रविवार, 15 दिसंबर 2024

घोडा़ नहीं मनुष्य हूँ

दौड़ का रोमांच
इतना आकर्षक लगा
कि दौड़ना ही जीवन बन गया हमारा,
कभी तनिक भी ठहरे नहीं हम
कि समीक्षा तो कर लेते एक बार।

दौड़ने की दिशा और लक्ष्य से
अनभिज्ञ बने रहे जीवन भर
ताँगे के घोड़े की तरह
हमने भी लगा लिये
दृश्य-अवरोधक (Blinkers)
अपनी आँखों पर
और मात्र
तीस प्रतिशत तक सीमित कर लिया अपना दृश्यक्षेत्र।

बूढ़े घोड़े को
अब कुछ भी दिखाई नहीं देता,
कभी अभ्यास जो नहीं किया था।
वह खोज रहा है
उस आत्म मुग्धता को
जिसमें डूब कर भी वह वंचित रहा
उस उपलब्धि से
जो वास्तव में उत्कर्ष होना था
उसके जीवन का।

धधक रहा है दावानल,
धू-धू कर जल रहे हैं लोग,
और आत्ममुग्ध वह
बजा रहा है वंशी चैन की।
आग तो बुझानी होगी
सब कुछ भस्म हो जाने से पूर्व।

नहीं...
यह घृणा नहीं है,
प्रयास है आत्म सुरक्षा का।
घृणा तो तुम करते हो
हमारे आत्म सुरक्षा के प्रयास से।
क्रूरतापूर्वक आक्रमण
होते रहे हैं हमारे ऊपर
तुम चाहते हो
बनी रहे उसकी निरंतरता
हम रोकना चाहते हैं हमारे उन्मूलन को।
हम इसे सभ्यता कहते हैं
तुम इसे हमारी संकीर्णता मानते हो ।
मुझे पता है
तुम खड़े होते रहे हो सदा
आक्रमणकारियों के साथ
कभी राजा आम्भिदेव बनकर
कभी राजा जयचंद बनकर
तो कभी राजा नरेन्द्र बनकर...
न जाने कितने रूप देखे हैं तुम्हारे
इस देश ने।

सभ्यताओं को नष्ट किया है
तुम्हारी प्रगतिशीलता ने,
स्वतंत्रता का अपहरण किया है
तुम्हारी अपसंस्कृति ने
जिसे
अब मैं देख पा रहा हूँ
पूरी स्पष्टता से ।

उतार फेके हैं मेंने
अपने दृश्य अवरोधक
और अब मैं
घोड़ा नहीं, मनुष्य हूँ।

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