सरकारी नौकरी मिलते ही संदीप के
विवाह के लिये अचानक प्रस्ताव आने लगे तो पंडित रामदीन की प्रसन्नता का कोई
पारावार न रहा । इसके ठीक विपरीत उनका बेटा संदीप प्रसन्न होने के स्थान पर उदास-उदास
रहने लगा । जब भी वह अकेला होता तो एक ही बात सोचने लगता - सरकारी नौकरी के सामने
मैं कितना बौना और तुच्छ हूँ । यह मेरा नहीं, मेरी नौकरी का मूल्यांकन है ।
जसवंतपुर के बी.एससी. पास संदीप
एक निजी स्कूल में शिक्षक थे, जहाँ
वेतन इतना कम मिला करता कि उतने में किसी न्यूनतम सदस्यों वाले परिवार का भरण-पोषण
भी सम्भव नहीं था । इसी कारण उसके विवाह के लिये कभी कोई प्रस्ताव आया ही नहीं ।
हर किसी को सरकारी नौकरी वाला ही दुलहा चाहिये था ।
जब भरतपुर तहसील में चपरासी के
लिये विज्ञापन निकला तो संदीप के घर का तापमान बढ़ गया । सब चाहते थे कि वह सरकारी
नौकरी के लिये आवेदन करे । बड़े-बूढ़ों का मान रखने के लिये बी.एससी. पास युवक को
चपरासी की नौकरी का आवेदन देने के लिये अपनी आत्मा को मार देना पड़ा । सच पूछो तो
उस पर उदासी के घनघोर बादल तो उसी दिन से छाये हुये थे ।
तहसील में नौकरी लगते ही
राजस्थान से लेकर उत्तरप्रदेश तक विवाहयोग्य कन्याओं के घरों में संदीप की
चर्चायें होने लगीं । संदीप के घर वर-दिखुवा आने लगे और एक दिन आरा जिला की एक
सुयोग्य कन्या के साथ संदीप कुमार तिवारी को टाँक दिया गया ।
पंडित रामदीन थोड़े सैद्धांतिक
व्यक्ति थे, इसलिये दहेज माँगने के विरुद्ध थे, पर जब वधु के पिता ने स्वेच्छा से बजाज स्कूटर की चाबी वर के हाथ में थमा
दी तो घर के बड़े-बूढ़ों ने इसे “हरि इच्छा” मानकर स्वीकार कर लिया । इस तरह तिवारी
परिवार के लोगों ने पहली बार अपने दरवाजे पर एक स्कूटर को शोभायमान होते हुये देखा
।
दहेज का स्कूटर पाकर संदीप और
भी उदास हो गया । उसके सामने दो गम्भीर समस्यायें थीं, पहली यह कि उसे स्कूटर चलाना नहीं आता था और इस
आयु में वह ड्राइविंग सीखने के लिये तनिक भी उत्साहित नहीं था । दूसरी समस्या थी
स्कूटर को जसवंतपुर से लेकर भरतपुर तक जाना ।
नई-नवेली पत्नी ने धीरे से
प्रस्ताव रखा – “मुझे स्कूटर चलाना आता है, आपके साथ मैं लेकर चलूँ भरतपुर तक!”
संदीप ने ठीक कांग्रेस नेता
उदित राज जैसा मुँह बनाकर पत्नी की ओर केवल देखा, कहा कुछ नहीं । पत्नी घबराकर चुप हो गयी । उदित राज के मुँह पर स्थायी भाव
से रहने वाले घने बादलों में से किसी पत्रकार के लिये कुछ निकाल पाना दुष्कर होता
है, यह तो अच्छा है कि नेताजी स्थायीभाव से अपने मस्तिष्क
में बसा चुके आरोपों-प्रत्यारोपों और रोष को प्रकट करने के लिये सदा कटिबद्ध रहा
करते हैं ।
अंत में हुआ यह कि संदीप
चपरासी बिना स्कूटर के ही भरतपुर चले गये, नवेली पत्नी को उसका भाई विदा करवाकर आरा ले गया, और
स्कूटर ने जसवंतपुर में “सार्वजनिक-वाहन” का पद प्राप्त किया ।
संदीप के चाचाओं और ताउओं के
पुत्रगण स्कूटर का तीन साल तक तो जी भर उपभोग करते रहे पर सही देखभाल और सर्विसिंग
के अभाव में स्कूटर ने एक दिन घुटने टेक दिये, ..ठीक वैसे ही जैसे ओवरलोडेड बैलगाड़ी को खींचने वाले बैल चढ़ाई आने पर घुटमों
के बल बैठ जाया करते हैं ।
सालभर तक तो स्कूटर घर में खड़ा
रहा फिर एक दिन पंडित रामदीन ने असमय ही वृद्ध हो चले स्कूटर को किसी तरह मैकेनिक
के यहाँ पहुँचवा दिया । महीने भर बाद भी जब पंडित जी ने स्कूटर की सुध नहीं ली तो
मैकेनिक ने संदेशा भिजवाया कि छह हजार देकर अपना स्कूटर ले जाओ ।
पंडित जी के पास इतने रुपये
नहीं थे, बेटे से कैसे कहते! स्कूटर मैकेनिक के यहाँ ही
खड़ा रहा । एक दिन जसवंतपुर के लोगों ने पंडित जी को बताया कि मैकेनिक ने उनका
स्कूटर छह हजार में किसी को बेच दिया ।
आरा वाली बहुरिया ने सुना तो
आकाश-पाताल एक कर दिया । दहेज का स्कूटर, न तो पाने वाले ने उपभोग किया और न उसकी पत्नी ने । किसी पत्नी के लिये
इससे अधिक गहन दुःख की बात और क्या हो सकती थी! बात बड़े-बूढ़ों तक और फिर आरा तक
पहुँची । आरा से उपाध्याय जी आये, घरेलू पंचायत बैठायी गयी ।
निर्णय हुआ कि तिवारी जी बहू को एक नया स्कूटर ख़रीदकर देंगे ।
सदा से विपन्न रहे तिवारी जी
इतने पैसे कहाँ से लाते भला!
संदीप ने अपने दायित्व को समझा, पंचायत के निर्णय का सम्मान किया और खिन्न मन
से एक नया स्कूटर खरीदने के लिये पिता जी को तुरंत पैसे थमा दिये । तिवारी जी ने भी
नोटों की गड्डी तुरंत बहू के आगे बढ़ाकर स्त्रीधन के भार से मुक्ति पाते हुये कहा -
“अपनी रुचि का स्कूटर ले लेना”। बहू ने संतोष की साँस ली और
रुपये लेकर रख लिये ।
आरा वाली बहू को पता था कि
संदीप अपने पद को लेकर हीनभावना से ग्रस्त है और स्कूटर का उपभोग नहीं करेगा ।
व्यवहारकुशल बहू ने पूरे पैसे अपने पिता को थमा दिये ।
* * *
मैकेनिक के यहाँ से छह हजार
में स्कूटर ख़रीदकर शिवराम वाजपेयी प्रसन्न थे । पर यह प्रसन्नता अधिक समय तक नहीं
रही । दहेज का स्कूटर यहाँ भी अपने रंग-ढंग दिखाने लगा । कुछ दिन जैसे-तैसे स्कूटर
चलाने के बाद वाजपेयी जी ने भी उससे मुक्ति पाने में ही अपनी भलाई समझी । उन्हें
ग्राहक खोजने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, पर अंततः दो हजार में एक ग्राहक पटा ही लिया ।
दहेज का स्कूटर काम वाली बाई
की तरह एक घर से दूसरे-तीसरे-चौथे... घर में सुशोभित होता रहा । इस बीच रंग-रोगन
कर उसके सौंदर्यीकरण का भी प्रयास किया गया पर स्कूटर को सद्गति नहीं मिल सकी ।
एक दिन वाजपेयी जी पास के एक
गाँव में किसी काम से गये हुये थे । रास्ते में उन्होंने देखा, घुरऊ चौधरी एक जुगाड़ में गोबर की खाद लेकर खेतों
की ओर जा रहे हैं । वाजपेयी जी को देखते ही चौधरी ने जुगाड़ रोक कर पायलागन किया ।
बात होने लगी तो होते-होते वाजपेयी ने पूछ दिया – “यह जुगाड़ कहाँ से लिया?”
चौधरी ने बताया – “लिया नहीं, बनवाया है । हरीराम कहीं से एक पुराना स्कूटर
लाये थे । कुछ दिन पहले ही मैंने उनसे डेढ़ हजार में लेकर मैकेनिक के यहाँ से यह जुगाड़
बनवा लिया । इंजन पुराना है पर खेती-किसानी का काम चल जाता है”।
“पुराना स्कूटर” सुनते ही
वाजपेयी के कान खड़े हुये । उन्होंने फ़्लेश-बैक में खँगालना प्रारम्भ किया तो पता
चला कि यह तो वही दहेज वाला स्कूटर है, जसवंतपुर वाला । वाजपेयी मुस्कराये और आगे बढ़ लिये ।
!! हरि ॐ तत्सत् !!
दहेज का स्कूटर
जवाब देंहटाएंकोई भी वस्तु अनुपयोगी नही होती
आभार
सादर
सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत ही रोचक कहानी!
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