छातियों
में आजकल, दिल कोई रहता नहीं॥
मौसम को जाने क्या हुआ, अब कली खिलती नहीं।
मोर जी भर-भर के नाचा,घटा ही बरसी नहीं॥
उस मिलन की बेला में, बात थी कुछ यूँ हुयी।
जो बसी थी बात दिल में, होठ पर आयी नहीं॥
दोष उनको दूँ मैं क्या, ख़ुद में ही उलझी रही।
वो तो निभाने आये थे, ख़ुद ही मैं आयी नहीं॥
जल
गये परवाने कितने, बुझ गये दीपक जो थे।
अब
चाल देखो देश की, चल-चल के ठहरा है वहीं॥
लूट
कर मालिक बने हैं, सारे लुटेरे मेरे देश के।
आइने
सब तोड़ फेके, मिलते घरों में अब नहीं॥
ताज तो लूटे ही हैं पर, लाज
भी लूटी है जी भर।
क़त्ल
की है छूट उनको, हमको जीने की नहीं॥
गाँव
की ख़ुशबू चुरा ली, है शहर की भीड़ ने।
तेरे
ऐश ने लूटे हैं जंगल, बंजर ही बंजर हर कहीं॥
आग का
दरिया हूँ मैं, बस दर्द पीना शौक है।
हमसफ़र
दरिया में कोई, आके अब बनता नहीं॥
फ़ितरत
है भिड़ने की मेरी, मेरा ख़ून औरों सा नहीं।
आग जो
भड़की है दिल में, अब ये बुझने की नहीं॥
वाकई.........वो बात अब नहीं..............
जवाब देंहटाएंबढ़िया...
अनु
फ़ितरत है भिड़ने की मेरी, मेरा ख़ून औरों सा नहीं।
जवाब देंहटाएंआग जो भड़की है दिल में, अब ये बुझने की नहीं॥
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