*भारतीयों में विदेशी मूल के गुणसूत्रों का ऐतिहासिक और वैज्ञानिक तथ्य*
यह सर्वविदित
और सर्वस्वीकार्य है कि भारत ने अपनी ओर से कभी किसी विदेशीभूमि को आक्रांत नहीं किया।
विभिन्न कारणों से विदेशी राज्यों के साथ सुरक्षात्मक युद्ध अवश्य होते रहे हैं पर
हमने विजित देशों पर कभी अपना आधिपत्य स्थापित नहीं किया। जबकि इसके विपरीत भारतभूमि
बारम्बार विदेशी आक्रमणकारियों से आक्रांत होती रही है। इन आक्रमणकारियों में भारत
के पड़ोसी ही नहीं मध्य एशियायी, सुदूर यूरोपीय और अफ़्रीकी देश भी सम्मिलित रहे हैं।
गुजरात के राखीगढ़ी
गाँव में मिले नरकंकालों के विदेशी गुणसूत्र इस बात के प्रमाण हैं कि भारत की शस्य
सम्पन्नभूमि पर विदेशी आक्रमणकारी रहते रहे हैं, न कि इस बात
के प्रमाण हैं कि भारतीयों के गुणसूत्र उनके विदेशी होने का तथ्य प्रस्तुत करते हैं!
इस कलंक को
अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि भारत के विभिन्न रजवाड़ों पर विभिन्न विदेशी आक्रमणकारियों
का आधिपत्य रहा है, यहाँ तक कि अबीसीनिया (इथियोपिया) से मुस्लिम शासकों द्वारा पकड़
कर लाये गये एक दास मलिक अंबर ने भी भारत के दक्कन क्षेत्र के एक राज्य अहमदनगर में
अपना गुलाम वंश स्थापित कर लिया था। भारत के दक्षिणी और पश्चिमी समुद्र तटीय क्षेत्रों
में आज भी अफ़्रीकी मूल के लोग निवास करते हैं। गुजरात के सिद्दी लोग भी इथियोपियायी
मूल के विदेशी ही हैं जिन्होंने स्थानीय भारतीयों से विवाह सम्बंध भी स्थापित किये
हैं, उनकी संतानें भारत की नागरिक अवश्य हैं पर सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
के आधार पर उन्हें भारतीय नहीं माना जा सकता।
राजतांत्रिक
काल में सुदूर देशों से राजाओं के विवाह सम्बंध तत्कालीन राजनीति का एक महत्वपूर्ण
भाग हुआ करता था । यही कारण है कि एक-एक राजा की कई रानियाँ हुआ करती थीं। चंद्रगुप्त
मौर्य की यूनानी पत्नी कार्नेलिया हेलेना के वंशज भी भारतीय बनकर हमारे बीच में हैं।
तुर्कीमंगोल एवं उज़्बेकिस्तान के मंगोलियन मुगल, अरबी, मिस्री, तुर्की, बैक्ट्रिया/बल्ख़
के वाल्हीक, तत्कालीन विशाल आर्यावर्त्त के सीमावर्ती देशों के पड़ोसी, यहाँ तक कि
पुर्तगाली, डच, फ़्रेंच और ब्रिटिशर्स आदि यूरोपियंस भी विभिन्न कारणों से भारत में
रहते रहे हैं। इन सभी लोगों ने भारतीयों से वैध या अवैध संतानें उत्पन्न की हैं। भारत
के श्रेष्ठ घरानों की स्त्रियों से बलात् व्यभिचार की घटनाओं से तत्कालीन भारतीय समाज
कलंकित होता रहा है।
सिकंदर के ग्रीक और मिस्री सैनिकों में से कई लोग यहाँ की सम्पन्नता
देखकर वापस गये ही नहीं और भारत के ही पर्वतीय क्षेत्रों में बस गये। ऐसी न जाने कितनी
घटनायें हुयी होंगी। रेशम मार्ग से आने-जाने वाले व्यापारी काफ़िलों में से भी कुछ लोग
भारत में न बसते रहे हों ऐसा सम्भव नहीं लगता। सामान्य स्थितियों में भी सीमावर्ती
देशों के ठीक पड़ोसियों के बीच वैवाहिक सम्बंध स्थापित होना पूरे संसार की रीति रही
है। वनस्पतियों की तरह प्राणियों के गुणसूत्र भी भौगोलिक सीमाओं को स्वीकार नहीं किया
करते। भारत-नेपाल की तरह नेपालियों और तिब्बतियों, तिब्बतियों
और चीनियों, चीनियों और मंगोलियों, मंगोलियों और
रूसियों, रूसियों और अन्य यूरोपीयों के बीच गुणसूत्रों का आदान-प्रदान सदा
से होता रहा है, इसे न कभी रोका जा सका है और न कभी रोका जा सकेगा। इंदिरा नेहरू
घांदी (अपभ्रंश गांधी) के वंशजों में ईरान और इटली जैसे विदेशी मूल के गुणसूत्र
पिरोये जाते रहे हैं। ये सब भी आज भारतीय ही हैं। आज तो आवागमन के संसाधनों और अन्य
कारणों से विदेशियों से विवाह या विवाहेतर सम्बंध सामान्य होते जा रहे हैं। क्या ऐसे
विदेशीमूल के भारतीयों के गुणसूत्रों के आधार पर प्राचीन भारत के मूल भारतवंशियों के
बारे में कोई अवधारणा बनाकर उसे वैज्ञानिक कहना उचित और न्यायसंगत होगा?
भारत का “नागरिक” होने और “भारतीय” होने में सैद्धांतिक और व्यावहारिक अंतर हैं, दोनों के भेद
को मिटाया नहीं जा सकता। कुछ लोगों के गुणसूत्रों के आधार पर भारतीयों को विदेशी सिद्ध
करना उस कूटअभियान का भाग है जिसका उद्देश्य भारतीय संस्कृति को समाप्त कर अपना वर्चस्व
स्थापित करना रहा है।
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