मेले में उमड़ी है भीड़
भीड़ से डरती है भीड़
खोयी-खोयी रहती है भीड़
देखो फिर भी ज़माना भीड़ का
रीते-रीते हर नीड़ का ।
दौड़-दौड़ चलती है भीड़
चटर-पटर बोलती है भीड़
मौके पे गूँगी बन जाती है भीड़
देखो फिर भी ज़माना भीड़ का
रीते-रीते हर नीड़ का ।
ढकती है सूर्य कुटिल मेघों की भीड़
रात-रात जागती रहती है भीड़
झाँकता है सूर्य सोती रहती है भीड़
देखो फिर भी ज़माना भीड़ का
रीते-रीते हर नीड़ का ।
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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.