रविवार, 8 दिसंबर 2024

धर्म, कबीला और काफिर

            मोहम्मद यूनुस की सरकार के संरक्षण में बांग्लादेश के मुस्लिम नागरिकों और पुलिस द्वारा वहाँ के हिन्दू नागरिकों के साथ किये जा रहे उत्पीड़न और हिंसा के प्रति प्रतिक्रियायें भारत के साथ-साथ विश्व के अन्य देशों में भी हो रही हैं । जब व्यक्ति ही नहीं, पूरा समुदाय उत्पीड़ित होता है तब वह गम्भीर चिंता का विषय होना ही चाहिये । दुर्भाग्य से, नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस का स्थायी भाव से मुस्कराता चेहरा इस हिंसा पर दुनिया भर को अँगूठा दिखा रहा है । सामूहिक हिंसा की यह हठधर्मिता कबीलाई परम्पराओं का स्मरण दिलाती है ।

बांग्लादेश निर्माण के समय वहाँ के हिन्दुओं के साथ जो हुआ (डॉक्टर तस्लीमा नसरीन की लज्जा) और अब जो हो रहा है वह हिन्दू मूल्यों के विरुद्ध किया जा रहा एक विनाशकारी कबीलाई युद्ध है जिसे सामान्यतः धर्मयुद्ध कह दिया जाता है । यह किसी पैशाचिक नृत्य से कम नहीं है जो बांग्लादेश और पाकिस्तान में ही नहीं बल्कि भारत में भी होता रहा है, आज भी हो रहा है ।

अफ़गानिस्तान में सत्ता की छीन-झपट के दोनों पक्षों में मुसलमान ही थे और अब सीरिया में सत्ता की छीन-झपट में भी दोनों पक्ष मुस्लिम ही हैं । धर्म के नाम पर की जाने वाली हिंसायें वस्तुतः सत्ता के लिए ही की जाती रही हैं । धर्म से उनका कुछ भी लेना-देना नहीं हुआ करता । सत्ता की छीन-झपट के साथ-साथ यह सभ्यता और असभ्यता एवं संस्कृति और असंस्कृति के बीच चलने वाला सतत युद्ध है जो न्यूनाधिकरूप में हर युग में होता रहा है । संस्कृति और सभ्यता को हर क्षण सचेत रहना होता है, इसमें किसी भी प्रकार की उपेक्षा या उदासीनता विनाशकारी होती है ।

क्या यह धर्मयुद्ध है ?

धर्म का अभाव अधर्म है और उसका विकार विधर्म, तो यह अधर्म की स्थिति में विधर्म का आक्रमण है जिसमें कभी यहूदी, कभी कुर्द, कभी यज़ीदी, कभी ईसाई, कभी बौद्ध, कभी जैन तो कभी हिन्दू समुदाय उत्पीड़न और नरसंहार के सहज लक्ष्य हुआ करते हैं ।   

मोतीहारी वाले मिसिर जी का यह टप्पा मननीय है – “गमन सनातन है, संयोग और वियोग उसका विज्ञान है, ऊर्ध्वगति और अधोगति उसका व्यवहार है । यह व्यवहार करने वाले पर निर्भर करता है कि वह उसका प्रयोग करता है, उपयोग करता है या फिर दुरुपयोग करता है”।

*बटेंगे तो कटेंगे पर कुराजनीति*

योगी आदित्यनाथ जी की चेतावनी – “बटेंगे तो कटेंगे” पर कुराजनीतिक नेताओं ने आपत्ति की है, पर वे अपने स्थान पर सही हैं, वे नहीं चाहते कि समाज एक हो, वे समाज को काटने के अवसर हाथ से जाने नहीं देना चाहते ।  

सर्वाधिक अनुशासित प्राणियों में चीटियों और मधुमक्खियों के साथ लकड़बग्घों का भी स्मरण किया जाता है । लकड़बग्घों को पता है कि वे बटेंगे तो मारे जायेंगे एक साथ रहेंगे तो सुरक्षित रहेंगे इसीलिए वे अपने एक भी सदस्य का कभी साथ नहीं छोड़ते । लकड़बग्घे समूह में हों तो वे शेर पर भी आक्रमण करने से नहीं चूकते ।

भारतीय संस्कृति सीखने के अवसरों का स्वागत करती रही है । क्या हम लकड़बग्घों से इतना भी नहीं सीख सकते!

*अनुकरण थोपने की हिंसा*

समाचार है कि रतलाम में कुछ हिन्दू युवकों ने कुछ मुस्लिम किशोरों को पीटा और उनसे जय श्रीराम के नारे लगवाये । इसे धार्मिक कृत्य समझने की भूल नहीं की जानी चाहिये । हिंसा से किसी परम्परा या विचार का अनुकरण नहीं करवाया जा सकता, यह विधर्मी असभ्यता का हिंसक और निंदनीय कृत्य है जिसके लिए युवकों को दण्डित किया ही जाना चाहिये । हमें अपने आदर्शों की कठोरता से रक्षा करनी होगी ।  

इलेक्ट्रॉनिक उपकरण और स्वास्थ्य समस्यायें

            “आजीवन शोधकार्यों और आविष्कारों में लगे रहने वाले वैज्ञानिकों की बौद्धिक प्रतिभा का व्यवहार अवसरवादी राजनीतिज्ञ और उद्योगपति किया करते हैं या फिर आमजनता करती है जो मूर्ख होती है”। – मोतीहारीवाले मिसिर जी

और भी कई लोग हैं जो मानते हैं कि – “Indiscriminative applications of technical devices lead the society uncivilized. Techniques are scientific but theirs applications may or may not be scientific”.

वैज्ञानिक आविष्कार करते हैं, उद्योगपति धन उपलब्ध करवाते हैं, टेक्नीशियन्स उपकरण बनाते हैं और उनका व्यवहार करने वाले लोग उन उपकरणों का दुरुपयोग करते हैं जिससे समाज और भी असभ्य, क्रूर एवं स्वेच्छाचारी होता जाता है ।

सनातन विज्ञानमय है पर आवश्यक नहीं कि विज्ञान भी सनातन हो, वह सापेक्ष हो सकता है, सार्वदेशज और सार्वकालिक नहीं । सनातन के मूल में प्रकृतिधर्म है जो संतुलन बनाये रखने की ओर प्रवृत्त होता है जबकि विज्ञान की गति असंतुलन की दिशा में भी दिखाई देती है, यही कारण है कि अधर्ममूलक विज्ञान विश्व को अंततः विनाश की ओर ले जाता है । विकसित सभ्यतायें लुप्त होती रही हैं, आगे भी होती रहेंगी, सभ्यताओं का यही परिणमन है ।

एक प्रश्न उत्पन्न होता है, क्या तकनीकी उपकरणों के व्यवहार की अनुमति हर किसी को प्राप्त होनी चाहिये, और यह भी कि क्या नित्यप्रति व्यवहृत होने वाले इन उपकरणों के व्यवहार के लिए लोगों को प्रशिक्षित नहीं किया जाना चाहिये? ऐसे प्रशिक्षणों को इसलिए नहीं नकारा जा सकता कि लोग इन प्रशिक्षणों से कोई सीख नहीं लेंगे । यह सच भी है, फिर भी हम उन्हें वंचित नहीं कर सकते जो अपने स्वास्थ्य के प्रति गम्भीर हैं ।

इलेक्ट्रॉनिक उपकरण घातक इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन उत्पन्न करने के लिए कुख्यात माने जाते हैं इसलिए इन उपकरणों के प्रति हमारा व्यवहार बहुत ही संतुलित, आवश्यकतानुरूप, सीमित और वैज्ञानिक तरीके से ही होना चाहिए अन्यथा हमें कई प्रकार की स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है जो सामान्य से लेकर गम्भीर, और यहाँ तक कि असाध्य भी हो सकती हैं । विगत वर्षों में सामने आई ऐसी ही समस्याओं को लेकर वैज्ञानिकों में व्याप्त चिंता के परिणामस्वरूप विज्ञान की एक नई शाखा “एर्गोनॉमिक्स” का जन्म हुआ है जिसके बारे में अधिकांश चिकित्सकों को भी जानकारी नहीं है ।

हमें लगता है कि चिकित्साशिक्षा के पाठ्यक्रमों में “एर्गोनॉमिक्स” को प्रीवेंटिव एण्ड सोशल मेडिसिन के अंतर्गत समावेशित कर पढ़ाया जाना चाहिये ।

क्रमशः ...