे प्रोफेसर्स से; अरुंधती राय जैसी लेखिकाओं से और साक्षी जैसी एंकर्स से । ये वे लोग हैं जो भारत पर सांस्कृतिक आक्रमण करने और भारतीयों के मन में हीन भावना उत्पन्न करने में ही गौरव का अनुभव करते हैं। दुर्भाग्य से ऐसे लोगों में उस ब्राह्मण वर्ग के लोगों की अधिकता है जिन्हें भारतीय समाज में ज्ञान-विज्ञान और धर्म का पथप्रदर्शक मानकर सम्मानित किया जाता रहा है। प्रिया मूर्जानी के शोध फ़ॉसिल्स पर आधारित हैं। जहाँ दुनिया भर के लोग आक्रमण करने आते रहे हों ऐसे देश में दो हजार सात सौ लोगों के सेम्पल की जाँच करके यह पता कर लिया गया कि वे सब विदेशीगुणसूत्र मिश्रित भारतीय ही हैं, उनमें से कोई भी युद्ध में मारा गया विदेशी सैनिक या भारत भ्रमण करने आया विदेशी पर्यटक या कारवाँ वाले युग में भारत में व्यापार करने के लिए आने वाले हजारों व्यापारियों में से विभिन्न कारणों से मरने वाला या उनमें से भारत में ही बस गया कोई भी विदेशी नहीं था; न ही हमारी स्त्रियों से यौनदुराचार करने वाले विदेशी सैनिकों की संतानों में से कोई था।

हमें ऐसे अवैज्ञानिक विज्ञानवेत्ताओं के मिथ्या दुष्प्रचार से सावधान ही नहीं रहना होगा बल्कि उसका पूरी दृढ़ता और तथ्यों के साथ खण्डन भी करते रहना होगा अन्यथा उनका सतत दुष्प्रचार ही सच बनकर स्थापित हो जायेगा। हमने रोमिला थापर जैसे स्वयंभू और कूट इतिहासकारों के झूठ का कभी विरोध नहीं किया जिसके कारण हमारी अभी तक की पीढ़ियों को भारत और विश्व का मिथ्या इतिहास पढ़ाया जाता रहा है।"

 

गिरिजेश वशिष्ठ का संक्षिप्त परिचय – गिरिजेश जी एक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो इंडिया टुडे, जी न्यूज़ और दैनिक भास्कर आदि समूहों में कार्य कर चुके हैं। विज्ञान और वैज्ञानिक शोधों पर ही पूर्ण विश्वास करने वाले गिरिजेश की शिक्षा के बारे में इंटरनेट पर जानकारी मुझे नहीं मिल सकी। यूँ, मेरा अनुभव है कि विज्ञान के अंधभक्त लोगों में सबसे बड़ी संख्या उन लोगों की है जिन्हें विज्ञान के बारे में कुछ पता नहीं होता। ऐसे लोग भारत, हिंदुत्व, वैदिक ग्रंथ, धर्म, आर्यन इन्वेज़न और ‘भारतीयों की मौलिकता की वैज्ञानिकता’ जैसे विषयों पर पूरे आत्मविश्वास के साथ अपना पक्ष रखते हुये देखे जाते हैं। यू-ट्यूब पर अपने चैनल knockingnews.com के संस्थापक गिरिजेश वशिष्ठ भारतीयों को विदेशी, अवैज्ञानिक और मूर्ख सिद्ध करने के प्रयासों के प्रति पूरी निष्ठा के साथ समर्पित रहते हैं।  

भारतीयों को विदेशी सिद्ध करने वाले गिरिजेश जी का यह वीडियो प्रिया मूर्जानी के शोध पर आधारित है। भारतीय मूल की प्रिया मूर्जानी यूनीवर्सिटी ऑफ़ कैलीफ़ोर्निया की बर्क्ले रिसर्च इंस्टीट्यूट के मोलीकुलर एण्ड सेल बायोलॉजी विभाग में सहायक प्रोफ़ेसर हैं और ह्यूमन पापुलेशन ज़ेनेटिक्स और इवोल्यूशनरी बायोलॉजी पर केंद्रित विषयों पर शोध करती हैं। म्यूटेशन और रीकॉम्बीनेशन जैसे विषयों पर मूर्जानी के शोध जेनॉमिक डाटा एनालिसिस पद्धति पर आधारित होते हैं। उनका पता है – Priya Moorjani, University of California, Berkeley Stanley Hall, Rm 308C