जब
जीवन का आधार ही जीवन के अंत का कारण बन जाय तो आश्चर्य और भय होना स्वाभाविक है ।
मनुष्य
जीवन के प्राणाधार वायु, जल और आग जब-जब विकराल रूप धारण कर उसके अस्तित्व के लिये
संकट बने तब-तब आदिम मनुष्य को अपनी क्षुद्रता और असहायता का भान होता रहा ।
मनुष्य
की शक्तियाँ प्रकृति की इन महाशक्तियों के सामने कभी ठहर नहीं सकीं, अंततः उसे
प्रकृति की इन अजेय शक्तियों के आगे नतमस्तक होना पड़ा । अब वायु उसके लिए पवनदेव
थे, जल वरुणदेव और आग अग्निदेव । धीरे-धीरे प्रकृति की सभी शक्तियाँ देवरूप में
स्वीकार कर ली गयीं और इन शक्तियों का नियंता निराकार ईश्वर के रूप में । मनुष्य सभ्यता
के इतिहास में इससे बड़ी खोज आज तक नहीं हुयी ।
प्रकृति
के निरंतर साहचर्य, अनुभवों और असहायता ने मनुष्य के चिंतन की धारा को दृष्ट-तत्व
से अदृष्ट-तत्व की ओर मोड़ दिया । अब तक सूक्ष्म में विराट तत्व के दर्शन ने मनुष्य
को अचम्भित और अभिभूत कर दिया था । वह भीड़ से पृथक एक विशिष्ट चिंतक बन गया ।
एक दिन
किसी ने पूछा, क्या कर रहे हो ? उसने उत्तर दिया - सूक्ष्म की साधना ।
भीड़ को
यह उत्तर अनोखा लगा, उसने तुरंत निर्णय कर लिया कि वह व्यक्ति कुछ विशिष्ट है ।
लोगों ने उसे चारो ओर से घेर लिया और सूक्ष्म की साधना की व्याख्या करने का अनुरोध
किया ।
विशिष्ट
व्यक्ति ने ब्रह्माण्ड की सृष्टि और प्रलय की तात्विक व्याख्या की । उसने बताया कि
किस तरह अदृष्ट शक्ति ब्रह्माण्ड के रूप में प्रकट होती है और फिर वही स्थूल
ब्रह्माण्ड पुनः उस महाशक्ति में लीन हो कर अदृष्य हो जाता है ।
संवाद
और अभिव्यक्ति की सरलता के लिए उस शक्ति को नाम दिया गया – “ईश्वर” ।
भीड़ को
उस विशिष्ट व्यक्ति की बातें बड़ी रहस्यमयी लगीं । यह रहस्य बोधगम्य न होते हुये भी
अचम्भित करने वाला था । उसकी बातों में दिव्यता थी, सम्मोहन था ।
भीड़ ने
अनुरोध किया कि वे ब्रह्माण्ड के उस अद्भुत रचयिता और नियंता के दर्शन करना चाहते
हैं । विशिष्ट व्यक्ति के बारम्बार यह कहने पर भी, कि ईश्वर निराकार, निर्गुण, अखण्ड,
अजन्मा और अमर है इसलिए अदृष्टव्य है, भीड़ हठ करती ही रही । तब विशिष्ट व्यक्ति ने
भीड़ से तत्व साधना में प्रवृत्त होने को कहा ।
भीड़ ने
निराकार शक्ति के चिंतन का प्रयास किया किंतु सफल नहीं हो सकी । उसकी कल्पना में शून्य
निराकार नहीं हो सका । भीड़ को देखने में रुचि थी, प्रमाण में रुचि थी । उसने
निराकार को साकार करने का हठ किया और कुछ प्रतीक बना डाले । भीड़ ने अजन्मा को जन्म
दे दिया, निराकार को साकार कर डाला । भीड़ की कल्पना में ईश्वर कुछ उसके जैसा और कुछ
विशिष्ट था ।
निराकार
को भीड़ ने साकार कर दिया, नाम रखा ब्रह्म ।
सर्वशक्तिमान
निराकार ईश्वर की साकार रचना करके भीड़ अपनी उपलब्धि पर आत्ममुग्ध तो थी किंतु
संतुष्ट नहीं । उसने निराकार को फिर एक रूप दिया, नाम रखा विष्णु । भीड़ अभी भी
संतुष्ट नहीं थी । उसने निराकार को एक रूप और दिया, नाम रखा शिव ।
रहस्य
के प्रति भीड़ की भूख बढ़ती जा रही थी । उसने निराकार को कई रूप दे दिये । मनभावन
ईश्वर की रचना करते समय भीड़ ने अपनी कल्पना को सुन्दर रंगों से सजाने में कोई
संकोच नहीं किया । सुन्दर रूप, सुन्दर वस्त्र, सुन्दर भोजन, सुन्दर आवास .....सब
कुछ सुन्दर ही सुन्दर । सौन्दर्य में कृपणता कैसी ! भीड़ का ईश्वर एक अलौकिक मानवाकृति के रूप में प्रकट हुआ और अपने
जन्मदाता को भाँति-भाँति से लुभाने लगा ।
आकार
और विकार के समवाय सम्बन्ध को भीड़ ने नकार दिया था इसलिये साकार ईश्वर शनैः शनैः विकारग्रस्त
होने लगा ।
अब भीड़
के लिए उसके द्वारा रचित ईश्वर भी भीड़ जैसा ही हो गया था । जो विशिष्ट था वह सामान्य
हो गया ...ठीक मनुष्य के जैसा ही ।
ईश्वर को
मनुष्य बनाने के खेल में भीड़ आनन्दित हो उठी ...फिर एक दिन आनन्दातिरेक में उसने
अपने बीच के एक व्यक्ति को ही ईश्वर बना दिया । भीड़ का एक व्यक्ति ईश्वर बन कर
रोमांचित हो उठा ।
विक्रम
संवत 2071 तक भारत की भीड़ ने कई व्यक्तियों को ईश्वर बना दिया । भीड़ रचित ईश्वर एक
से अनेक हो गये हैं और भारत की लोकतांत्रिक सत्ता को चुनौती देने लगे हैं ।
भीड़ अपने
ईश्वर से पीड़ित होने लगी है । उसका आर्थिक, शारीरिक और मानसिक शोषण होने लगा है ।
भीड़ अब कई वर्गों में विभक्त हो गयी है । एक वर्ग पीड़ित है इसलिए न्याय की माँग
करता है, एक वर्ग इस विकृत खेल से रोमांचित है इसलिए इस खेल को प्रोत्साहित करता
है, एक वर्ग मूक दर्शक है इसलिए वह कोई प्रतिक्रिया नहीं करता ।
एक वर्ग ऐसा भी है जो इस खेल से चिंतित है, वह
प्रतिक्रिया भी करता है किंतु उसकी प्रतिक्रिया ध्वनित नहीं हो पाती । इस खेल को
प्रोत्साहित करने वाले वर्ग को प्रतिक्रियायें अच्छी नहीं लगतीं इसलिए वह हर
प्रतिक्रिया की हत्या कर देता है ।
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