रविवार, 30 दिसंबर 2012

निष्प्राण हुआ सारा समाज

 
रुष्ट हुयी रति
क्रुद्ध कामिनी
कुटिल मदन है
दमित दामिनी।
यह निकृष्ट संसर्ग
न माने प्राणों का उत्सर्ग।
धरा प्रकम्पित,
ब्रह्म अचम्भित
विष्णु लाज से हैं भूलुंठित,
डाल मृत्यु का जाल
हो रहे शिव भी कुंठित।
मानवता हो गयी कलंकित
निष्प्राण हुआ सारा समाज
हो गया न्याय का अंत।
आह! 
तू कहाँ खोज लेता आनन्द ?
वृद्धा हो ..तरुणी हो .....युवती हो ..
किशोरी हो या बच्ची अबोध 
यह नहीं भोग
रे निर्लज्ज!
यह कुभोग दुर्भोग।
कर
छिन्नमना
भग्न देह 
की भंग  
न्याय की आस।
पड़ी अकेली
विवश भोगने
पतितों का सामूहिक संत्रास!
सहमी धरा
भयभीत गगन है
अश्रु
नहीं आँखों से मेरी
रोम-रोम से झरते हैं।
इस सभ्य जगत में
अर्थ खो गये जीने के
प्रतिपल
हम केवल मरते हैं।
ज्ञानयोग की धरती पर होता
सामूहिक दुर्भोग!
क्यों तेरे ही साथ काम का
केवल कलुषित अतियोग।
कुम्भकर्ण है राजा
उपमा किससे दें मंत्री की?
जाग प्रजा ! अब जाग !!
देश को आवश्यकता क्षत्रिय की।

5 टिप्‍पणियां:

  1. मार्मिक चीत्कार..करूण क्रंदन..सही आवाहन।

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  2. न्याय की मूर्ति, कुम्भकर्ण राजा, नपुंसक मंत्री और आक्रोशित प्रजा-सुप्त शासन... पागल नीत्शे की बात याद आती है डॉक्टर साहब...
    सभी सर्द खूनों वाले दैत्यों में शासन सबसे सर्द खून वाला होता है.अच्छे और बुरे, हर शब्द के माध्यम से शासन झूठ बोलता है और यही उसकी पहचान है. शासन अपने को ईश्वर की इच्छा मानता है. इस नई मूर्ति को पूजने से तुम्हें सब-कुछ मिलेगा. उनकी इस मूर्ति से बदबू आती है.मानव की निरंतर बलि के इस इतिहास में मत शामिल होओ!!

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  3. सब जागे रहें ... समाज में प्राण प्रतिष्ठा करना है मिलकर

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    1. निहित रश्मि उदगार
      मेरी भी है यही कामना
      विकट समय में कोई तो हो
      जो ले आये कुंद पड़े जीवन साँचों में पुनः नया संचार।

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  4. जाग प्रजा अब जाग ,देश को आवश्यकता अब क्षत्रिय की
    वर्तमान की यही पुकार है जब शासक सो रहे हों तो देश के नागरिकों
    को अपनी निद्रा का त्याग तो करना ही होगा|---धन्यवाद

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.