गुरुवार, 24 मई 2012

क्यों राम के सब काज हैं?


साँझ तो ठहरी है कबसे, रात भी आई नहीं।
भोर की करते प्रतीक्षा, बीतते युग आज हैं॥

नर्तकी ने मूर्ति में पायी शरण होकर विवश।
हैं पाँव में घुंघरू बंधे, बजते नहीं पर साज हैं॥

कर रहे अवतार की, फिर से प्रतीक्षा देश में।
कर्म से हैं सब विमुख, क्यों राम के सब काज हैं?  

वंचकों के हाथ में, हैं सूत्र सत्ता के थमे।
खोद डालीं सारी कब्रें, मिलते नहीं पर राज हैं॥

वो उड़ाते हैं जो पंछी, अब दूत हैं ना शांति के।
वेष कपोतों के धरे, उड़ते हुये सब बाज हैं॥

चोर घर-घर में घुसे, बिख़रे हुये असबाब हैं।
ताज़ लेकर घूमते, गर्दभ बड़े नायाब हैं॥

प्राण हैं सहमे हुये, कुचले हुये कुछ ख़्वाब हैं।
इश्क़ से है इश्क़ हमको, इश्क़ में बरबाद हैं॥

रविवार, 20 मई 2012

अवतार

   मंच के ठीक सामने वाले मंचपट पर मध्य में तथागत बुद्ध का नीलवर्णी धम्मचक्र..और उसके ठीक पास ही बाबा साहब भीमराव आम्बेडकर का छाया चित्र। मंच पर दो सुसज्जित आसन थे, वर वधू के आने की प्रतीक्षा की जा रही थी। समारोह में आयी भीड़ अधीर हो रही थी। तभी मंच पर श्वेत परिधान में वर-वधू ने प्रवेश किया। समारोह प्रारम्भ हुआ, वैवाहिक संस्कार की बौद्ध परम्परा देखने का यह प्रथम अवसर था मेरे लिए। संस्कार प्रारम्भ हुआ, वर वधू ने धम्मचक्र और बाबा साहेब को बारी-बारी से हाथ जोड़कर प्रणाम किया।
  मैने अपने पास बैठे व्यक्ति से पूछा कि धम्मचक्र तो ठीक है पर विवाह समारोह में बाबा साहब का छवि चित्र ? उसने कहा, “जिस प्रकार आपलोग अपने अवतारी देवी-देवताओं को अपने समारोहों में पूजते हैं उसी तरह हम भी बाबा साहब को पूजते हैं। हमारे लिये वे अवतारी देव हैं।“
  जिन बाबा साहब ने व्यक्तिपूजा को समाज के लिये घातक बताया था वे ही बाबा साहब अपने अनुयायियों द्वारा अवतारी घोषित किये जाकर वैवाहिक समारोहों में पूज्य हो गये हैं। निमिष मात्र में मेरी समझ में आ गया कि हमारे देश में तैंतीस कोटि देवता क्यों हैं। आने वाले समय में स्वर्गीय कांशीराम और बहन मायावती जी भी अवतार के रूप में स्वीकृत हो वैवाहिक समारोहों में पूज्य होंगे इसमें कोई संशय नहीं है। कवि तुलसीदास और अखिलविश्व गायत्री परिवार के संस्थापक आचार्य श्रीराम शर्मा से लेकर मोहनदास करमचन्द गाँधी और जवाहरलाल नेहरू तक सब “अवतार श्रेणी” की स्वीकृति की पंक्ति में हैं। बल्कि तुलसीदास तो अवतार स्वीकृत हो गये हैं शेष लोगों में आचार्य शर्मा अपनी सहधर्मिणी के साथ इस पंक्ति में सबसे आगे हैं और उनके नाम पर भी स्वीकृति की लगभग मोहर लग चुकी है। घर के देवी-देवताओं वाले प्रकोष्ठ में वे स्थान पा चुके हैं। अवतारों में दो नाम तो विस्मृत ही हो गये, साईं बाबा और श्री सत्य साईं बाबा के। यूँ मन्दिर में मूर्ति बनकर प्रतिष्ठित तो अमिताभबच्चन भी हो गये हैं। पर मायावती जी को दुनिया पर भरोसा थोड़ा कम है इसलिये उन्होंने कोई रिस्क न लेते हुये अपनी आदमकद मूर्तियाँ अपने जीते जी प्रतिष्ठित करवा दीं। मृत्यु के बाद भी पूज्य बने रहने की अदम्य लालसा का यह उत्कृष्ट उदाहरण है। 
  अनुमान हैकि आगामी दो हज़ार वर्षों में ये सभी लोग ईश्वर के अवतार के रूप में निश्चित ही प्रतिष्ठित व सर्वमान्य हो जायेंगे। यह सब सोचते हुये मेरे मन में दो बातें उठ रही हैं, पहली यह कि क्या राम-सीता, हनुमान, कृष्ण-राधा, महावीर, बुद्ध, जीसस और मोहम्मद साहब भी इसी प्रक्रिया से होते हुये ईश्वर के अवतार रूप में प्रतिष्ठित हुये होंगे? दूसरी बात यह कि अवतार माना जाना इतना अनिवार्य क्यों है?
  कदाचित इसलिये कि हम साधारण मनुष्य हैं, चमत्कारों से आकर्षित होते हैं और प्रशंसा से भावविभोर हो जाते हैं। हम इनके बिना अपने जीवन में आनन्द और दुःखहर्ता की कल्पना नहीं कर सकते। अवतार हमें चमत्कारों की दुनिया में ले जाते हैं और एक दुःखहर्ता या विघ्नहर्ता के रूप में हमारी समस्याओं के निवारण को सुनिश्चित करते हैं। हम इन महान लोगों की शिक्षाओं के अनुकरण की अपेक्षा दीपक जलाकर इनकी प्रशंसा में आरती गाना अधिक सहज और समस्या निवारण के लिये अचूक उपाय मानते हैं।
  व्यक्तिगत रूप से बात की जाय तो उक्त सभी अवतारों के प्रति मेरे मन में सम्मान है किंतु कृष्ण मुझे सर्वाधिक प्रभावित करते हैं, अद्वितीय हैं वे...... इस अर्थ में कि श्रीमद्भगवद्गीता में उन्होंने जो भी उपदेश दिये हैं वे अद्भुत हैं और व्यक्तिगत समस्याओं से लेकर अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं तक के समाधान का निर्दुष्ट उपाय प्रस्तुत करते हैं। कृष्ण की यह विलक्षणता किसी को भी आकर्षित कर  सकती है और हृदय स्वतः ही उनके प्रति श्रद्धावनत हो जाता है।
  मैं चमत्कारों और प्रशंसा की बात कह रहा था। जब हम किसी के प्रशंसक होते हैं तो प्रशंसा की सारी सीमायें तोड़ देते हैं। उदाहरण हैं वर्तमान बाबाओं की लम्बी श्रंखला और हमारे नेतागण। बाबाओं के भक्त बिना चमत्कारों का विवरण दिये अपनी बात की शुरुआत ही नहीं करते। नेताओं के मुसाहिब अपने नेता के ऐसे-ऐसे किस्से सुनाते हैं कि श्रोता को विश्वास हो जाता हैकि ये नेता जी सच्चे तारनहार, एकमात्र ईमानदार और चरित्रवान हैं बाकी सब ठग हैं।              
  लोगों को लगता हैकि जनता का विश्वास जीतने के लिये चमत्कारी व्यक्तित्व की बात करना अनिवार्य है..... प्रशंसा के पुल पर पुल बाँधे चले जाना ही लोगों को सम्मोहित कर सकेगा। जो है ही नहीं वह भी प्रदर्शित करना हमारा स्वभाव है... अभी से नहीं ...आदिम युग से है। विज्ञापन का भी यही मनोविज्ञान है। अपने घटिया उत्पाद को बेचने के लिये ऐसा विज्ञापन दिया जाता है जो या तो चमत्कार होता है या चमत्कार के समीप या फिर अतिशयोक्तिपूर्ण। जो नहीं है उसे प्रकाशित किया जाता है। लोग भी प्रभावित होकर न केवल उस उत्पाद पर विश्वास करते हैं अपितु उस उत्पाद को ख़रीदते भी हैं क्योंकि वे विज्ञापन से सम्मोहित हो चुके हैं ...जो “नहीं है” उसे “है” मान लेते हैं।
  गोस्वामी तुलसीदास जी के जन्म के बारे में और फिर उनके जीवन में भगवानों के साक्षात दर्शन के बारे में जो जनश्रुति है उस पर विश्वास कर पाना मेरे लिये तनिक कठिन है। उनकी कृति रामचरित मानस को भगवान विश्वनाथ जी के मन्दिर में रख देने पर एक दिन सुबह मन्दिर के पट खोले जाने पर पाया गया कि पुस्तक पर सत्यम शिवम सुन्दरम् लिखकर भगवान शंकर जी ने सही कर दिया है। एक दिन भगवान विश्वनाथ जी के मन्दिर में वेद-पुराणों को रखा गया और सबसे नीचे रामचरित मानस को रखा गया। सुबह मन्दिर के पट खोलने पर पाया गया कि रामचरित मानस सबसे ऊपर रखी हुयी है..अर्थात भगवान विश्वनाथ जी ने रामचरित मानस को वेद-पुराणों से भी अधिक महत्वपूर्ण माना। भगवान शिव के द्वारा सत्यं शिवं सुन्दरम् लिखकर सही कर देने और वेदों के ऊपर रामचरितमानस कृति के स्वतः आ विराजने की कथा निश्चित ही पाठक को किसी चमत्कार की दुनिया में ले जाने वाली घटनायें हैं।
   मैं एक बात नहीं समझ पाता हूँ कि भगवान लोगों को ऐसे चमत्कार, (जिनकी जनहित के लिये कोई उपादेयता नहीं है) करने की अपेक्षा घोटालेवाजों और रिश्वतखोरों को सद्बुद्धि देने का चमत्कार करने की कभी इच्छा क्यों नहीं होती? भगवान लोग करुणानिधान हैं, कृपा के सागर हैं निर्दोष आमजन पर कृपा क्यों नहीं करते? क्यों किसी कन्या के बलात्कार के समय प्रकट नहीं होते? क्यों उसकी रक्षा नहीं करते? विश्व के कोटि-कोटि लोग कुछ अत्याचारियों के अत्याचारों को सहते हुये क्यों जीवन भर कष्ट भोगते रहने के लिये विवश होते हैं? मैं जानता हूँ भक्तों के पास इसका उत्तर हैकि जो कष्ट भोग रहे हैं वे या तो अपने पूर्व जन्म के पापों का दण्ड भोग रहे हैं या फिर निर्दोष हैं तो उन्हें कष्ट देने वाले अगले जन्म में दण्ड पायेंगे। मैं इस तर्क को मान लूँगा पर इस प्रश्न का उत्तर मिल जाने के बाद कि जो निर्दोष हैं वे क्यों किसी के पाप का शिकार बनते हैं...क्या केवल इसलिये कि पापी को दण्ड देने का प्रमाण प्राप्त हो जाय? भक्त के पास इसका भी उत्तर है, वे कहेंगे कि यही तो भगवान की लीला है। ...और मेरी तर्क बुद्धि इस उत्तर को स्वीकार कर पाने में असमर्थ है। भगवान की लीला तो वह है जो ब्रह्माण्ड में सदैव घटित होती रहती है ...प्राणियों के शरीर में घटित होती रहती है। क्वांटम फ़िजिक्स की घटनायें भी हमें आश्चर्यचकित करती हैं...ईश्वर के प्रति सहज आस्था और विश्वास उत्पन्न करती हैं।  मैं तो जब-जब ह्यूमन फ़िजियोलॉजी पढ़ता हूँ तब-तब मुझे शरीर की छोटी से छोटी घटना में भी ईश्वर के अस्तित्व के प्रमाण मिलते रहते हैं।  कोर्ई आवश्यक नहीं कि हर कोई इन विषयों को जाने, ईश्वर के अस्तित्व के प्रमाण तो प्रकृति की नाना घटनाओं में भी हर पल मिलते रहते हैं, कोई उन प्रमाणों को क्यों नहीं देख पाता? औचित्यहीन चमत्कारों में ही अस्तित्व क्यों दिखाई देता है ईश्वर का ? और दिखाई भी देता है तो लोग उसे देखकर भी मनुष्य क्यों नहीं बन पाते? प्रतिपल मनुष्यता की हत्या क्यों करते रहते हैं?

गुरुवार, 17 मई 2012

श्रद्धा का मूल्यांकन

आज मैं इस लेख का पूरा श्रेय अभियांत्रिकी विज्ञान से जुड़ीं शिल्पा जी को दे रहा हूँ क्योंकि इस लेख की प्रेरणास्रोत वे ही हैं। उनका एक प्रश्न है ...
प्रश्न बड़ा ही सुन्दर है - क्या प्रेम, भक्ति और श्रद्धा का मूल्यांकन किया जाना चाहिये ?

इसके प्रतिप्रश्न में एक प्रश्न यह भी उठता हैकि इनका मूल्यांकन क्यों नहीं किया जाना चाहिये?

चलिये, हम प्रेम से ही प्रारम्भ करते हैं। प्रेम करने वाले के हृदय में यदि अपने प्रेमी से प्रतिदान पाने की चाह है तो यह प्रेम "प्रेम" रहा ही कहाँ ...व्यापार की श्रेणी में आ गया वह तो। हीर-राँझा, लैला-मजनू वाला प्रेम नहीं हुआ वह।
व्यापार का मुख्य घटक है लाभ-हानि जोकि आदान-प्रदान के एक निर्धारित संतुलन पर निर्भर करता है। इस आदान-प्रदान वाले प्रेम में जब प्रतिदान नहीं मिलता तो हम अपने प्रेमी को गम्भीर क्षति पहुँचाने का भरपूर प्रयास करते हैं। ऐसी घटनायें अनोखी नहीं रह गयीं अब।

प्रेम तो एक ऐसी दीवानगी भरी स्थिति है जिसमें क्रोध नहीं होता ...तिरस्कार नहीं होता। किंतु हमारे आसपास यह हो रहा है, इसलिये प्रेम के इस स्वरूप की उपेक्षा नहीं की जा सकती। इसका मूल्यांकन करना पड़ेगा।

प्रेम करने वाला यदि देता ही जाय...देता ही जाय ...तो ही प्रेम की सार्थकता है। प्रेम की यही दीवानगी प्रेम करने वाले को वैचारिक शीर्ष तक पहुँचा पाती है ......अन्यथा प्रेम कुछ समय बाद बिखरने लगता है। इसलिये प्रेम का मूल्यांकन उसकी पवित्रता और उत्कृष्टता के आधार पर किया ही जाना चाहिये।

हम देशप्रेम की बातें करते तो हैं पर उसके लिये अपने निजी हितों का लेश भी त्याग करने के लिये तैयार नहीं हैं। यह कैसा देशप्रेम हुआ?

हम प्रेम तो करते हैं पर जीव मात्र से नहीं कर पाते ...एकांगी प्रेम को लेकर चलते हैं।

हमारा प्रेम आपेक्षिक हो गया है ...एकांगी हो गया है इसलिये हम अपनी पत्नी, बच्चों और सम्पत्ति से ही प्रेम कर पाते हैं ...प्रेम इससे आगे बढ़ ही नहीं पाता।

प्रेम आगे नहीं बढ़ पाता इसलिये हमें दूसरों को धोखा देने में पीड़ा नहीं होती। कपट में पीड़ा नहीं होती।

मैं पूछता हूँ, यह कैसा प्रेम है जो हमें कुन्दन नहीं बना पाता? ऐसा कुन्दन जो हर किसी के लिये सदैव कुन्दन ही हो। जो हर... जगह हर स्थिति में अपनी आभा बिखेरता रहे।

शुद्ध अंतःकरण की पवित्रभावना की समर्पण प्रक्रिया का नाम है भक्ति। इस प्रक्रिया का एक अपरिहार्य तत्व है श्रद्धा।

मैने पवित्रभावना की बात कही, इस पर विचार करना होगा। क्या है यह पवित्रभावना?

यह है मानव मन की वह सकारात्मक ऊर्जा जो अभाव में से प्रकट होती है...और निःशर्त होती है।

अभाव ही जब विराट होता है तब भाव हो जाता है। व्यक्तिगत स्तर पर यह परम तत्व की स्वीकार्यता है बिना किसी तर्क के।
भावना में पवित्रता आवश्यक है। भावना पावित्र है तो भक्ति है ....भक्ति है तो भाव का प्रकटीकरण है।

यह प्रकटीकरण चमत्कार है ..किंतु लौकिक स्तर पर नहीं ...आध्यात्मिक स्तर पर ...।

कई बार हम प्रवचन से प्रभावित होकर या किसी लौकिक पीड़ा से मुक्ति पाने के लिये भक्ति करना तो चाहते हैं पर हो नहीं पाती ...यह इतना सरल नहीं है। दिखता है ...पर है नहीं। इसलिये नहीं है क्योंकि भक्ति शुद्धज्ञान की अगली प्रक्रिया है। शुद्धज्ञान के लिये तप करना पड़ता है.... चाहे इस जन्म में चाहे पिछले जन्म में। यदि पूर्व जन्म में हम शुद्धज्ञान के लिये तप कर चुके हैं तो इस जन्म में भक्ति सरल हो जाती है।

श्रद्धा हमें अभेद तक ले जाती है, ऐसी जगह ले जाती है जहाँ कोई द्वैत नहीं है। सम्पूर्ण चराचर जगत एक ही शक्ति का रूपांतरण लगने लगता है।

'
श्रद्धा' भक्त को अभेद तक ले जाती है ...किंतु लोक व्यवहार में क्या स्वरूप है इसका ? अभेद तक नहीं पहुँच रहे हैं हम। भेद में पड़े हुये हैं.....

ईश्वर के प्रति श्रद्धा तो बहुत है .....उसे स्मरण भी करते हैं पर ऑफ़िस पहुँचते ही भूल जाते हैं सब। तब हम हर गलत काम करने लगते हैं । तब भूल जाते हैंकि जिससे रिश्वत ले रहे हैं हम ...वह भी अभेद है। यह कैसी श्रद्धा है?

किसी आर्थिक अपराध में बन्दी होते ही परिवार के लोग ईश्वर की भक्ति में डूबने लगते हैं....मन्नतें मानी जाने लगती हैं। एक शर्त रख दी जाती है ईश्वर के सामने कि यदि वे जेल से छूट गये तो मन्दिर में 'ये' या 'वो' चढ़ावा चढ़ा देंगे। यह श्रद्धा है या निराकर को रिश्वत देने का दुस्साहस?

कितने लोग हैं भारत में जो नास्तिक हैं? ...कदाचित हर कोई स्वयं को आस्तिक ही कहलाना चाहेगा। और कितने लोग हैं ऐसे जो लोककल्याण के लिये जी पाते हैं? हम मन्दिर भी जाते हैं ...श्रद्धा से नमन करते हैं अपने आराध्य के चरणों में और ढेरों गलत काम भी करते हैं। इतने गलत काम करते हैं कि दुनिया में कुख्यात हो गये। यह कैसी श्रद्धा है?

हम श्रद्धापूर्वक शपथ लेकर सदन में बैठते हैं और किसी घोटाले में कुछ ही दिन बाद बन्दी बना लिये जाते हैं। ऐसी श्रद्धा का क्या अर्थ है ...यह पूरा देश जानना चाहता है।

यह देश यह भी जानना चाहता हैकि मन्दिर में अलग-अलग धनराशि देने वालों के लिये गर्भगृह तक जाने के अलग-अलग रास्ते क्यों हैं ?

यह देश ईश्वरभक्तों और श्रद्धालुओं का देश है और हम जानना चाहते हैं कि वे कौन लोग हैं जो भ्रूण हत्यायें करते हैं ?

कन्या को देवी का स्वरूप मानने वाले लोगों के देश में स्त्री के साथ बलात्कार करने वाले कौन लोग हैं ? सामने अपराध होता हुआ देखकर भी गवाही देने से कतराने वाले लोग कौन हैं ? क्या ये सब नास्तिक हैं? क्या इनके मन में ईश्वर के प्रति श्रद्धा नहीं है? यदि इनमें श्रद्धा नहीं है तो श्रद्धालु कहाँ हैं ...किस कन्दरा में छिपे हुये हैं ?

मेरा सीधा सा प्रश्न है कि घोटाले करते समय, रिश्वत लेते समय, दूध में पानी मिलाते समय, बलात्कार करते समय, भ्रूण हत्या करते समय हमारी श्रद्धा कहाँ होती है? क्या इस श्रद्धा का कोई मूल्यांकन नहीं होना चाहिये ?

हमने मूल्यांकन करना छोड़ दिया, श्रद्धा को लोकाचार से अलग कर दिया...जीवन से शुचिता को अलग कर दिया...अपने पाप धोते रहे...धोते रहे ..इतने धोये कि गंगा को अपवित्र कर दिया। पाप हम अभी भी धो ही रहे हैं ....क्योंकि पाप करना बन्द नहीं किया हमने।

यह श्रद्धा है कैसी जो हमारे आचरण में दृष्टिगोचर नहीं होती कहीं ?

जो निराकार, निर्गुण, अनादि, अनंत और अखण्ड है उसे साकार, सगुण, जन्म-मृत्यु वाला और खण्डित देखने लगे हैं हम ....अपनी स्थूल आँखों से देखने लगे हैं। उसे चलते-फिरते, हँसते-रोते, युद्ध करते देखते हैं हम। और उससे कुछ चमत्कार की आशा करने लगे हैं ...बिना कोई कर्म किये "कृपा" चाहने लगे हैं हम। यह कैसी श्रद्धा है जिसने हमें भिखारी बना दिया है?

हमारी आँखों के सामने से रोज़ न जाने कितने दुखी-पीड़ित आते-जाते रहते हैं हमारी दृष्टि उन्हें क्यों नहीं देख पाती? क्यों हमारी इतनी श्रद्धा के बाद भी धर्म की हानि होती रहती है और धर्म संस्थापनार्थाय ईश्वर को अवतार लेने के लिये विवश होना पड़ता है?

हम नटराज को नृत्य करते देखते हैं ...डॉक्टर फ़्र्ट्ज़ ऑफ़ काप्रा नटराज की उन्हीं मुद्राओं में ब्राउनियन मूवमेंट देखते हैं। यह दृष्टि हमारे पास क्यों नहीं है ? हम जीवन को केवल चमत्कारों से क्यों भर देना चाहते हैं ?

यह सब इसलिये है क्योंकि हमने अपनी श्रद्धा का मूल्यांकन नहीं किया...करना चाहते भी नहीं। ऐसी मूल्यांकन रहित श्रद्धा ने ही हमें अकर्मण्य और भ्रष्ट बना दिया है।

एक सत्य घटना बता रहा हूँ - कुछ वर्ष पूर्व यहाँ (बस्तर में) एक बाबा आया था ...एक सिद्ध पुरुष के रूप में शीघ्र ही उसने ख्याति अर्जित कर ली। वह हर प्रकार के रोगों की चिकित्सा लात मारकर करता था...और इसके बदले में किसी से कुछ लेता नहीं था। केवल एक नारियल और अगरबत्ती चढ़ानी पड़ती थी। लोगों में उसके प्रति श्रद्धा उमड़ पड़ी। कई रोगी वहाँ गये और तुरंत लाभांवित होकर आ गये। एक इंजीनियर साहब कटिशूल से पीड़ित थे और मेरी चिकित्सा में थे...पूछा मुझसे कि वे भी लाभांवित होना चाहते हैं ..चले जायें क्या? मैने कहा कि यह निर्णय उन्हें ही करना है, मैं तो केवल इतना ही बता सकता हूँ कि लात मारकर चिकित्सा करने की कोई बात मेरी समझ से परे है। वे गये ...लौटकर आकर बताया कि वे ठीक हो गये हैं और अब उन्हें कोई औषधि लेने की आवश्यकता नहीं है। सप्ताह भर बाद वे फिर आये, बोले कि पीड़ा फिर शुरू हो गयी है ...एक बार फिर जाना पड़ेगा बाबा के पास ...शायद ढ़ंग से लात लग नहीं पायी होगी। वे पुनः गये ....किंतु शायद लात मारने में फिर कुछ गड़बड़ हो गयी होगी। बाद में उन्होंने फिर से औषधि लेना शुरू किया।

कुछ समय तक चमत्कार दिखाने के बाद बाबा जी चले गये। बाद में पता चला कि बाबा के पास प्रतिदिन सुबह से रात तक सैकड़ों नारियल चढ़ावे में आ जाते थे। कुछ नारियल प्रसाद में बट जाने के बाद शेष अगले दिन उन्हीं दूकानदारों के पास फिर पहुँच जाते थे। बदले में बाबा को मिलती थी दूकानदारों से प्रतिदिन एक मोटी रकम। यह कैसी श्रद्धा है? क्या इस श्रद्धा पर चर्चा नहीं होनी चाहिये?

आश्चर्य तो यह हैकि इन श्रद्धालुओं में उच्च शिक्षित वर्ग के लोग भी हैं। ....और हम फिर भी श्रद्धा का मूल्यांकन करने के लिये तैयार नहीं हैं क्योंकि हमने उसे भावनाओं और आस्था के आहत हो जाने से जोड़ दिया है। ईश्वर के प्रति हमारी आस्था इतनी नाज़ुक क्यों हैकि वह तर्क की बात आते ही आहत होने लगती है?

आस्था में यदि गहराई है ....ज्ञान का सुदृढ़ आधार है तो वह कभी आहत नहीं हो सकती। ..और जो आहत हो जाती है वह आस्था है ही नहीं पाखण्ड है।