सोमवार, 12 नवंबर 2012

तकदीर बनाने प्यासों की अब कुयें स्वयं ही चलते हैं

     दया, दान, क्षमा, उदारता, प्रेम और अहिंसा .... आदि उदात्त मानवीय गुण समाज में संतुलन बनाये रखते हुये एक सहिष्णु और सौम्य समाज के  निर्माण में सहायक होते हैं। इसीलिये धर्मग्रंथों में इन गुणों की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी है। समाज के भौतिक विकास के साथ-साथ ये गुण अपने लक्ष्य खोते गये और आज दूषित कुविचारों के साधन मात्र बनकर रह  गये हैं।

     पात्रता का निर्धारण युक्तियुक्त तरीके से न करना उदात्त मानवीय गुणों का दुरुपयोग ही कहा जायेगा।  भिखारी को भीख देना उस पर दया करना है किंतु इस दया से उसकी तात्कालिक आवश्यकता की पूर्ति के अतिरिक्त कोई और उद्देश्य पूरा नहीं होता। एक आदर्श व्यवस्था तो यह है कि उसके भीख मांगने के कारणों को दूर करते हुये उसे आत्मनिर्भर बनने में सहयोग किया जाय।

     हमें यह समझना होगा कि सत्तायें सदा ही समाज में ऐसे कारण उत्पन्न करने में लगी रहती हैं जो शासन की ज्वलंत आवश्यकता को बनाये रखें। सत्ताओं की रुचि समस्या के समाधान में कम, उनके निर्माण में अधिक रहती है। आदिम समाज में सत्ता कभी समाज की आवश्यकता थी जो कि अब मनुष्य की आवश्यकता बन गयी है। जब हम समाज से मनुष्य की ओर आते हैं तो व्यक्तिवाद प्रकट होने लगता है। यह व्यक्तिवाद ही प्रभावी होकर कुविचारों और कुनीतियों को जन्म देता है।

     भारत जैसे प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न देश में अभाव, दरिद्रता, अपराध, अनीति, आतंक, असंतोष, हिंसा, बलात्कार,  रोग, अधोपतन और बौद्धिक पलायन जैसी समस्यायें हैं ......परंतु क्यों हैं यह गम्भीर चिंतन का विषय है। ये समस्यायें अनियंत्रित क्यों हैं ....इनका समाधान क्यों नहीं मिल पा रहा ....कहीं ये समस्यायें जानबूझकर निर्मित तो नहीं की गयीं? हम जिन आदर्शों के बारे में पढ़ते हैं ...जिन उपदेशों को सुनते हैं वे कहीं भी दिखायी क्यों नहीं देते ? और दिखायी देते हैं तो सुदूर उत्तर में स्वीडेन और फ़िनलैण्ड जैसे देशों तक ही सीमित क्यों हैं?

     इन प्रश्नों के उत्तर हमें खोजने होंगे। वस्तुतः भारत में सत्ता का उद्देश्य़, जैसा कि मैंने कहा, मनुष्य़ और समाज का निर्माण करना नहीं अपितु मनुष्य और समाज पर शासन करना भर ही रह गया है। सत्ता के लिये समाज को बांटने और लोगों में परस्परिक फूट डालने जैसे दुष्ट विचारों के लिये हमें अंग्रेज़ों को ही दोष देने की आदत से मुक्त होना होगा। स्वतंत्र भारत में अंग्रेज़ों की इस विरासत में निरंतर वृद्धि करने वाले लोग कौन हैं .....किस देश के निवासी हैं?

      भारत में आर्थिक अपराध घोटालों के रूप में मान्य हो चुके हैं। अपराध ने राजनीति को निगल कर पचा लिया है और राजनीति पूरी तरह अपराध के शरणागत् हो चुकी है। आज इन दोनों की एक-दूसरे के बिना कल्पना नहीं की जा सकती। भारत के किसी भी राजनीतिक दल में या समाज में भी भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिये दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव ही दिखायी दे रहा है। प्रशासन के उच्चाधिकारी प्रायः समाज के लिये कम किंतु  सत्ता के लिये अधिक समर्पणभाव से कार्य करते हैं। उनकी कार्यशैली इस बात का प्रमाण है। उनका सामंती तौर-तरीका और अन्य विभाग के अधिकारियों के साथ अकारण ही निरंतर अपमानजनक व्यवहार आश्चर्यजनक है। कई बार सन्देह होता है कि कहीं वे किसी अन्य ग्रह के प्राणी तो नहीं। उनके निर्णय अव्यावहारिक और समाज के लिये अनुपयोगी होते जा रहे हैं। तर्क उन्हें पसन्द नहीं ...केवल अपमानजनक तरीके से अव्यावहारिक आदेश देना ही उनके अस्तित्व का एकमात्र लक्षण बन गया है। यह एक शोध का विषय होना चाहिये कि भारत का एक आम नागरिक मसूरी से लौटने के बाद किसी दूसरे ग्रह का प्राणी कैसे और क्यों बन जाता है?

     आधी शताब्दी की स्वतंत्र यात्रा के पश्चात् अब यह स्पष्ट हो चुका है कि सत्ता बनाये रखने के लिये समाज को निरंतर और निरंतर दुर्बल बनाये रखने की आवश्यकता ही आज भारत का एकमात्र आदर्श रह गया है। जातिगत् आरक्षण की व्यवस्था समाज को अव्यवस्थित करने की स्थायी व्यवस्था के रूप में अपना दृढ़ स्थान बना चुकी है। आरक्षण अपने उद्देश्य को पाने में असफल रहा है, समाज का एक वर्ग यह समझने के लिये तैयार नहीं हो पा रहा। उन्हें यह समझना होगा कि किसी स्वस्थ्य समाज को उत्कृष्ट गुणों और दक्षता की आवश्यकता होती है न कि इनमें शिथिलता की? विश्व के किसी भी देश में गुणों और दक्षता में शिथिलता के साथ विकास की कल्पना नहीं की गयी, और इसका परिणाम सबके सामने है। हम एक चम्मच भात खाकर ही भूख मिट जाने की कल्पना को भारतीय समाज में स्थापित कर चुके हैं और यह कल्पना किसी परजीवी की तरह भारतीय समाज को खोखला करती जा रही है। दुर्बल और अक्षम को सबल और सक्षम बनाने के प्रयास किये जायें न कि उन्हें योग्यता और दक्षता में शिथिलता प्रदान की जाय। यह समाज निर्माण की नहीं समाज विघटन की प्रक्रिया है।

     सुविधा के नाम पर समाज को अपंग बनाने की कला में हम दक्ष हैं। सत्तायें नहीं चाहतीं कि लोग आत्मनिर्भर हों। गरीबों पर दया करना और उन्हें आगे बढ़ने के लिये सहयोग करना अच्छा है पर सीमा और औचित्य का निर्धारण आवश्यक है। गरीबों को कम मूल्य में खाद्यान्न उपलब्ध कराने का प्रभाव यह हुआ कि अब लोग काम ही नहीं करना चाहते। शिक्षकों को यह लक्ष्य दे दिया गया कि वे घर-घर जाकर बच्चों को पढ़ने के लिये शाला आने के लिये प्रेरित करें, उनके बच्चे रुग्ण हों तो उनकी चिकित्सा करायें, उन्हें भोजन करायें ...उनके लिये सब कुछ करें पर स्वयं उन्हें एक अच्छे नागरिक बनने के लिये आवश्यक आत्मनिर्भरता के पाठ से सदा दूर रखें। सचेष्ट विकास के स्थान पर निश्चेष्ट विकास को ही सत्ता और व्यवस्था ने अपना लक्ष्य बना लिया है। सुदूर और पहुँचविहीन अंचलों में स्वास्थ्य सेवाओं के लिये सचल औषधालय की व्यवस्था स्वागतेय है किंतु इससे भी अधिक स्वागतेय होगा उन पहुँचविहीन अंचलों को पहुँचयुक्त और सुगम बनाना। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत के आम नागरिक को अपना उत्तरदायित्व समझने और उसे स्वस्फूर्त निर्धारित करने के लिये प्रतिकूल स्थितियाँ निर्मित की गयी हैं। किसी रुग्ण को अपने स्वास्थ्य की चिंता करने की आवश्यकता नहीं रह गयी, यह शासन के चिकित्सकों का उत्तरदायित्व बन गया है कि वे उनके लिये न केवल चिंतित हों अपितु औषधियाँ लेकर उनके पीछे-पीछे जगह-जगह डोलते फिरें। जहाँ कहीं भीड़ दिखे डॉक्टर्स को वहाँ पहुँचना ही होगा, जैसे कि रोगियों को भीड़ में जाना बहुत प्रिय हो। रुग्ण होने पर लोग घर में आराम करना नहीं बल्कि भीड़ में घुसना पसन्द करते हों। स्वास्थ्य मेलों का आयोजन घर पहुँच सेवा का एक प्रकार है। इसके लिये डॉक्टर्स को पहले से पर्याप्त प्रचार करना होता है कि हम आपके गाँव आ रहे हैं ...आपकी चिकित्सा के लिये..... हमारे आते तक वहीं ठहरो। यह प्रचारित करने की आवश्यकता नहीं है कि आपके गाँव में ही या आपके गाँव के समीप ही स्वास्थ्य केन्द्र हैं जहाँ रोगी को पहुँचना उसका अपना उत्तरदायित्व है। आखिर कब हमारी व्यवस्था लोगों को अपने जीवन की आवश्यकताओं को स्वयं समझने और अपने उत्तरदायित्व स्वयं निभाने के लिये आत्मनिर्भर बनने का अवसर देगी? आम नागरिक को अपंग बनाती इस व्यवस्था का परिणाम दिखायी देने लगा है। छत्तीसगढ़ में शिक्षक और चिकित्सक सबसे दयनीय प्राणी बन गये हैं। छोटे शहरों या गाँवों के  डॉक्टर्स का अपने व्यक्तिगत् कार्य से भी बाहर निकलना मुश्किल हो गया है। लोग रास्ता रोक कर ताकत और कामशक्ति बढ़ाने वाली दवाइयाँ मांगने लगे हैं। लोग चिकित्सालय आने की आवश्यकता नहीं समझते बल्कि कहीं भी चिकित्सक को देखते ही उन्हें अपनी बीमारी याद आ जाती है फिर भले ही वह कोई विवाह समारोह ही क्यों न हो। क्या यह गम्भीर चिंतन का विषय नहीं कि स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी हम अपने नागरिकों को शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में स्वयं पहल करने की सोच तक विकसित नहीं कर पाये? विकास और प्रगति की यह छद्म अवधारणा आत्मनिर्भरता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है, और यह बात भारत के आम नागरिक को समझनी होगी।

तक़दीर बनाने प्यासों की, अब कुयें स्वयं ही चलते हैं

दीपक हैं सारे बुझे हुये, अब पथ ही हरदम जलते हैं॥

पथ सारे जल जायेंगे तो पथहीन बनेगा यह भारत

भटकेगा सारा देश तभी, होगा फिर नया महाभारत॥  

 

1 टिप्पणी:

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.