गुरुवार, 17 मई 2012

वो बात ही तो अब नहीं

बात बस इतनी सी है, 'वो बात' ही तो अब नहीं।

छातियों में आजकल, दिल कोई रहता नहीं॥

मौसम को जाने क्या हुआ, अब कली खिलती नहीं।
मोर जी भर-भर के नाचा,घटा ही बरसी नहीं॥
उस मिलन की बेला में, बात थी कुछ यूँ हुयी।
जो बसी थी बात दिल में, होठ पर आयी नहीं॥
दोष उनको दूँ मैं क्या, ख़ुद में ही उलझी रही।
वो तो निभाने आये थे, ख़ुद ही मैं आयी नहीं॥

जल गये परवाने कितने, बुझ गये दीपक जो थे।
अब चाल देखो देश की, चल-चल के ठहरा है वहीं॥
लूट कर मालिक बने हैं, सारे लुटेरे मेरे देश के।
आइने सब तोड़ फेके, मिलते घरों में अब नहीं॥
ताज तो लूटे ही हैं पर, लाज भी लूटी है जी भर।
क़त्ल की है छूट उनको, हमको जीने की नहीं॥

गाँव की ख़ुशबू चुरा ली, है शहर की भीड़ ने।
तेरे ऐश ने लूटे हैं जंगल, बंजर ही बंजर हर कहीं॥
आग का दरिया हूँ मैं, बस दर्द पीना शौक है।
हमसफ़र दरिया में कोई, आके अब बनता नहीं॥
फ़ितरत है भिड़ने की मेरी, मेरा ख़ून औरों सा नहीं।
आग जो भड़की है दिल में, अब ये बुझने की नहीं॥

बुधवार, 16 मई 2012

कांकेर से जगदलपुर के मार्ग पर ...

इनकी भाषा बाँची जिसने, ईश्वर के वह निकट हुआ है।
सखा वृक्ष हैं, सखी प्रकृति है, रिश्ता ये ही अमर हुआ है॥ 

 

 भंग भयो ध्यान, अंग गदरायो देख,
तपती दुपहरिया पथिक भरमायो है।
पात-पात रक्षक बन खूब डरवायो किंतु, 
     मिली, नत नयन कर पथिक जो आयो है॥    



आये
तब बिखराया कंचन,
विदा हुये
तब भी बिखराया।
फिर भी वंचित रहा मूढ़ मैं,
समझा,
तब तक तम घिर आया॥


    अंग-अंग विरह से धधक-धधक जल्यो आज।
    है जंगल में काना-फूसी, तार-तार भयी लाज॥
   


सुन्दर पथ, वृक्षों की छाया, छिपी यहाँ नक्सली माया।
कब विस्फ़ोट कहाँ हो जाये, घूम रहा आतंकी साया॥


मुड़े हुये हों कितने भी पथ, पर ये वापस कब आते हैं ?
अब बाधाओं से डरना क्या, हम आगे ही बढ़ते जाते हैं॥


वस्त्र नहीं
पर हया हमें है,
कोई घोटाला किया नहीं है।
तुमने किये घोटाले इतने,
असली जीवन जिया नहीं है॥


पीत अंग पीत वसन पिय में ही लगन लगी।
धूप से न भीत भयी, मन ही मन मगन भयी॥

शनिवार, 12 मई 2012

तापसी की कहानी



पतित पर्ण और विलगित मूल जीवन का संकेत नहीं दिया करते, वहाँ तो बस जीवन का इतिहास भर शेष रह पाता है। पर्ण ऋतु-धर्म है वृक्ष का, समय आने पर जीर्ण होते ही पतझड़ में विदा ले लेते हैं .... वसंत में किलकते हैं नवपल्लव। किंतु यदि पुराने होने के कारण मूल ही विदा लेलें तो?
जीवन के लिये किसी वृक्ष के मूल और पत्र एक दूसरे पर अन्योन्याश्रित होते हैं। पत्र न हों तो मूल एक लम्बी अवधि तक जीवित रह सकती है पर मूल के अभाव में पत्तों और शाखाओं का जीवित रह पाना सम्भव नहीं हो पाता। मर जाने के बाद भी खड़ा तो रहता है वृक्ष पर झड़ जाती हैं पत्तियाँ ...श्रीहीन हो जाता है वृक्ष। संस्कार जैसे निर्जीव भाव से ही जीवन को सार्थक कर पाते हैं हम और जीवन श्रीयुक्त हो पाता है। मनुष्य जीवन के इस उपेक्षित होते जा रहे विषय के रहस्य को चिंतामणि की एकलौती बेटी तापसी से अच्छा और कौन जान सकेगा भला!  
आज मैं आपको उसी रूपसी तापसी की कहानी सुनाने बैठा हूँ। तापसी की कथा कहना कोई सरल काम नहीं है, तो भी सुनाना तो पड़ेगा ही। ऐसे दुर्लभ चरित्र मिलते ही कहाँ हैं!
तो सुनिये, यह कहानी बिहार के एक छोटे से कस्बे ब्रह्मपुर से प्रारम्भ होकर बनारस और दिल्ली होती हुई मुम्बई की ओर विस्तार पाती है। ब्रह्मपुर के खपरैल की छत वाले एक कच्चे से घर में जन्मी थी तापसी। ब्राह्मण परिवार के संस्कारों के अनुरूप दादी ने ही बड़े आध्यात्मिक भाव से नामकरण किया था उसका। तापसी बड़ी हुयी तो अन्य बच्चों की तरह उसने भी पाठशाला जाना शुरू किया। सुदीर्घनयन, उन्नतनासिका और लम्बी केश राशि वाली चंचल तापसी ककड़ी की बतिया जैसी बढ़ रही थी ...और कहने की आवश्यकता नहीं कि उसी अनुपात में दादी की चिंता भी। दादी नित्यप्रभा देवी का स्नेह, दूध-रोटी लिये तापसी की शाला से वापस आने की प्रतीक्षा करता रहता। किंतु तापसी शाला से घर आते ही अपना बस्ता एक ओर पटक उड़न छू हो जाती। वह लड़कों के साथ गुल्ली डण्डा खेलती ..जामुन के पेड़ पर चढ़ अपनी मित्र मण्डली के लिये जामुन तोड़ती।
दादी खीझतीं रहतीं- "अरे मुयी! यही सब करना था तो लड़का बनकर क्यों नहीं पैदा हुयी थी!"
तापसी मुस्कराती- "बहुत सरल है दादी! मुझे आज से ही तापस पुकारना शुरू कर दीजिये।"

थोड़ी और बड़ी हुयी तो पिता की राजदूत मोटर साइकिल उसकी पसन्दीदा सवारी बन गयी। ब्रह्मपुर के लोग जब उसे राजदूत पर सवार हो घूमते देखते तो मन ही मन कहते, “पुतली बाई से कम नहीं निकलेगी लड़की”।
शालेय शिक्षा पूरी होते ही वह आगे की पढ़ाई के लिये बनारस आ गयी ..अपने मामा के घर। पढ़ाई का हाल यह था कि जब अन्य लड़कियाँ पढ़ायी की योजना बनातीं तो तापसी छात्र संघ के चुनाव की रणनीति में व्यस्त होती। स्नातक प्रथम वर्ष का परीक्षा परिणाम देखकर मामा ने माथा पीट लिया। ब्रह्मपुर से पिता को बुलाया गया, गम्भीर मंत्रणा हुयी और अंत में तय किया गया कि तापसी को बनारस छोड़ना होगा।
किंतु वह तापसी ही क्या जो किसी की बात मान ले, उसने भी अपना निर्णय सुना दिया कि वह पढ़ाई छोड़कर ब्रह्मपुर नहीं जायेगी। मंत्रणा का द्वितीय चक्र चला, और इस बार तय हुआ कि पढ़ायी अबाधित रहेगी किंतु बनारस तो उसे छोड़ना ही होगा। और इस तरह तापसी अपने ख़ूंख़ार माने जाने वाले सबसे छोटे मामा के घर दिल्ली भेज दी गयी। किंतु छोटे मामा का कुख्यात ख़ूंख़ारत्व गुण लेश भी काम न आया। स्नातक अंतिम वर्ष तक पहुँचते-पहुँचते वह एक नचनिया के चक्कर में पड़ गयी। हुआ यूँ कि एक दिन वह रागिनी और प्रखर के साथ नाटक देखने पहुँची और इप्टा के रंगमंच पर अपनी प्रथम भेंट में ही तापर को दिल दे बैठी।
तापर का वास्तविक नाम था रामकृष्ण। तापसी उससे पूछती- “तुम त्रेता और द्वापर दोनो का प्रतिनिधित्व करते हो?” रामकृष्ण नृत्य विशारद था....  तापसी जैसा वाक्पटु नहीं। बेचारा टुकुर–टुकुर ताकता रहता। तापसी ने प्रारम्भ में उसे त्रेताद्वापर पुकारना शुरू किया था। बाद में पुकारते-पुकारते दोनो युगों के आदि अक्षरों का धर्म की तरह ह्रास होते-होते लोप हो गया तो शेष बचा तापर...फिर यही उसका नाम पड़ गया।   
तापसी की आगे की पढ़ायी तापर के साथ दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्यकला संस्थान में प्रारम्भ हुयी। ब्रह्मपुर में दादी ने सुना तो अपने पुत्र चिंताहरण से बोलीं- “ बस-बस! हो गयी पढ़ायी ...अब और नहीं। किसी दिन नाक कटायेगी ये लड़की, जल्दी हाथ पीले करो इसके। सीतामढ़ी वाले मिश्र जी कबसे कह रहे हैं कि उन्हें इस घर की कन्या को अपनी बहू बनाने का कितना मन है”।
जैसे हाथ पीले कर देने मात्र से ही तापसी के अन्दर तीव्र गति से प्रवहमान नदी पर बाँध बन जायेगा। किंतु यह सोचते समय दादी यह भूल गयीं कि बाँध बनने के क्षण से ही बंदिनी नदी का प्रवाह अन्दर ही अन्दर मसोसता हुआ बाँध को फोड़ने की तैयारी में लग जाता है...और जिस दिन यह तैयारी पूरी हो जाती है उस दिन सुदृढ़ से सुदृढ़ बाँध को भी कोई शक्ति बचा नहीं पाती। 
ब्रह्मपुर में जो मंत्रणा चल रही थी वह आगम के विपरीत थी इसीलिये होनी के अनुरूप उधर दिल्ली में कुछ दूसरा ही गुणा-भाग चल रहा था। नित्यप्रभा देवी ने अपनी पोती का नामकरण करते समय यह कहाँ सोचा होगा कि वही नन्हीं सी तापसी बड़ी हो कर उसकी आशाओं के विपरीत ब्राह्मण परिवार की परम्पराओं को धता बताती हुयी नित नई डगर बनाने के कीर्तिमान रचेगी।
फिर एक दिन बिना किसी को बताये ही निर्भीक तापसी ने तापर के साथ कला और सपनों की नगरी मुंबई को प्रस्थान किया। उनके लिये अब कला ही प्राण थी और रंगमंच ही उनके जीवन का पर्याय।
वर्जनाओं को तोड़ती ब्राह्मण कन्या तापसी ने बिना परिणयसूत्र में बंधे ही रामकृष्ण को अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। मुम्बई में दोनो नवोदित कलाकारों का जीवन कड़े संघर्ष के साथ प्रारम्भ हुआ।
संघर्ष के उन्हीं कठिन दिनों में तापसी से परिचय हुआ था मेरा........मुम्बई के गोराई समुद्र तट पर। उन दिनों वह दार्शनिक सी हो रही थी, चुप है तो चुप और जब बोलना शुरू करती तो बोलती ही रहती। समुद्र की ओर अंगुली उठाकर लम्बी रेखा सी खींचती हुयी बताया उसने, “ यहाँ से यह सीधा रास्ता आपको अफ्रीका ले जायेगा...कैप ऑफ़ गुड होप”।
मैंने उत्तर दिया, "किंतु अभी मैंं वहाँ जाने के लिये तैयार होकर नहीं आया"।  
तापसी हँस दी। समुद्र के किनारे खड़े होकर किसी लड़की को हँसते देखना एक अलग ही सम्मोहन उत्पन्न करता है...और तापसी तो थी ही भुवनमोहिनी।     
2-  
महानगर मुम्बई में कला के लिये प्रारम्भ हुआ उन दोनो का संघर्ष शीघ्र ही जीवन के लिये कठिन संघर्ष में परिवर्तित हो गया। जीवन के कठोर धरातल की कठोर सत्यता ने स्वप्नों के पंख कतरने प्रारम्भ कर दिये थे। शीघ्र ही उन्हें पता चल गया कि सपनों की उड़ान से अलग जीवन की अपनी शर्तें होती हैं जिन्हें हर हाल में पूरा किये बिना अस्तित्व बचा पाना पाना सम्भव नहीं।
संघर्ष के इन दिनों में उसे ब्रह्मपुर की बहुत याद आती .... बचपन के मित्र, गुल्ली-डण्डा, गजानन बाबू की गाय का बाछा, ददन भैया की बकरी के छौनों की उछल-कूद, बड़ा तालाब, गन्ने के खेत, आम के बाग, कच्चे अमरूद, झरबिरिया के खट्टे बेर, तेज आँधी में हवा की कुपित दहाड़, तपी हुयी धरती पर पहली बौछार का स्वागत करती ब्रह्मपुर की माटी की सुगन्ध .....और भी न जाने क्या-क्या। उसे खेतों की टेढ़ी-मेढ़ी मेड़ों पर चलना बहुत अच्छा लगता था...दोनो हाथ फैलाकर ...जैसे कोई पंछी उड़ने की चेष्टा में हो। वहाँ की मामूली सी चीज़ें भी अब उसके लिये महत्वपूर्ण हो गयी थीं। उसे वहाँ की हर चीज़ रुलाती थी ...जार-जार। और दादी की याद करके तो जैसे उसकी आँखों के बाँध ही फूट पड़ते।
तापर उसका मन रखने के लिये कहता,” चलो न! एक बार हो कर आयें ब्रह्मपुर”। वह मना कर देती, “नहीं.... वह रास्ता तो मैं स्वयं ही बन्द करके आयी हूँ ...अब किस मुँह से जाऊँगी वहाँ?” इसके बाद तो जैसे पूरे अरब सागर की सारी लहरें एक साथ उछल कर उसके चेहरे को भिगोने लगतीं। तापर कुछ बोल तो नहीं पाता किंतु आत्मग्लानि के बोध से अन्दर ही अन्दर दरकता रहता। उसका बस चलता तो तापसी के लिये क्या-क्या नहीं कर डालता। वह मायूस होकर एक ओर बैठा रहता ...या फिर तापसी का सिर अपनी गोद में रख उसके बालों को सहलाता रहता और तापसी हिचकियाँ लेती रहती.... ।

उस दिन दोपहर से ही बादल घिरे हुये थे शाम होते-होते ढ़रक पड़े। तापसी ने सिगरेट सुलगायी और खिड़की के पास खड़ॆ होकर बाहर झाँकते तापर के पास आकर खड़ी हो गयी। तापर ने देखा तो चौंक गया, “ यह क्या कर रही हो?”
उसने एक हलका कश लिया और खाँसती हुयी बोली, “क्यों...मैं नहीं पी सकती क्या?”
तापर ने झट से सिगरेट छिनाकर फेक दी, कहा- “नहीं ...लड़कियाँ सिगरेट नहीं पीतीं”
तापसी ने बुरा सा मुँह बनाया, बोली- “किस धर्मशास्त्र में लिखा है कि सिगरेट सिर्फ़ मर्द ही पी सकते हैं...और यह लड़कियों के लिये वर्ज्य है?
तापर दुखी हो गया- “ मैं तुम्हारी तरह तर्क नहीं कर सकता पर भगवान के लिये ऐसा मत करो”
तापसी ने कहा- “सिगरेट के बिना भी लोग जीवित रह सकते हैं...फिर भी लोग पीते हैं ...क्योंकि उन्हें ऐसा करना अच्छा लगता है ...और आज मेरा भी मन है ...बल्कि मेरा तो मन तुम्हारे साथ बैठकर शराब पीने का है”।
तापर ने घबराकर तापसी की ओर देखा, वह बुरी तरह डर गया। यह हो क्या गया है आज तापसी को? उसने माथा छूकर देखा फिर कहा- “चलो, अन्दर चलो। तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है”
तापसी हँस पड़ी, “विचित्र बात है, तुम लोग सिगरेट–शराब पियो तो सामान्य है और मेरी इच्छा हो तो मेरी तबियत खराब है?...अच्छा तापर यह बताओ ये सब नियम बनाता कौन है?”
तापर रोने लगा, “ ये तुम्हें क्या होता जा रहा है? देखो जीवन से इस तरह निराश मत हो। मैं यथाशक्ति कर तो रहा हूँ। हम भूखों तो नहीं मर रहे न! ये दिन भी ऐसे ही नहीं रहेंगे .....हम धीरे-धीरे सफलता की ओर आगे बढ़ते ही जा रहे हैं किंतु समय तो लगेगा न!  तुम चिंता मत करो तापसी ..... “
तापसी गम्भीर हो गयी, “मैं तुम्हारे साथ खुश हूँ तापर! मुझे बहुत सारा पैसा नहीं चहिये ...पर न जाने क्यों मुझे लगता है कि हमने बहुत कुछ खो दिया है....कुछ ऐसा जो अब कभी हमें वापस नहीं मिलेगा।“
यह कहते-कहते फफक पड़ी वह। दोनो फिर आँसुओं के सैलाब में डूब गये।

वर्जनायें तोड़ना इतना कठिन नहीं है .... जो कठिन है वह है अपनी मान्यताओं को विस्मृत कर पाना। अपनी जड़ों को छोड़कर दूर जा पाना। किंतु तब तापसी यह सब कहाँ समझ पायी थी।
पूरे विश्व में संस्कृतियों का आदान-प्रदान मानवीय स्वभाव की एक सहज प्रक्रिया रही है। इस प्रक्रिया में उत्थान और पतन दोनो की प्रबल सम्भावनायें होती हैं। यह इस बात पर निर्भर करता है कि हमने अपना क्या महत्वपूर्ण त्यागा और दूसरों का क्या अव्यावहारिक अपनाया अथवा अपना क्या अव्यावहारिक त्यागा और दूसरों का क्या महत्वपूर्ण अपनाया। कई बार नवीनता के मोह में हम अपनी जड़ों को गम्भीर क्षति पहुँचा डालते हैं, तब विशाल तने को भी सूखने में देर नहीं लगती। यह ठीक उसी प्रकार की प्रक्रिया है जैसे देह की प्रकृति समान न होने पर दान में प्राप्त प्रत्यारोपित अंग कितना भी आवश्यक क्यों न हो किंतु उसे भी अपनी देह अपनाने से मना कर देती है। नवीनता के आकर्षण में आयातित परम्पराओं को तापसी के सुषुप्त विवेक की माटी में गहरी दबी पड़ी भारतीय जड़ों ने दुत्कारना प्रारम्भ कर दिया था।     

आज रंगमंच निदेशक कुलकर्णी की छोटी बेटी की शादी थी। तापसी और तापर बड़े मन से सज-धज कर गये थे। अचानक ही तापसी ने तापर को अलग बुलाकर कहा- "चलो घर चलते हैं।"
तापर भौंचक ! अब क्या हो गया? पूछ- "क्या बात है, तबियत तो ठीएक है न?"

तापसी रोने-रोने को हो रही थी, सिर झुकाकर बोली, “कुछ नहीं ..बस यूँ ही ...आप घर चलिये ...मुझे अच्छा नहीं लग रहा”
दोनो लोग कुलकर्णी से क्षमायाचना कर वापस आ गये। घर आते ही तापसी फ़ूट-फूट कर रो पड़ी। तापर ने बहुत पूछा तो केवल इतना ही कह सकी कि उसे दादी की बहुत याद आ रही है।
जिन परम्पराओं को अनावश्यक और पाखण्ड कहकर उपहास किया करती थी तापसी वे ही अतार्किक परम्परायें अब बहुत महत्वपूर्ण लगने लगी थीं उसे। वह समझ नहीं पा रही थी कि ऐसा क्या है इन पुरानी जड़ों में कि उनके बिना अस्तित्व ही शून्य सा लगने लगा था। 
उस दिन तय हुआ कि अब से वे किसी की शादी में नहीं जाया करेंगे।
किंतु यह समाधान नहीं था.... कुछ था तो बस एक और भटकाव ही।  
पड़ोसियों को लगने लगा था कि तापसी आजकल मूडी होती जा रही थी। उसने लोगों से मिलना जुलना भी कम कर दिया था ...और बाहर निकलना भी।
तापसी को भी लगने लगा था कि वह दो टुकड़ों में होकर जी रही है। एक तापसी वह जो चलती-फिरती थी और एक वह जो सदा ही कुछ न कुछ सोचती रहती थी।  जिस क्षण वह मुम्बई में होती ठीक उसी क्षण वह ब्रह्मपुर में भी होती। इसका परिणाम यह होता कि कभी चाय में चीनी ही नहीं पड़ती तो कभी दाल में दो-दो बार नमक पड़ जाता। तापर उसकी मनोदशा से परिचित था इसलिये कभी कुछ नहीं कहता...किन्तु उसका कुछ न कहना ही तापसी के लिये एक और दुःख का कारण बन जाता।
उस दिन तो एक बड़ी दुर्घटना होते-होते बची। भोजन पकाते-पकाते तापसी के कपड़ों में आग लग गयी। तापर ने देख लिया तो तुरंत दौड़कर आग बुझाई। मैं उन दिनों मुम्बई में ही था। अचानक जब उनके घर पहुँचा तो तापसी को गुमसुम बैठे पाया और समीप ही तापर को रोते हुये। मैने राहत की साँस ली, एक गम्भीर घटना होते-होते टल गयी थी बस दुपट्टे का एक हिस्सा भर जल पाया था।
उनकी आर्थिक स्थिति पूर्वापेक्षा अच्छी होती जा रही थी किंतु तापसी की मनः स्थिति निरंतर बिगड़ती जा रही थी। अगले ही दिन मैंने उन दोनो से बात की और उन्हें ब्रह्मपुर चलकर विधिवत विवाह करने के लिये किसी तरह मना लिया। वर्जनाओं को तोड़ने वाली तापसी अब ख़ुश थी .....किंचित सहमी हुयी भी .....और अन्दर ही अन्दर कुछ भयभीत भी।

3-
मैं जब उन दोनो को लेकर ब्रह्मपुर पहुँचा तो शाम हो गयी थी। घर में दादी से भेंट हुयी, मिलते ही वे फूट पड़ीं। रोते-रोते बताया कि चिंतामणि और उनकी पत्नी दोनो ही नहीं रहे। तापसी का रोते-रोते बुरा हाल था। उसे देखकर तो मेरी भी रुलाई रुक नहीं पा रही थी। अब किसी से कहने-सुनने जैसी कोई स्थिति नहीं बची थी।  
समाज वही जीवित रह पाता है जिसमें तरलता होती है। और इस तरलता के लिये ब्रह्मपुर के लोगों को मैंने अंतःकरण से धन्यवाद दिया। कुछ दिन वहाँ रुककर आनन-फानन में तापसी और रामकृष्ण के विवाह की तैयारियाँ की गयीं।
सदैव वर्जनाओं को तोड़ने वाली लड़की ने अग्नि के समक्ष सात फेरे लेकर एक बार फिर सभी को चकित कर दिया था। दादी के अंतःकरण से आशीर्वाद की बरसात होने लगी थी।  
आज पहली बार तापसी ने तापर को उसके नाम से नहीं पुकारा। अपने लिये नया सम्बोधन “सुनिये.....” सुनते ही तापर की आँखों की कोरें भीग उठीं।                  

बुधवार, 9 मई 2012

महाभिनिष्क्रमण से निर्वाण तक

प्रिय ब्लॉग साहित्यकार बन्धु एवं भगिनी!

यशोधरा जैसी न जाने कितनी ऐसी स्त्रियाँ हैं जो बड़ी ख़ामोशी से अपने सहचर की ऐषणाओं की पूर्ति के लिये स्वयं को नीव का पत्थर बना देती हैं। ऐषणा चाहे भौतिक हो या आध्यात्मिक पति के लिये स्त्री का उत्सर्ग  पति की तमाम उपलब्धियों के अधिकतम मूल्य से भी कहीं अधिक है...इतना अधिक कि कोई अपना सर्वस्व दे कर भी उसे चुका नहीं सकता। स्त्री का स्वर..उसकी भावना...उसका त्याग ...उसका समर्पण सब कुछ नेपथ्य में बना रहता है और जीवन के रंगमंच पर प्रकाशित होती हैं केवल पुरुष की उपलब्धियाँ। नींव में पड़े पत्थरों की धड़कनों को सुना है रश्मि प्रभा जी ने ...और सुनकर उन्हें अपने शब्दों से ध्वनित कर दिया है अपनी कृति "महाभिनिष्क्रमण से निर्वाण तक" में। पठनीय और संग्रहणीय कृति....  
आपका    - कौशलेन्द्र

पुस्तक का नामः महाभिनिष्क्रमण से निर्वाण तक

विधाः कविता

कवयित्री- रश्मि प्रभा

पृष्ठः 96

मूल्यः रु 150

प्रकाशकः हिंद युग्म, नई दिल्ली




रश्मि प्रभा का नाम इंटरनेट की दुनिया के लेखकों-पाठकों के लिए नया नहीं है। रश्मि उन बहुत थोड़े लोगों में से हैं, जिन्होंने इस आभासी दुनिया का बहुत रचनात्मक इस्तेमाल किया है। ये थोड़े लोग ही किसी माध्यम विशेष की प्रासंगिकता को चिन्हित करते हैं। हर कवि लिखते-लिखते एक समय अपनी एक खास शैली विकसित कर लेता है। प्रस्तुत संग्रह में रश्मि अपने पूर्णतया मौलिक स्वर एवं शैली के साथ मौजूद हैं। इनकी कविताओं का झुकाव कुछ हद तक आध्यात्मिक है और इस संग्रह की लगभग हर कविता में यह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान है।

सिद्धार्थ के महाभिनिष्क्रमण की कहानी का मुख्य पात्र यधोधरा है। रश्मि ने 'सिद्धार्थ ही होता' कविता के माध्यम से किसी सिद्धार्थ के बुद्ध होने की प्रक्रिया में उसकी यशोधरा की भूमिका को रेखांकित किया है। रश्मि की यह नवीन दृष्टि ही इनके लेखन को नई ऊँचाइयाँ प्रदान करती है। असल में रश्मि के काव्य-साहित्य की एक बहुत खास बात यह भी है कि इसमें पौराणिक एवं ऐतिहासिक चरित्र नये अर्थों के निकस पर कसे जाते हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इस कारण ही रश्मि की कविताएँ प्राचीन मान्यताओं, परंपराओं एवं प्रवृत्तियों पर नये तरह से विमर्श करने का सामर्थ्य रखती हैं।

रश्मि अपनी कुछ कविताओं में पुरुषवादी प्रवृत्तियों से मध्यमवर्गीय स्त्री की भाँति सवाल करती नजर आती हैं। 'महिला दिवस' के नाम पर पुरुषवादी मानसिकता द्वारा किए जाने वाले छल को उजागर करती हैं। 'पुरुष और स्त्री' कविता में एक दार्शनिक की तरह इन दो मानसिकताओं का फर्क समझाती हैं। कुल मिलाकर रश्मि की कविताओं में बहुत सारे विमर्श हैं, बहुत से सवाल हैं, कुछ समाधान भी हैं और इनसे भी अधिक लगातार असंवेदनशील होते जा रहे मनुष्य को सचेत करने के प्रयास हैं। मैं समझता हूँ कि पाठक इन्हें हृदय से स्वीकारेंगे।

शैलेश भारतवासी

संपादक, हिंद युग्म

शनिवार, 5 मई 2012

रुग्णत्व का पोटेंशियल

    आज सुबह चिकित्सालय आते ही एक राजनीतिक दल के कुछ लोगों से भेंट हो गयी। पता चला कि उनके समाज(अनुसूचित जाति) का एक अधिकारी जो दो दिन पहले रिश्वत लेते गिरफ़्तार किया गया था, चिकित्सालय में भर्ती है। राजनीतिक दल के लोग जो कि अधिकारी के समाज के भी हैं ..अपने दोनो रिश्तों के पालनार्थ उसकी मुक्ति के लिये जुगाड़ लगाने आये हैं। उनके अनुसार सुविधाजनक बात यह है कि हमारे चिकित्सालय के वरिष्ठ अधिकारी भी उन्हीं के "समाज " के हैं अतः उन्होंने यह तय कर लिया है कि काम तो होना ही है, वे आश्वस्त हैं।
    वास्तव में जो पीड़ित पक्ष है( जिससे रिश्वत की माँग की गयी थी) उसका कहीं अता-पता नहीं है( बेचारा कोस रहा होगा अपनी किस्मत को)।
    अधिकारी की गिरफ़्तारी होते ही समीकरण बदल गये, पीड़ित की परिभाषायें बदल गयीं। सहानुभूति के प्रवाह की धारा बदल गयी। नेताओं से लेकर "समाज" विशेष के लोग उसकी मुक्ति के लिये चिंतित हो उठे। अन्ना और बाबा रामदेव की चिंताओं की ऐसी कम तैसी होने लगी। यह वही समाज है जो बाबा और अन्ना के आन्दोलनों में उनका समर्थन करता है ...उनकी जय-जयकार करता है...भ्रष्टाचार के विरोध में ज़िन्दाबाद-मुर्दाबाद के गला फाड़-फाड़ के नारे लगाता है और जब कोई उनका अपना ..उनके अपने "समाज" का कोई रिश्वतख़ोर पकड़ा जाता है तो उसकी मुक्ति और उसे निर्दोष प्रमाणित करने के लिये चिंता से व्याकुल हो उठता है। तब पूरा भारत उनका समाज नहीं होता .... वह खण्डित समाज उनका अपना होता है जिसके खण्डत्व को लेकर वे मनुवाद को जमकर गालियाँ देने में अपना सम्पूर्ण पुरुषार्थ न्योछावर कर देते हैं। ऐसे ही अनेक चेहरे वाले लोगों की भीड़ के कष्टों के निवारणार्थ ...उनकी ख़ुशहाली के लिये .....रामराज्य के आदर्शों को पुनर्स्थापित करने के लिये अन्ना, बाबा, सुब्रमण्यम स्वामी चिंतातुर हैं।  
   जब से होश सम्भाला है, रसूख़दार लोगों को गिरफ़्तार होते ही तुरंत बीमार होते पाया है ...उन्हें तत्काल अस्पताल में भर्ती कर देने से कम में उनके प्राणों की रक्षा सम्भव नहीं हो पाती। इससे यह प्रमाणित हो गया है कि हमारे देश में रुग्णत्व स्थाई भाव से रहता है। वह भ्रष्ट लोगों के शरीर और मन में अचानक ही प्रस्फ़ुटित हो जाता है। रसूख़दारों को रुग्ण होने से बचाना है ...उन्हें स्वस्थ्य बनाये रखना है तो रोग के कारण का निवारण अनिवार्य है। रोग का कारण है उनकी गिरफ़्तारी। यह एक ऐसा इटियोलॉजिकल फ़ैक्टर है जिसका निवारण होते ही रसूख़दार पापी एक झटके में ही स्वस्थ्य हो जाता है...बिना किसी औषधि के। औषधि की आवश्यकता तो ग़रीबों को पड़ती है ...निर्बलों और असहायों को पड़ती है ...उन्हें पड़ती है जो शोषित और पीड़ित हैं ....उन बेचारों का काम तो नकली दवाइयों से भी चल जाता है।
     इससे एक बात और भी प्रमाणित होती है कि भारत में राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध...आदि भी इन्हीं समस्यायों से जूझते रहे .....जूझते-जूझते परमात्मा में विलीन हो गये....समस्यायें और भी बढ़ती चली गयीं। यह विचारणीय है कि महान आत्माओं को भारत में ही अवतार क्यों लेना पड़ता है बारम्बार ? धर्म की ग्लानि भारत में ही क्यों होती हैकि उसके अभ्युत्थान के लिये महान आत्माओं को "...युगे-युगे" अवतार लेने विवश होना पड़ता है? धर्म को ग्लानि की अवस्था तक पहुँचाने वाले अधर्मियों पर अंकुश का और क्या उपाय हो सकता है कि भारत का सामाजिक जीवन थोड़ा सा तो पश्चिम जितना व्यवस्थित हो सके! मुझे लगता हैकि भारत में निरंकुश स्वतंत्रता ही सारी समस्यायों की जड़ है।     

शुक्रवार, 4 मई 2012

कृषि उद्यानिकी का द्वीप ..उत्तरांचल


उत्तरांचल और उससे लगे उत्तरी उत्तरप्रदेश की जो बात मुझे बहुत आकर्षित करती है वह है वहाँ की कृषि उद्यानिकी .... रेल मार्ग  से यात्रा करते हुये खेतों के हरे-भरे दृष्य आपके मन को बरबस ही अपनी ओर आकृष्ट  कर लेते हैं। देखिये कुछ दृष्य आप भी....  

 

पॉपुलर के बड़े-बड़े वृक्षों के मध्य गेहूँ की खेती
 

और समीप से देखिये .....ग्रीन एंड गोल्ड ......



पूरी धरती सोना हो गयी ....



नीर के समीप उगने वाला ग्रेमिनी परिवार का नरकुल, जब हम बच्चे थे तो इसके तनों से बनाते थे कलम ...
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इसे नहीं पहचाना न ! पहचानेंगे कैसे... आमतौर पर मिलता ही कहाँ है ! रुद्राक्ष के ये सुन्दर वृक्ष हिमालय की गोद में ही मिलते हैं। जी हाँ! यही है रुद्राक्ष ..गले की माला और हृदय रोग की औषधि।



पड़ गये न चक्कर में ...अरे मीठा नीम तो है ये। बोले तो करी पत्ता .......
भीनी-भीनी सुगन्ध वाले इसके पुष्पों का गुच्छा कितना सुन्दर है!




भोले बाबा की नगरिया! ..जी नहीं! यह  है पण्डित गोविन्द बल्लभ पंत कृषि विश्वविद्यालय पंतनगर। विजया यानी भाँग यहाँ खरपतवार की तरह उगती है। मुझे तो इसके नन्हे-नन्हे फूल बहुत ख़ूबसूरत लगे....बाकी बनारस वाले जानें ....     :)
और हाँ! भाँग के पत्तों की सूती कपड़े में पोटली बनाकर अर्श यानी बबासीर यानी हीमोरॉइड्स के मस्सों की सिकायी करने से दर्द में लाभ मिलता है।
{मस्सों को नशा जो आ जाता है :)) }



जित देखूँ तित भंगा ....मत लेना मुझसे पंगा...... नहीं तो होगा दंगा .......क्यों गन्दी कर दी गंगा ......
ओह! लगता है चढ़ गयी  .....मैं तो चला.....अरे कोई नीबू तो दो मुझे ....