आज
मैं इस लेख का पूरा श्रेय अभियांत्रिकी विज्ञान से जुड़ीं शिल्पा जी को दे रहा हूँ
क्योंकि इस लेख की प्रेरणास्रोत वे ही हैं। उनका एक प्रश्न है ...
प्रश्न बड़ा ही सुन्दर है
- क्या प्रेम, भक्ति और श्रद्धा का मूल्यांकन किया
जाना चाहिये ?
इसके प्रतिप्रश्न में एक प्रश्न यह भी उठता हैकि इनका मूल्यांकन क्यों नहीं किया जाना चाहिये?
चलिये, हम प्रेम
से
ही प्रारम्भ करते हैं। प्रेम करने वाले के हृदय में यदि अपने प्रेमी से प्रतिदान
पाने
की चाह है तो यह प्रेम "प्रेम" रहा ही कहाँ ...व्यापार की श्रेणी में आ
गया वह
तो।
हीर-राँझा,
लैला-मजनू
वाला प्रेम नहीं हुआ वह।
व्यापार
का मुख्य घटक है लाभ-हानि जोकि आदान-प्रदान के एक निर्धारित संतुलन पर
निर्भर करता है। इस आदान-प्रदान वाले प्रेम में जब प्रतिदान नहीं मिलता तो हम अपने
प्रेमी को गम्भीर क्षति पहुँचाने का भरपूर प्रयास करते हैं। ऐसी घटनायें अनोखी नहीं
रह गयीं अब।
प्रेम
तो एक ऐसी दीवानगी भरी स्थिति है जिसमें क्रोध नहीं होता ...तिरस्कार
नहीं होता। किंतु हमारे आसपास यह हो रहा है, इसलिये प्रेम के इस
स्वरूप की उपेक्षा नहीं की जा सकती। इसका मूल्यांकन करना पड़ेगा।
प्रेम
करने वाला यदि देता ही जाय...देता ही जाय ...तो ही प्रेम की सार्थकता है।
प्रेम की यही दीवानगी प्रेम करने वाले को वैचारिक शीर्ष तक पहुँचा पाती है
......अन्यथा प्रेम कुछ समय बाद बिखरने लगता है। इसलिये प्रेम का
मूल्यांकन उसकी पवित्रता और उत्कृष्टता के आधार पर किया ही जाना
चाहिये।
हम
देशप्रेम की बातें करते तो हैं पर उसके लिये अपने निजी हितों का लेश भी त्याग
करने के लिये तैयार नहीं हैं। यह कैसा देशप्रेम हुआ?
हम
प्रेम तो करते हैं पर जीव मात्र से नहीं कर पाते ...एकांगी प्रेम को लेकर चलते
हैं।
हमारा
प्रेम आपेक्षिक हो गया है ...एकांगी हो गया है इसलिये हम अपनी पत्नी, बच्चों और सम्पत्ति से
ही प्रेम कर पाते हैं ...प्रेम इससे आगे बढ़ ही नहीं पाता।
प्रेम
आगे
नहीं बढ़ पाता इसलिये हमें दूसरों को धोखा देने में पीड़ा नहीं होती। कपट में
पीड़ा
नहीं होती।
मैं
पूछता हूँ,
यह
कैसा प्रेम है जो हमें कुन्दन नहीं बना पाता? ऐसा कुन्दन जो हर किसी
के लिये सदैव कुन्दन ही हो। जो हर... जगह हर स्थिति में अपनी आभा बिखेरता रहे।
शुद्ध
अंतःकरण की पवित्रभावना की समर्पण प्रक्रिया का नाम है भक्ति। इस प्रक्रिया
का एक अपरिहार्य तत्व है श्रद्धा।
मैने
पवित्रभावना
की
बात
कही,
इस
पर विचार करना होगा। क्या है यह पवित्रभावना?
यह
है मानव मन की वह सकारात्मक ऊर्जा जो अभाव में से प्रकट होती है...और निःशर्त
होती है।
अभाव
ही
जब विराट होता है तब भाव हो जाता है। व्यक्तिगत स्तर पर यह परम तत्व की
स्वीकार्यता
है बिना किसी तर्क के।
भावना
में
पवित्रता
आवश्यक है। भावना पावित्र है तो भक्ति है ....भक्ति है तो भाव का
प्रकटीकरण
है।
यह
प्रकटीकरण
चमत्कार है ..किंतु लौकिक स्तर पर नहीं ...आध्यात्मिक स्तर पर ...।
कई
बार हम प्रवचन से
प्रभावित
होकर या किसी लौकिक पीड़ा से मुक्ति पाने के लिये भक्ति करना तो चाहते हैं
पर
हो नहीं पाती ...यह इतना सरल नहीं है। दिखता है ...पर है नहीं। इसलिये नहीं है
क्योंकि
भक्ति शुद्धज्ञान की अगली प्रक्रिया है। शुद्धज्ञान के लिये तप करना पड़ता
है....
चाहे इस जन्म में चाहे पिछले जन्म में। यदि पूर्व जन्म में हम शुद्धज्ञान के
लिये
तप कर चुके हैं तो इस जन्म में भक्ति सरल हो जाती है।
श्रद्धा
हमें अभेद तक ले जाती है,
ऐसी
जगह
ले
जाती है जहाँ कोई द्वैत नहीं है। सम्पूर्ण चराचर जगत एक ही शक्ति का रूपांतरण
लगने लगता है।
'श्रद्धा' भक्त को अभेद तक ले
जाती है ...किंतु लोक व्यवहार में क्या स्वरूप है इसका ? अभेद तक नहीं पहुँच
रहे हैं हम।
भेद
में पड़े हुये हैं.....
ईश्वर
के प्रति श्रद्धा तो बहुत है .....उसे स्मरण भी करते हैं पर ऑफ़िस पहुँचते ही
भूल जाते हैं सब। तब हम हर गलत काम करने लगते हैं । तब भूल जाते
हैंकि जिससे रिश्वत ले रहे हैं हम ...वह भी अभेद है। यह कैसी श्रद्धा है?
किसी
आर्थिक
अपराध में बन्दी होते ही परिवार के लोग ईश्वर की भक्ति में डूबने लगते
हैं....मन्नतें
मानी जाने लगती हैं। एक शर्त रख दी जाती है ईश्वर के सामने कि यदि
वे
जेल से छूट गये तो मन्दिर में 'ये' या 'वो' चढ़ावा चढ़ा देंगे। यह
श्रद्धा है
या
निराकर को रिश्वत देने का दुस्साहस?
कितने
लोग
हैं भारत में जो नास्तिक हैं? ...कदाचित हर कोई स्वयं को आस्तिक ही कहलाना
चाहेगा।
और
कितने लोग हैं ऐसे जो लोककल्याण के लिये जी पाते हैं? हम मन्दिर भी
जाते
हैं ...श्रद्धा से नमन करते हैं अपने आराध्य के चरणों में और ढेरों गलत काम भी
करते
हैं। इतने गलत काम करते हैं कि दुनिया में कुख्यात हो गये। यह कैसी श्रद्धा
है?
हम
श्रद्धापूर्वक शपथ लेकर सदन में बैठते हैं और किसी घोटाले में कुछ ही दिन बाद
बन्दी बना लिये जाते हैं। ऐसी श्रद्धा का क्या अर्थ है ...यह पूरा देश जानना चाहता
है।
यह
देश
यह भी जानना चाहता हैकि मन्दिर में अलग-अलग धनराशि देने वालों के लिये गर्भगृह
तक
जाने के अलग-अलग रास्ते क्यों हैं ?
यह
देश
ईश्वरभक्तों और श्रद्धालुओं का देश है और हम जानना चाहते हैं कि वे कौन लोग हैं
जो
भ्रूण हत्यायें करते हैं ?
कन्या
को देवी का स्वरूप मानने वाले लोगों के देश में स्त्री के साथ बलात्कार करने
वाले कौन लोग हैं ?
सामने
अपराध होता हुआ
देखकर
भी गवाही देने से कतराने वाले लोग कौन हैं ? क्या ये सब नास्तिक
हैं?
क्या
इनके
मन में ईश्वर के प्रति श्रद्धा नहीं है? यदि इनमें श्रद्धा
नहीं है तो
श्रद्धालु
कहाँ हैं ...किस कन्दरा में छिपे हुये हैं ?
मेरा
सीधा
सा प्रश्न है कि घोटाले करते समय, रिश्वत लेते समय, दूध में पानी मिलाते
समय,
बलात्कार
करते समय,
भ्रूण
हत्या करते समय हमारी श्रद्धा कहाँ होती है? क्या इस
श्रद्धा
का कोई मूल्यांकन नहीं होना चाहिये ?
हमने
मूल्यांकन
करना छोड़ दिया,
श्रद्धा
को लोकाचार से अलग कर दिया...जीवन से शुचिता को अलग कर दिया...अपने
पाप धोते रहे...धोते रहे ..इतने धोये कि गंगा को अपवित्र कर दिया। पाप हम अभी भी
धो ही रहे हैं ....क्योंकि पाप करना बन्द नहीं किया हमने।
यह
श्रद्धा है कैसी जो हमारे आचरण में दृष्टिगोचर नहीं होती कहीं ?
जो
निराकार, निर्गुण, अनादि, अनंत और अखण्ड है उसे
साकार,
सगुण, जन्म-मृत्यु वाला और
खण्डित
देखने लगे हैं हम ....अपनी स्थूल आँखों से देखने लगे हैं। उसे चलते-फिरते, हँसते-रोते, युद्ध करते देखते हैं
हम। और उससे कुछ चमत्कार की आशा करने लगे हैं ...बिना कोई कर्म किये
"कृपा" चाहने लगे हैं हम। यह कैसी श्रद्धा है जिसने हमें
भिखारी
बना दिया है?
हमारी
आँखों के सामने से रोज़ न जाने कितने दुखी-पीड़ित आते-जाते रहते हैं हमारी
दृष्टि उन्हें क्यों नहीं देख पाती? क्यों
हमारी
इतनी श्रद्धा के बाद भी धर्म की हानि होती रहती है और धर्म संस्थापनार्थाय
ईश्वर
को अवतार लेने के लिये विवश होना पड़ता है?
हम
नटराज
को नृत्य करते देखते हैं ...डॉक्टर फ़्र्ट्ज़ ऑफ़ काप्रा नटराज की उन्हीं
मुद्राओं
में ब्राउनियन मूवमेंट देखते हैं। यह दृष्टि हमारे पास क्यों नहीं है ? हम
जीवन
को केवल चमत्कारों से क्यों भर देना चाहते हैं ?
यह
सब इसलिये है क्योंकि हमने अपनी श्रद्धा का मूल्यांकन नहीं किया...करना चाहते भी
नहीं। ऐसी मूल्यांकन रहित श्रद्धा ने ही हमें अकर्मण्य और भ्रष्ट बना दिया है।
एक
सत्य घटना बता रहा हूँ - कुछ वर्ष पूर्व यहाँ (बस्तर में) एक बाबा आया था ...एक
सिद्ध पुरुष के रूप में शीघ्र ही उसने ख्याति अर्जित कर ली। वह हर प्रकार के
रोगों की चिकित्सा लात मारकर करता था...और इसके बदले में किसी से कुछ लेता नहीं था।
केवल एक नारियल और अगरबत्ती चढ़ानी पड़ती थी। लोगों में उसके प्रति श्रद्धा उमड़
पड़ी। कई रोगी वहाँ गये और तुरंत लाभांवित होकर आ गये। एक इंजीनियर साहब कटिशूल से
पीड़ित थे और मेरी चिकित्सा में थे...पूछा मुझसे कि वे भी लाभांवित होना चाहते हैं
..चले जायें क्या?
मैने
कहा कि यह निर्णय
उन्हें
ही करना है,
मैं
तो केवल इतना ही बता सकता हूँ कि लात मारकर चिकित्सा करने की कोई बात मेरी समझ
से परे है। वे गये ...लौटकर आकर बताया कि वे ठीक हो गये हैं और
अब
उन्हें कोई औषधि लेने की आवश्यकता नहीं है। सप्ताह भर बाद वे फिर आये, बोले कि
पीड़ा
फिर शुरू हो गयी है ...एक बार फिर जाना पड़ेगा बाबा के पास ...शायद ढ़ंग से लात
लग
नहीं पायी होगी। वे पुनः गये ....किंतु शायद लात मारने में फिर कुछ गड़बड़ हो गयी
होगी।
बाद में उन्होंने फिर से औषधि लेना शुरू किया।
कुछ
समय तक चमत्कार दिखाने के बाद बाबा जी चले गये। बाद में पता चला कि बाबा के पास
प्रतिदिन सुबह से रात तक सैकड़ों नारियल चढ़ावे में आ जाते थे। कुछ नारियल प्रसाद
में बट जाने के बाद शेष अगले दिन उन्हीं दूकानदारों के पास फिर पहुँच जाते थे।
बदले में बाबा को मिलती थी दूकानदारों से प्रतिदिन एक मोटी रकम। यह कैसी श्रद्धा
है?
क्या
इस श्रद्धा पर चर्चा नहीं होनी चाहिये?
आश्चर्य
तो यह
हैकि
इन श्रद्धालुओं में उच्च शिक्षित वर्ग के लोग भी हैं। ....और हम फिर भी
श्रद्धा
का मूल्यांकन करने के लिये तैयार नहीं हैं क्योंकि हमने उसे भावनाओं और
आस्था
के आहत हो जाने से जोड़ दिया है। ईश्वर के प्रति हमारी आस्था इतनी नाज़ुक क्यों
हैकि
वह तर्क की बात आते ही आहत होने लगती है?
आस्था
में यदि गहराई है ....ज्ञान का सुदृढ़ आधार है तो वह कभी आहत नहीं हो सकती।
..और जो आहत हो जाती है वह आस्था है ही नहीं पाखण्ड है।
प्रेम तो एक ऐसी दीवानगी भरी स्थिति है जिसमें क्रोध नहीं होता ...तिरस्कार नहीं होता। किंतु हमारे आसपास यह हो रहा है, इसलिये प्रेम के इस स्वरूप की उपेक्षा नहीं की जा सकती। इसका मूल्यांकन करना पड़ेगा।
प्रेम करने वाला यदि देता ही जाय...देता ही जाय ...तो ही प्रेम की सार्थकता है। प्रेम की यही दीवानगी प्रेम करने वाले को वैचारिक शीर्ष तक पहुँचा पाती है ......अन्यथा प्रेम कुछ समय बाद बिखरने लगता है। इसलिये प्रेम का मूल्यांकन उसकी पवित्रता और उत्कृष्टता के आधार पर किया ही जाना चाहिये।
हम देशप्रेम की बातें करते तो हैं पर उसके लिये अपने निजी हितों का लेश भी त्याग करने के लिये तैयार नहीं हैं। यह कैसा देशप्रेम हुआ?
हम प्रेम तो करते हैं पर जीव मात्र से नहीं कर पाते ...एकांगी प्रेम को लेकर चलते हैं।
हमारा प्रेम आपेक्षिक हो गया है ...एकांगी हो गया है इसलिये हम अपनी पत्नी, बच्चों और सम्पत्ति से ही प्रेम कर पाते हैं ...प्रेम इससे आगे बढ़ ही नहीं पाता।
प्रेम आगे नहीं बढ़ पाता इसलिये हमें दूसरों को धोखा देने में पीड़ा नहीं होती। कपट में पीड़ा नहीं होती।
मैं पूछता हूँ, यह कैसा प्रेम है जो हमें कुन्दन नहीं बना पाता? ऐसा कुन्दन जो हर किसी के लिये सदैव कुन्दन ही हो। जो हर... जगह हर स्थिति में अपनी आभा बिखेरता रहे।
शुद्ध अंतःकरण की पवित्रभावना की समर्पण प्रक्रिया का नाम है भक्ति। इस प्रक्रिया का एक अपरिहार्य तत्व है श्रद्धा।
मैने पवित्रभावना की बात कही, इस पर विचार करना होगा। क्या है यह पवित्रभावना?
यह है मानव मन की वह सकारात्मक ऊर्जा जो अभाव में से प्रकट होती है...और निःशर्त होती है।
अभाव ही जब विराट होता है तब भाव हो जाता है। व्यक्तिगत स्तर पर यह परम तत्व की स्वीकार्यता है बिना किसी तर्क के।
भावना में पवित्रता आवश्यक है। भावना पावित्र है तो भक्ति है ....भक्ति है तो भाव का प्रकटीकरण है।
यह प्रकटीकरण चमत्कार है ..किंतु लौकिक स्तर पर नहीं ...आध्यात्मिक स्तर पर ...।
कई बार हम प्रवचन से प्रभावित होकर या किसी लौकिक पीड़ा से मुक्ति पाने के लिये भक्ति करना तो चाहते हैं पर हो नहीं पाती ...यह इतना सरल नहीं है। दिखता है ...पर है नहीं। इसलिये नहीं है क्योंकि भक्ति शुद्धज्ञान की अगली प्रक्रिया है। शुद्धज्ञान के लिये तप करना पड़ता है.... चाहे इस जन्म में चाहे पिछले जन्म में। यदि पूर्व जन्म में हम शुद्धज्ञान के लिये तप कर चुके हैं तो इस जन्म में भक्ति सरल हो जाती है।
श्रद्धा हमें अभेद तक ले जाती है, ऐसी जगह ले जाती है जहाँ कोई द्वैत नहीं है। सम्पूर्ण चराचर जगत एक ही शक्ति का रूपांतरण लगने लगता है।
'श्रद्धा' भक्त को अभेद तक ले जाती है ...किंतु लोक व्यवहार में क्या स्वरूप है इसका ? अभेद तक नहीं पहुँच रहे हैं हम। भेद में पड़े हुये हैं.....
ईश्वर के प्रति श्रद्धा तो बहुत है .....उसे स्मरण भी करते हैं पर ऑफ़िस पहुँचते ही भूल जाते हैं सब। तब हम हर गलत काम करने लगते हैं । तब भूल जाते हैंकि जिससे रिश्वत ले रहे हैं हम ...वह भी अभेद है। यह कैसी श्रद्धा है?
किसी आर्थिक अपराध में बन्दी होते ही परिवार के लोग ईश्वर की भक्ति में डूबने लगते हैं....मन्नतें मानी जाने लगती हैं। एक शर्त रख दी जाती है ईश्वर के सामने कि यदि वे जेल से छूट गये तो मन्दिर में 'ये' या 'वो' चढ़ावा चढ़ा देंगे। यह श्रद्धा है या निराकर को रिश्वत देने का दुस्साहस?
कितने लोग हैं भारत में जो नास्तिक हैं? ...कदाचित हर कोई स्वयं को आस्तिक ही कहलाना चाहेगा। और कितने लोग हैं ऐसे जो लोककल्याण के लिये जी पाते हैं? हम मन्दिर भी जाते हैं ...श्रद्धा से नमन करते हैं अपने आराध्य के चरणों में और ढेरों गलत काम भी करते हैं। इतने गलत काम करते हैं कि दुनिया में कुख्यात हो गये। यह कैसी श्रद्धा है?
हम श्रद्धापूर्वक शपथ लेकर सदन में बैठते हैं और किसी घोटाले में कुछ ही दिन बाद बन्दी बना लिये जाते हैं। ऐसी श्रद्धा का क्या अर्थ है ...यह पूरा देश जानना चाहता है।
यह देश यह भी जानना चाहता हैकि मन्दिर में अलग-अलग धनराशि देने वालों के लिये गर्भगृह तक जाने के अलग-अलग रास्ते क्यों हैं ?
यह देश ईश्वरभक्तों और श्रद्धालुओं का देश है और हम जानना चाहते हैं कि वे कौन लोग हैं जो भ्रूण हत्यायें करते हैं ?
कन्या को देवी का स्वरूप मानने वाले लोगों के देश में स्त्री के साथ बलात्कार करने वाले कौन लोग हैं ? सामने अपराध होता हुआ देखकर भी गवाही देने से कतराने वाले लोग कौन हैं ? क्या ये सब नास्तिक हैं? क्या इनके मन में ईश्वर के प्रति श्रद्धा नहीं है? यदि इनमें श्रद्धा नहीं है तो श्रद्धालु कहाँ हैं ...किस कन्दरा में छिपे हुये हैं ?
मेरा सीधा सा प्रश्न है कि घोटाले करते समय, रिश्वत लेते समय, दूध में पानी मिलाते समय, बलात्कार करते समय, भ्रूण हत्या करते समय हमारी श्रद्धा कहाँ होती है? क्या इस श्रद्धा का कोई मूल्यांकन नहीं होना चाहिये ?
हमने मूल्यांकन करना छोड़ दिया, श्रद्धा को लोकाचार से अलग कर दिया...जीवन से शुचिता को अलग कर दिया...अपने पाप धोते रहे...धोते रहे ..इतने धोये कि गंगा को अपवित्र कर दिया। पाप हम अभी भी धो ही रहे हैं ....क्योंकि पाप करना बन्द नहीं किया हमने।
यह श्रद्धा है कैसी जो हमारे आचरण में दृष्टिगोचर नहीं होती कहीं ?
जो निराकार, निर्गुण, अनादि, अनंत और अखण्ड है उसे साकार, सगुण, जन्म-मृत्यु वाला और खण्डित देखने लगे हैं हम ....अपनी स्थूल आँखों से देखने लगे हैं। उसे चलते-फिरते, हँसते-रोते, युद्ध करते देखते हैं हम। और उससे कुछ चमत्कार की आशा करने लगे हैं ...बिना कोई कर्म किये "कृपा" चाहने लगे हैं हम। यह कैसी श्रद्धा है जिसने हमें भिखारी बना दिया है?
हमारी आँखों के सामने से रोज़ न जाने कितने दुखी-पीड़ित आते-जाते रहते हैं हमारी दृष्टि उन्हें क्यों नहीं देख पाती? क्यों हमारी इतनी श्रद्धा के बाद भी धर्म की हानि होती रहती है और धर्म संस्थापनार्थाय ईश्वर को अवतार लेने के लिये विवश होना पड़ता है?
हम नटराज को नृत्य करते देखते हैं ...डॉक्टर फ़्र्ट्ज़ ऑफ़ काप्रा नटराज की उन्हीं मुद्राओं में ब्राउनियन मूवमेंट देखते हैं। यह दृष्टि हमारे पास क्यों नहीं है ? हम जीवन को केवल चमत्कारों से क्यों भर देना चाहते हैं ?
यह सब इसलिये है क्योंकि हमने अपनी श्रद्धा का मूल्यांकन नहीं किया...करना चाहते भी नहीं। ऐसी मूल्यांकन रहित श्रद्धा ने ही हमें अकर्मण्य और भ्रष्ट बना दिया है।
एक सत्य घटना बता रहा हूँ - कुछ वर्ष पूर्व यहाँ (बस्तर में) एक बाबा आया था ...एक सिद्ध पुरुष के रूप में शीघ्र ही उसने ख्याति अर्जित कर ली। वह हर प्रकार के रोगों की चिकित्सा लात मारकर करता था...और इसके बदले में किसी से कुछ लेता नहीं था। केवल एक नारियल और अगरबत्ती चढ़ानी पड़ती थी। लोगों में उसके प्रति श्रद्धा उमड़ पड़ी। कई रोगी वहाँ गये और तुरंत लाभांवित होकर आ गये। एक इंजीनियर साहब कटिशूल से पीड़ित थे और मेरी चिकित्सा में थे...पूछा मुझसे कि वे भी लाभांवित होना चाहते हैं ..चले जायें क्या? मैने कहा कि यह निर्णय उन्हें ही करना है, मैं तो केवल इतना ही बता सकता हूँ कि लात मारकर चिकित्सा करने की कोई बात मेरी समझ से परे है। वे गये ...लौटकर आकर बताया कि वे ठीक हो गये हैं और अब उन्हें कोई औषधि लेने की आवश्यकता नहीं है। सप्ताह भर बाद वे फिर आये, बोले कि पीड़ा फिर शुरू हो गयी है ...एक बार फिर जाना पड़ेगा बाबा के पास ...शायद ढ़ंग से लात लग नहीं पायी होगी। वे पुनः गये ....किंतु शायद लात मारने में फिर कुछ गड़बड़ हो गयी होगी। बाद में उन्होंने फिर से औषधि लेना शुरू किया।
कुछ समय तक चमत्कार दिखाने के बाद बाबा जी चले गये। बाद में पता चला कि बाबा के पास प्रतिदिन सुबह से रात तक सैकड़ों नारियल चढ़ावे में आ जाते थे। कुछ नारियल प्रसाद में बट जाने के बाद शेष अगले दिन उन्हीं दूकानदारों के पास फिर पहुँच जाते थे। बदले में बाबा को मिलती थी दूकानदारों से प्रतिदिन एक मोटी रकम। यह कैसी श्रद्धा है? क्या इस श्रद्धा पर चर्चा नहीं होनी चाहिये?
आश्चर्य तो यह हैकि इन श्रद्धालुओं में उच्च शिक्षित वर्ग के लोग भी हैं। ....और हम फिर भी श्रद्धा का मूल्यांकन करने के लिये तैयार नहीं हैं क्योंकि हमने उसे भावनाओं और आस्था के आहत हो जाने से जोड़ दिया है। ईश्वर के प्रति हमारी आस्था इतनी नाज़ुक क्यों हैकि वह तर्क की बात आते ही आहत होने लगती है?
आस्था में यदि गहराई है ....ज्ञान का सुदृढ़ आधार है तो वह कभी आहत नहीं हो सकती। ..और जो आहत हो जाती है वह आस्था है ही नहीं पाखण्ड है।
प्रेम का मूल्यांकन उसकी पवित्रता और उत्कृष्टता के आधार पर किया जाना चाहिये।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर लाजबाब मूल्यांकन ,...
MY RECENT POST,,,,काव्यान्जलि ...: बेटी,,,,,
MY RECENT POST,,,,फुहार....: बदनसीबी,.....
आभार - आपने मुझे लक्षित कर के यह लेख लिखा | :)
जवाब देंहटाएं-------------
@ ..और जो आहत हो जाती है वह आस्था है ही नहीं पाखण्ड है।
१.- आपको दृढ़ विश्वास है इस बात का ? मुझे तो ऐसा नहीं लगता |
२.असहमत हूँ - पर अधिक विरोध नहीं करूंगी :) आवश्यकता नहीं लगती | यह हमारे अपने निजी मत है - जो अलग हो सकते हैं |
३.अधिकतर जो उदाहरण यहाँ दिए गए - श्रद्धा नहीं - श्रद्धा का दिखावामात्र हैं |
:)
वैसे - लेख बढ़िया लगा |
----------
ईश्वर के प्रति श्रद्धा का मूल्यांकन ... एक सीरियल चल रहा है ज़ी टीवी पर। एक कान्हा के भक्त का मूल्यांकन खुद राधिका द्वारा किया जा रहा है। हर परीक्षा में वह पास भी हो रही है --- छोटी बहू।
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