रविवार, 17 सितंबर 2017

बलात्कार कब तक होते रहेंगे माँ ?





यदि कोई बिलखती हुयी बच्ची, जिसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया हो, अपनी माँ से यह प्रश्न पूछे कि “ये बलात्कार कब तक होते रहेंगे माँ?” तो उसका उत्तर देने के लिये हम सबको तैयार रहना होगा ।  
यौनशोषण और बलात्कार जैसे शब्द अब उस कृत्य की गम्भीरता और क्रूरता को ठीक-ठीक ज्ञापित कर सकने में असमर्थ हो चुके हैं । सामूहिक बलात्कार ने विगत कुछ वर्षों में जघन्यता और क्रूरता का जो स्वरूप अपनाया है उसके लिए अब किसी नए शब्द को गढ़े जाने की आवश्यकता है । इसे मानसिक विकृति कहकर टाला नहीं जा सकता, अब यह केवल क्रूर यौन शोषण ही नहीं रहा बल्कि एक ऐसा क्रूरष्ट मनोदैहिक और सामाजिक अपराध है जिसके आगे अन्य सारे अपराध और क्रूरतायें हलकी प्रतीत होने लगी हैं । हम इसकी तुलना पशुता से भी नहीं कर पा रहे हैं । इन अपराधियों का आचरण पशुता पर भी भारी पड़ गया है ।
सभ्य और सुसंस्कृत समाज में ऐसे अमानवीय आचरण पर अंकुश न हो पाना हम सबकी अकर्मण्यता, निष्ठाहीनता, अवसरवादिता और संकल्पहीनता का परिणाम है । हम केवल सरकारों को ही इसके लिए दोषी नहीं ठहरा सकते । वास्तव में हम एक ऐसी त्रासदीपूर्ण अपसंस्कृति के शिकार हो रहे हैं जिसके विरुद्ध हम सबको खड़े होने की आवश्यकता है । हमें उस वर्ग को चिन्हांकित करना होगा जो ऐसे कृत्यों में बिना आगे-पीछे विचार किये प्रवृत्त होता है । हम अपनी बेटियों पर तो प्रतिबन्ध लगाना चाहते हैं लेकिन अपने बेटों को मुक्तसांड बनते देखकर भी चुपचाप रहते हैं । नारी शक्ति यदि अपने मातृत्व का सही निर्वहन कर सके तो बेटे इतने क्रूर नहीं होंगे । हमें संचार माध्यमों में प्रदर्शित किये जाने वाले उन उद्दीपन कारणों के विरुद्ध भी उठकर खड़े होना होगा जो ऐसे अपराधों के लिए लोगों को आकर्षित करते हैं ।    

यह घटना ग्वालियर की है जहाँ 4 सितम्बर की देर रात तीन युवकों ने घर में घुस कर माँ-बेटे को बन्धक बना लिया और 11 साल की बच्ची से सामूहिक बलात्कार किया ।
इस बच्ची की आँखों को देखिये, कपड़ों को देखिये .....और देख सकें तो इसकी आत्मा में भी झाँक कर देखिये जहाँ अवर्णनीय पीड़ा का महासागर गर्जन कर रहा है । कैसे हैं वे हृदय जो इस बच्ची को देखकर द्रवित नहीं हो पाते ? कैसे हैं वे लोग जो इन बच्चियों में वात्सल्य नहीं देख पाते ? वह कैसी दैहिक भूख है जिसे मिटाने के लिये रोती-कलपती और चीखती हुये बच्ची के शरीर को नोचने की आवश्यकता होती है । क्या हम इन्हें मनुष्य कह सकते हैं ? क्या इन्हें मनुष्य समाज में रहने का कोई अधिकार है ? क्या ये समाज में रहने के लिये उपयुक्त लोग हैं ? हम सबको मिलकर इन प्रश्नों के समाधानपरक उत्तर खोजने होंगे ।  

3 टिप्‍पणियां:

  1. अब तो बलात्कार जैसे शब्द लोगो को दहलाते नही ..किसी एक आंख में एक बूंद तक नही ला पते सुबह से टी वी हो या अखबार बलात्कार के समाचार हर रोज अध्ने को मिल जाते है .. आपका कहना सही है केवल सरकार पर दोषारोपण करके हम अपनी जिम्मेदारियों से मुंह छुपा रहे है और स्थिति बेकाबू होती जा रही है

    जवाब देंहटाएं

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.