रविवार, 10 अगस्त 2025

युद्ध, इतिहास पुनर्लेखन और विपक्षी धर्म

     टैरिफ़-युद्ध

क्या सचमुच भारत सरकार अत्याचारी ट्रम्प के आगे घुटने टेकने के लिये तैयार हो रही है ? संचार माध्यमों पर कुछ इसी तरह की चर्चायें होने लगी हैं । यदि ऐसा होता है तो यह स्वीकार्य नहीं है । हम भारत को अमेरिकी अन्याय के सामने झुकते हुये देखने के लिये तैयार नहीं हैं ।

व्यक्तिगतरूप से मैंने अमेरिका को कभी भारत का हितैषी नहीं माना, उसकी नीतियाँ स्वार्थों और विश्वासघातों से भरी हुयी रही हैं । डोनाल्ड ट्रम्प का टैरिफ़-युद्ध उसके महाबली होने की घोषणा करता है । वह एक ओर तो बलपूर्वक विश्व भर का नियंत्रक बनना चाहता है तो दूसरी ओर विश्वशांति का पुरस्कार भी झपटना चाहता है ।

टैरिफ़-युद्ध में उसने भारत से आने वाली औषधियों जैसे अपने हितों के लिये अतिमहत्वपूर्ण चीजों को टैरिफ़ से मुक्त रखा है जबकि टैरिफ़ केवल उन्हीं चीजों पर लगाया है जो अमेरिका के लिये अतिमहत्वपूर्ण नहीं हैं । ट्रम्प ने भारत की अर्थव्यवस्था को नष्ट कर देने की घोषणा कर दी है । यह सम्भव नहीं है, भारत को कुछ क्षति होगी पर ट्रम्प ईश्वर नहीं है ...और न भारत का भाग्यविधाता ।

भारत की अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न होगी या नहीं यह इस पर निर्भर करता है कि भारत के उद्योगपति और व्यापारी किस पथ पर जाना चाहेंगे ! दो ही पथ हैं या तो ट्रम्प के आगे नतमस्तक होकर भारत से निर्यात होने वाली सामग्रियों पर अमेरिका में लगने वाले टैक्स की भरपायी भारतीय व्यापारी मूल्य में कटौती करके करें या फिर विश्व के अन्य देशों में निर्यात की सम्भावनाओं पर शोध करें ।

विदित हुआ है कि अमेरिकी व्यापारियों ने टैरिफ़ की तुल्य राशि की कटौती वस्तु के मूल्य में से करने की माँग कर दी है । इसका अर्थ यह हुआ कि टैरिफ़ का जो भुगतान अमेरिकी उपभोक्ताओं को करना चाहिये वह भारतीय व्यापारियों के सिर पर डाले जाने की तैयारी हो रही है । ऐसी स्थिति में टैरिफ़ का भार भारत पर पड़ेगा । हम सरकार के साथ हैं पर अमेरिकी व्यापारियों की इस बरजोरी के आगे झुकने के लिये कदापि तैयार नहीं हैं । हमारे पास विकल्प हैं, हमें आगे बढ़ना ही होगा ।

 

*कौन है सच्चे इतिहास से उद्विग्न*

वे सभी अतिविद्वान उद्विग्न हैं जो भारत के छिपे हुये शत्रु और विदेशियों के चाटुकार हैं ! जिनका वर्चस्व रहा है अभी तक ...और जो भारत से भारतीयता और भारतीय संस्कृति को जड़ से उखाड़ फेकने के लिये अहर्निश कटिबद्ध रहते हैं ।

इतिहासकी व्याख्या करते हुये इग्नू के पूर्व कुलपति रवींद्र कहते हैं - इतिहास तथ्यनहीं होता है, वह एक घटनाहै जिसकी व्याख्या अपने-अपने तरीके से की जा सकती है। अर्थात् भारत में आने वाले विदेशियों ने जो कुछ किया वे सब घटनायेंथीं जिनकी लोगों ने अपने-अपने तरीके, अपनी-अपनी समझ और अपने-अपने उद्देश्यों से व्याख्यायें कीं जिससे इतिहासबना । अरब, मुगल, पर्शियन, तुर्क आदि के द्वारा की गयीं घटनाओं की व्याख्याओं को स्वीकार करना या न करना पाठक की इच्छा पर निर्भर है पर पाठ्यक्रम से इन्हें हटा देना या इन्हें आक्रांता और लुटेरा बताना न्यायसंगत नहीं है ।

आप कहते हैं कि उन्होंने लूटपाट की, यौनदुष्कर्म किये, नरसंहार किये, यह आपकी व्याख्या है, मेरी नहीं । मैं कहता हूँ उन्होंने कुछ नहीं किया, उन्होंने भारत को समृद्ध करने में अपना योगदान किया । मैं पूछता हूँ क्या भारत के देशी राजाओं-महाराजाओं ने युद्ध में नरसंहार नहीं किये, लूट-पाट नहीं की, यौनदुष्कर्म नहीं किये ?

इग्नू के पूर्व कुलपति को पाकर इग्नू धन्य हो गया, भारत धन्य हो गया, …भारत की सभ्यता, संस्कृति और इतिहास धन्य हो गया । ऐसे अतिविद्वानों का समाज या किसी शिक्षा केंद्र में क्या स्थान होना चाहिये, यह सुनिश्चित करने का काम तो सरकारों का है पर वे करेंगी नहीं अतः अब भारत की जनता को सुनिश्चित करना चाहिये ।

सत्य हिंदीके अतिविद्वान आशुतोष ने इतिहास परिमार्जन पर आदेश दिया है कि इतिहास में संतुलन बनाइये, ऐसा नहीं लगना चाहिये कि विदेशी शासकों को आक्रामक और शोषक प्रमाणित कर दिया जाय और भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब को कोई क्षति हो या भारत में धार्मिक विद्वेष उत्पन्न हो, यह उचित नहीं होगा। अर्थात् यदि विदेशी मुस्लिम शासकों की बुराइयाँ लिखना चाहते हैं तो हिंदू राजाओं की भी बुराइयाँ लिखिये । यदि हिंदू राजाओं की अच्छाइयाँ लिखना चाहते हैं तो विदेशी मुस्लिम शासकों की भी अच्छाइयाँ लिखिये ताकि इयिहास में एक संतुलन बना रहे । अर्थात् इतिहास सत्य न हो कर संतुलन का उपकरण हो गया, संतुलन बनाइये, कुछ काट-छाँट करिये, कुछ जोड़िये ...। यही सत्य है, यही विद्वता है, यही इतिहास है ।

*विपक्ष का धर्म और दायित्व*

विपक्ष का धर्म राष्ट्रहित में सत्ता के साथ खड़े होना नहीं अपितु हर अनुकूल-प्रतिकूल स्थिति में सत्ता को उखाड़ फेकना और स्वयं को सत्ता में युगों-युगों के लिये स्थापित करना है ।

विपक्ष का दायित्व सत्ता के कार्यों की समालोचना नहीं अपितु कटु-आलोचना है इसलिये विपक्ष का तो काम ही है प्रश्न पूछना । प्रश्न तो उठेंगे, और सत्ता को उनके उत्तर भी देने ही होंगे । सत्ता भाग नहीं सकती ।

विपक्ष द्वारा सत्ता से पूछे जाने वाले प्रश्न राष्ट्रहित में होते हैं या मतदाताओं को भ्रमित कर सत्ता छीनने के लिये ! प्रश्नों का उद्देश्य क्या हो ? सत्ता छीनना या राष्ट्रहित में सत्ता को सहयोग करना ।

सहयोग करके तो वे कभी सत्ता के पास नहीं आ सकेंगे (स्वस्थ राजनीति की आदर्श स्थापना भले ही हो जाय) इसलिये सत्ता को उख़ाड़ फेकने के लिये उनकी सार्री उठापटक हुआ करती है । अमर्यादित शब्द, असभ्य आचरण और चीखना-चिल्लाना यही सब देखती है नयी पीढ़ी और इसे ही राजनीति समझने लगी है । लालूपुत्र हों, सोनियापुत्र हों या उद्धवपुत्र ...यह पीढ़ी यही सब देख-सुनकर बड़ी हुयी है और अब उसी का पालन कर रही है ।

इस विषाक्त वातावरण में विपक्ष के कुछ सुलझे हुये सदस्यों ने सैन्यकार्यवाही सिंदूर के पक्ष में विभिन्न देशों में जाकर भारत का जो पक्ष रखा वह एक शीतल बयार की अनुभूति देने वाला है और एक आशा जगाने वाला भी ...कि अभी सब कुछ समाप्त नहीं हुआ है ।

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