कल
गोरखपुर वाले ओझा जी और मोतीहारी वाले मिसिर जी में अच्छी-ख़ासी नोक-झोंक हो गयी ।
मामला गरम होने लगा तो बीच में अपर्णा जी भाया टाटानगर को बीच में लाना पड़ा । बात
मोहम्मद अली जिन्ना की थी । ओझा जी मोहम्मद अली जिन्ना की क़ौमी सोच का सैद्धांतिक
समर्थन कर रहे थे जबकि मिसिर जी मोहम्मद अली जिन्ना को अखण्ड भारत का शत्रु मान
रहे थे ।
ओझा जी
का मानना था कि अपने समुदाय के प्रति जिन्ना के जुझारू समर्पण से हिंदुओं को सीख
लेने की आवश्यकता है । हमें उनकी व्यक्तिगत ज़िंदगी और आचरण पर नुक्ताचीनी करने की
न तो आवश्यकता है और न अधिकार, आप तो यह सोचिये कि जिन्ना
अपने समाज के लिये कितने काम के आदमी थे । जिन्ना को हिंदू ऑब्ज़रवर की दृष्टि से
नहीं एक मुस्लिम ऑब्ज़रवर की दृष्टि से देखिये फिर बताइये क्या आपको हिंदू समाज में
एक जिन्ना की कमी नहीं खलती ? क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि
काश! कोई जिन्ना यहाँ भी होता ? जिन्ना के पासंग में नेहरू
कहाँ ठहरते हैं जो जन्म से भारतीय किंतु विचार और आचरण से अंग्रेज़ माने जाते थे ?
जिन्ना ने जो किया वह अपनी क़ौम के लिये किया और वे अपने समुदाय के
आदर्श बन गये, क्या उनका ऐसा करना अपराध था ? यदि कोई जननायक हिंदुओं के लिये जिन्ना जैसा जुझारू होता तो क्या उसका ऐसा
करना अपराध होता ?
मिसिर
जी ने प्रतिवाद किया – जिन्ना यदि मुसलमानों के हितैषी होते तो पाकिस्तान बनाने की
ज़िद नहीं करते । जिन्ना की सोच के अनुसार यदि अखण्ड भारत मुसलमानों के लिये
असुरक्षित था तो आख़िर विभाजन के बाद भारत में रह गये मुसलमानों के हित की बात मुस्लिम
नेता जिन्ना ने क्यों नहीं सोची? शराबनोशी और वर्ज्यमांस से
परहेज न करने वाले जिन्ना क्या वास्तव में इस्लाम या मुसलमानों के लिये कुछ भी कर
सके? यदि धर्माधारित विभाजन न होता तो दोनों देशों में इतना
धार्मिक ध्रुवीकरण भी न होता, न आज पाकिस्तान इतना निर्धन
देश होता और न एशिया में इतनी अशांति और आतंक होता । सच यह है कि जिन्ना ने जो
किया वह न तो इस्लाम के लिये किया और न मुसलमानों के लिए बल्कि केवल अपनी
महत्वाकांक्षाओं के लिए किया । अब बात आती है जिन्ना के इस्लाम प्रेम की, तो यह समझना होगा कि क्या उन्होंने इस्लाम को पतवार की तरह स्तेमाल नहीं
किया ?
अंत में अपर्णा जी भाया टाटानगर की मध्यस्थता के बाद ओझा जी यह स्वीकार करने के लिए तैयार हो गये कि भारत के विभाजन में इस्लामिक समुदाय के हित की कल्पना करने वाले क़ायदे आज़म जिन्ना ने मुसलमानों को तो ख़ुश कर दिया किंतु भारत के भविष्य की घोर उपेक्षा की जिससे धार्मिक ध्रुवीकरण की जड़ों को पर्याप्त खाद-पानी मिलने लगा और दोनों देशों में धार्मिक उन्माद सदा के लिये स्थापित हो गया । देश के विभाजन से इस्लाम को क्या लाभ हुआ यह तो नहीं पता किंतु हिंदुओं और मुसलमानों के विकास में ढेरों बाधायें ख़ूब उत्पन्न हुयीं और अखण्ड भारत विश्व की महाशक्ति बनने से चूक गया ।