शनिवार, 2 नवंबर 2013
गुरुवार, 17 अक्टूबर 2013
चुनाव का मौसम
लो चुनाव का मौसम आया नई-नई सौगातें लाया ।
हर वोटर का है अरमान रोटी, कपड़ा और मकान ।
द्वार पे देखो नेता आया भ्रष्टाचार का झोला लाया ।
बचे-खुचे आश्वासन ले लो वोट मगर बदले में दे दो ।
साइकल दे दी पुस्तक दे दी इसकी कौड़ी उसको दे दी ।
मूर्खतंत्र के भाग्य विधाता तेरी जेब से है क्या जाता ।
और बढ़ाकर बोली बोलो चावल भी फ़ोकेट में दे दो ।
इतना ही मन है देने का तो एक महल बनवा दोगे क्या ?
अपनी किस्मत जैसी ...चोखी किस्मत भी लाकर दोगे क्या ?
नेता जी तुम क्या-क्या दोगे फोकेट में क्या जग दे दोगे ?
प्रतिभाओं का गला घोटकर आरक्षण ही बाँटा अब तक ।
संख्याओं से खेल खेलकर बाँट दिया है सारा जनमत ।
पाँच सितारा में तुम खाते नमक-भात हमको खिलवाते ।
इन्हें पढ़ाते शिक्षाकर्मी उनके बच्चे लंदन जाते ।
चाल तुम्हारी समझ गये हम बात तुम्हारी ताड़ गये हम ।
कुछ टुकड़े फोकट में देकर राजमहल तुम लूट रहे हो ।
डाल रहे हमको ये आदत फोकट खायें फोकट सोचें ।
नमक-भात से नेक भी आगे जीवन में बढ़ने ना पायें ।
फोकट के कुछ टुकड़े देकर देश अपाहिज क्यों करते हो ?
हमें बनाकर लंगड़ा-लूला अपनी जेबें क्यों भरते हो ?
ख़ैरात बाँटने की आदत से भीख माँगना मत सिखलाओ ।
कुत्तों जैसी पूँछ हिलाना इंसानों को मत सिखलाओ ।
रिश्वतखोरी बन्द करो और लूटे अवसर वापस कर दो ।
लूट-लूट कर हुये गुलाबी गालों की कुछ रंगत दे दो ।
रोज-रोज ये ख़ून ख़राबा रोक सको तो इसको रोको ।
दल में इतनी टूट-फूट है दल-दल का ये दंगल रोको
रविवार, 25 अगस्त 2013
यौन दुष्कर्म के लिये कुख्यात होता भारत
विधि से नहीं डरते बलात्कारी
...और अब मुम्बई में फ़ोटो ज़र्नलिस्ट के साथ क्रूरतापूर्वक सामूहिक यौन दुष्कर्म ।
क्रूर यौनदुष्कर्मी चाँदबाबू सत्तार शेख़ उर्फ़ मोहम्मद अब्दुल की दादी अपने पोते को बचाने उसके नाबालिग और मासूम होने का सर्टीफ़िकेट लेकर सामने आ गयी हैं। बलात्कार से पहले अपने पोते को उसकी उम्र और मासूमियत का हवाला देते हुये दादी ने यदि कभी कोई संस्कार दिये होते तो आज एक पापी की मासूमियत सिद्ध करने के लिये दादी को तकलीफ़ नहीं उठानी पड़ती।
यदि दादी की जगह मैं होता और मोहम्मद अब्दुल की जगह मेरा लड़का, तो मैं माँग करता कि इस किशोर को दुनिया की सबसे कड़ी सजा दी जाय और वह भी मेरी आँखों के सामने, वही सजा मुझे भी दी जाय अपनी औलाद को सही संस्कार न देने के अपराध के लिये।
समानांतर सेना ...
आन्ध्र के भद्राचलम की सीमा से लगे दक्षिण बस्तर के नवनिर्मित बीजापुर जिले के गंगालूर दलम की एरिया कमाण्डर सौम्या मिनचा ने अपनी गिरफ़्तारी के बाद जानकारी दी है कि माओवादी अब गाँव की तेज़-तर्रार लड़कियों को माओवादी दलम में शामिल कर उन्हें उग्रवादी बना रहे हैं। मिनचा जैसी छह और महिला एरिया कमाण्डर ग्रामीण लड़कियों को जंगल में पहुँचा रही हैं। माओवादी बड़े पैमाने पर नारीशक्ति का दुरुपयोग करने के लिये एक महिला बटालियन तैयार कर रहे हैं। माओवादी घटनाओं में महिलाओं की सहभागिता अब एक सामान्य बात हो गयी है। शायद इसीलिये इस इलाके के लगभग 28 रेलवे स्टेशंस माओवादियों के निशाने पर हैं और सरकार उनके विस्फ़ोट से उड़ाये जाने की प्रतीक्षा में है। कल के दैनिक भास्कर के हवाले से पता चला है कि बिलासपुर डिवीजन के टेंगनमाड़ा, खोड़री, खोंगसरा, बोरीडांडा, उदलकछार, दर्रीटोला, नगर, जामगा एवं दगोरा ; रायपुर डिवीजन के बालोद, कुसुमकसा, दल्ली राजहरा ; तथा नागपुर डिवीजन के गोंदिया, दारेकसा, सालेकसा, बोरतलाब, पनियाजाब, डॉंगरगढ़, राजनान्दगाँव, बालाघाट, सामनापुर, चारेगाँव, लमता, देवालगाँव, अर्जुनी, वाडसा, नागभीर, एवं चांदाफ़ोर्ट रेलवे स्टेशन माओवादियों की सूची में हैं।
इस बीच माओवादियों के लिये ख़ुराक की तरह एक और ख़बर छपी है कि पिछले साल नवम्बर में मुख्यमंत्री रमन सिंह ने 13 करोड़ की लागत से जिस सड़क का उद्घाटन किया था वह गुरुवार की रात शिवनाथ नदी के प्रवाह में सिसक-सिसक कर रोती हुयी बह गयी । शिवनाथ नदी पर बने पुल और धराशायी हुयी सड़क के बीच 25 फ़ीट का फ़ासला हमारी नैतिक प्रगति को चिढ़ाने से बाज़ नहीं आ रहा है। नैतिक प्रगति का एक और शानदार नमूना धनवाद के आयकर विभाग के कचरेखाने में भी दिखायी पड़ा। सबूत है लालू-राबड़ी की फ़ाइलें जो आयकर विभाग के कबड़ख़ाने से बरामद हुयीं।
चलते-चलते एक ख़बर और ...
दादागीरी से अब पुरुषों का वर्चस्व समाप्त। संविदा में कार्यरत एक महिला कर्मचारी ने उसके स्थान पर पदस्थ नियमित महिला कर्मचारी को धमकी दी है कि यदि उसने ज्वाइन करने की हिमाकत की तो उसका पति उसे गोली से उड़ा देगा।
हमें उत्तर भी चाहिये और समाधान भी ....
यदि
किसी अल्पायु बालक को उसकी बौद्धिक प्रखरता के कारण विश्वविद्यालय में किसी वयस्क
की तरह प्रवेश दिया जाना न्यायसंगत है तब किसी किशोर को उसकी पाशविक क्रूरता के
लिये वयस्क की तरह दण्ड देना न्यायसंगत क्यों नहीं है?
कोई किशोर यदि अपने से उम्र
में बड़ी लड़की के साथ यौन दुष्कर्म में शारीरिक और मानसिक रूप से सक्षम है तो क्यों
नहीं उसे पीड़िता लड़की से उम्र में बड़ा मान लिया जाना चाहिये ?
किशोर मन यदि कोमल न
हो कर क्रूर हो तो क्या वह तब भी वयस्क न
माना जायेगा ?
अपराध करने के लिये सोच उत्तरदायी है या शरीर की प्रौढ़ता ? सोच के
लिये संस्कार उत्तरदायी हैं या शरीर ?
क्रूर किशोर द्वारा दी गयी निर्मम पीड़ा और
किसी वयस्क द्वारा दी गयी निर्मम पीड़ा की कोटि में पीड़िता किस तरह अंतर कर सकेगी ?
समान अपराध और समान क्रूरता के लिये दण्ड भी समान क्यों नहीं होना चाहिये ?
क्या
मांसभक्षण मनुष्य को क्रूर बना देता है ?
क्या इस्लाम में क्रूर यौनदुष्कर्मियों
के लिये कोई दण्ड विधान नहीं है ?
क्या किसी इस्लाम गुरु के पास इन क्रूर पापियों
के लिये कोई फ़तवा नहीं है ?
क्या स्त्री को शक्ति मानकर पूजने वाले हिन्दुओं
की वर्तमान पीढ़ी के कुछ लोग इतने पापी और
अधम हो गये हैं कि वे आर्यों की सनातन संस्कृति में आग लगाकर ही चैन लेंगे ?
देश
किस ज़हन्नुम में जा रहा है और इसके लिये ज़िम्मेदार लोग कहाँ हैं?
गुरुवार, 18 जुलाई 2013
बातें
बातें ना हुयीं उनकी गोया
कपड़े हुये
देखो पल-पल वो बातें बदल
देते हैं ॥
उनकी चालों की ख़ूबी पे मरते
हैं सब
देखो पल-पल वो राहें बदल
देते हैं ॥
गिरगिटों ने भी उनसे ही
तालीम ली
फ़ैसले शाम के सुबह वो बदल
देते हैं ॥
उनके नुस्ख़े भी होते हैं बड़े
लाज़वाब
हरदम वो देकर दवा दर्द
बदल देते हैं ॥
लेने बदले बदलते हैं वो शातिर
पैंतरे
अब उपनाम अपने हम बदल
देते हैं ॥
बदलते हैं वो सबकुछ सिर्फ़
दिल छोड़के
सबसे लगाके दिल वो पते बदल
देते हैं ॥
मंगलवार, 16 जुलाई 2013
एली फ़र्नाण्डीज़
एली फ़र्नाण्डीज़ बहुत
संवेदनशील है, ऐसा लोग कहते हैं। लोग उसे मनबोयी भी कहते हैं ...यानी अपने में
खोयी रहने वाली। मुझे उसका खोये-खोये रहना अच्छा लगता है। सच कहूँ तो एली वह
ख़ूबसूरत नज़्म है जिसे किसी शायर ने डायरी में लिखकर बन्द कर दिया है। वह अक्सर
चुप-चुप रहती है। जब कोई उससे बात करता है तब भी वह चुपचाप केवल सुनती रहती है, बस बीच-बीच में मुस्करा
भर देती है..........बादलों से झाँकते चाँद की तरह।
एक बार मैंने उससे कहा -" इतना चुप रहना लोगों को
तुम्हारे गूँगे होने का आभास कराता है.....कुछ तो बोला करो।" वह कुछ नहीं
बोली, अन्दर से एक डायरी लाकर मेरे हाथ में रख कर मुस्करा भर
दी। (अब मैं उसके चुप रहने और मुस्करा कर संवाद अदा करने की अदा का अभ्यस्त हो
चुका हूँ।)
छोटे-छोटे ख़ूबसूरत
अक्षरों में लिखी एली की डायरी के हर पन्ने से हाई टाइड की गर्जना होती थी। यह
प्रमाण था इस बात का कि एली की चुप्पी और मुस्कराहट कितनी रहस्यमयी थी।
उसकी डायरी को एक ही बैठक में पूरी पढ़े बिना उठ जाना
मेरे जैसे व्यक्ति के लिये संभव नहीं था। एली का व्यक्तित्व उसकी डायरी में मुखरित
हुआ था। मुझे लगा कि मेरे कई प्रश्नों के उत्तर इस डायरी में मिल गये हैं किंतु
एली को जानना इतना सरल है क्या !
एली की दैनन्दिनि के
प्रथम पृष्ठ की चर्चा से पहले बता दूँ कि शांत स्वभाव की ख़ूबसूरत एली ने जब पहली
बार बस्तर का तीरथगढ़ जल प्रपात देखा तो उसका चेहरा ख़ुशी से दमक उठा था। और लोगों
की तरह उसके मुँह से “वाओ या लिंडो या गज़ब ....या और कोई विस्मयबोधक शब्द नहीं निकला
बल्कि उसकी ख़ूबसूरत झील सी आँखों की चमक थोड़ी सी और बढ़ गयी थी। उस दिन वह हल्के
नीले रंग के सूट में थी; दोनो कलाइयों में
रुद्राक्ष की ब्रेसलेट्स और ऊपर की ओर खींच कर बाँधा गया जूड़ा उसे और भी विशिष्ट
बना रहा था ।
एली कई दृष्टि से विशिष्ट
थी। सफ़ेद, पिंक और हल्का नीला उसके पसन्दीदा रंग थे। यूँ उसके ऊपर कोई भी रंग खिल
उठता था। एक दिन भूरे रंग के सूट में देखकर मैंने उससे कहा था- “आज तो आप गिलहरी लग रही हैं”। वह हौले से
मुस्करा दी थी।
उसका मुझसे कॉफ़ी के लिये
पूछने का अन्दाज़ भी बहुत ख़ास हुआ करता था। वह अपने दाहिने हाथ के अंगूठे और तर्जनी
उंगली से कप की आकृति बनाकर अपनी विस्फारित नीली आँखों से सिर्फ़ इतना पूछती –“
लाऊँ ?” मैं भी उसी अन्दाज़ में आँखें बन्द कर और सिर को एक ओर हल्के से झुका कर
स्वीकृति देता या फिर होठों को ऊपर की ओर सिकोड़कर मना कर देता । एली का यह निःशब्द
संवाद भी किसी नज़्म से कम नहीं हुआ करता।
समाचार पत्रों की ताज़ी
घटनाओं पर वह अपनी टिप्पणी ज़रूर देती थी – “ ...हूँ ...यह अच्छा नहीं हुआ” या फिर “...... यह एक अच्छी ख़बर है” या फिर “.......यह
बहुत पहले हो जाना चाहिये था।” जब कभी वह गुस्से में होती तो कहती –“लोग दूसरों को
कितना बेवकूफ़ समझते हैं ....... ऐसा नहीं होना चाहिये ....बिल्कुल नहीं ।”
तो अपनी दैनन्दिनि के
प्रथम पृष्ठ पर एली ने छोटे-छोटे ख़ूबसूरत अक्षरों में लिखा था –“संसार में एली
फ़र्नाण्डीज़ नाम की न जाने कितनी लड़कियाँ होंगी ; इतनी सारी एलीज़ में से इस एक एली
का अस्तित्व और उसकी पहचान क्या है ? पहचान मनुष्य़ की सबसे बड़ी दुर्बलता है
.....अहं के बोध से परिपूर्ण ..... मैं स्वीकार करती हूँ कि इस पहचान ने मुझे भी
परेशान कर रखा है ...... मतलब यह कि मनुष्य की दुर्बलताओं से मैं भी मुक्त नहीं।
हर व्यक्ति के पास उसकी दो पहचानें होती हैं। एक वह जो उसे समाज देता है और दूसरी
वह जो वह स्वयं अपने पुरुषार्थ से निर्मित करता है। आवश्यक नहीं कि समाज की दी
हुयी पहचान आपकी रुचि के अनुरूप हो, कई बार ये पहचानें आपको परेशान कर सकती हैं
...और उनसे पीछा छुड़ाना आपके लिये एक लम्बे संघर्ष का कारण बन सकता है।”
पोर्तोइण्डियन एली को
उबला भोजन पसन्द था । उबला भोजन मतलब केवल उबला हुआ ही ...कॉण्टीनेण्टल। शायद यह
रुचि उसे अपने पुर्तगाली पिता से विरासत में मिली थी। एकदम गोरी-चिट्टी एली की माँ
थी दक्षिण भारत की एक साँवली सी महिला, हाँ वही महिला जिसे लोग पद्मा लक्ष्मी के
नाम से जानते थे। कुमारी पद्मा लक्ष्मी मिस्टर फ़र्नांडीज़ के घर में रसोइया थी और
उनके छह साल के मातृहीन बेटे की शिक्षिका भी। बाद में पद्मा लक्ष्मी उस बेटे की
माँ भी बन गयी ...स्टेप मदर।
यह
सब पुरानी बातें हैं , बेकरी व्यवसायी मिस्टर फ़र्नाण्डीज़ अब नहीं हैं, श्रीमती
पद्मा लक्ष्मी फ़र्नांडीज़ भी नहीं हैं। उनका बेटा पढ़ाई के लिये स्वीडन गया तो फिर
कभी भारत वापस नहीं आया। एली फ़र्नांडीज़ इतने बड़े घर में अकेली ही रह गयीं। जब तक
माँ रहीं, बेकरी का व्यवसाय संभालती रहीं, उनके जाने के बाद सारी ज़िम्मेदारी एली
के कन्धों पर आ गयी ।
एली अपने सौतेले, एकमात्र
भाई एण्ड्र्यू के लिये बहुत दिन तक तड़पती रही थी। स्वीडन जाने के बाद कुछ समय तक
तो दोनों में पत्रव्यवहार होता रहा फिर एण्ड्र्यू ने एली के पत्रों के उत्तर देना
कम कर दिया ...धीरे-धीर पत्र व्यवहार बिल्कुल बन्द ही हो गया। एली बाद में भी बहुत
दिनों तक एक पक्षीय पत्र लिखती रही ....उत्त्तर की चिर प्रतीक्षा में। एली के
व्यक्तित्व पर इस घटना का गहरा प्रभाव पड़ा था।
मातृ-पितृ-भ्रातृ
विहीन एली के दो बहुत अच्छे मित्र भी थे - अकेलापन और ब्लैक कॉफ़ी। किताबों से उसे
गहरी मोहब्बत थी, जयशंकर प्रसाद की कामायनी को न जाने कितनी बार पढ़ चुकी थी। शरत, शिवानी, आशापूर्णादेवी, भगवती चरण वर्मा
....आदि उसके प्रिय लेखक थे। ग्रेजुएशन के बाद वह आगे पढ़ नहीं सकी, किंतु किताबों
ने एली को छोड़ने से साफ इंकार कर दिया। वह जब भी बाहर जाती कुछ न कुछ किताबों के
साथ लदी वापस आती।
उसके पैतृक बंगले में
माधवीलता का एक सघन कुंज था, ....एली के बैठने का सबसे प्रिय स्थान। किताबें पढ़ना
होता तो वह वहीं जाती ...बैठकर कुछ सोचना होता तो भी वहीं जाती। वह उसे बोधिकुञ्ज
कहती थी।
डायरी के एक पृष्ठ पर एली ने लिखा था – “ ...कितना सुन्दर नाम
है माधवी, कितने सुन्दर हैं इसके पुष्पगुच्छ ...और भीनी-भीनी ख़ुश्बू .....जी करता
है पूरी ज़िन्दगी यहीं बिता दूँ।”
भारत के अन्य नव ईसाइयों
के विपरीत एली को नियमितरूप से चर्च जाने में रुचि नहीं थी। पास्टर पीटर और
बुज़ुर्ग ज़ोसेफ़ को यह बात अच्छी नहीं लगती थी। पीटर ने उसे कई बार समझाया भी –“ देख
रहा हूँ मिस एली ! कि आप नास्तिक होती जा रही हैं .....”
किंतु एली पर इन बातों का
कभी कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। वह पूर्ववत शांत ही बनी रहती, गोया मौन होकर कह रही
हो कि - मेरा चर्च तो मेरे भीतर ही है ...अन्य कहीं जाने की क्या आवश्यकता ?
एक दिन एली ने लिखा –
“धार्मिक होने के लिये किसी धर्मस्थल में जाना इतना आवश्यक है क्या? धर्मस्थल में
जाने से ही क्या हम धार्मिक और आस्तिक होते हैं? धर्मस्थल इतने अनिवार्य क्यों
हैं?”
अगले दिन उसने पुनः लिखा –
“धार्मिक स्थलों में भी अमानुषिक कृत्य होते रहे हैं, पूरे विश्व का इतिहास ऐसी
घटनाओं से भरा है। मुझे लगता है कि मनुष्य होने से बड़ा और कोई धर्म हो ही नहीं
सकता।”
एक दिन किसी समारोह में
किसी स्त्री ने एली से उसकी जाति पूछ दी। एली ने उत्तर दिया था - “स्त्री।” बाद
में उसने अपनी दैनन्दिनि में लिखा – “स्त्री की जाति स्त्री ही हो सकती है और उसका
धर्म मातृत्व .....बस, कुछ और नहीं।”
कभी बंगाल में आयी भीषण
बाढ़ में हुयी त्रासदी से द्रवित हो एली कई महीने तक बंगाल के प्रवास पर रही थी। जाने
से पहले उसने मुस्कराकर कहा था –“मैं चर्च जाने वाली हूँ ..... कई दिनों के लिये।”
मैंने चौंक कर पूछा था –
“कई दिनों के लिये .....मतलब ? अब चर्च में ही बसने का इरादा है क्या?” उसने सिर
हिलाया था और उत्तर में दी थी एक निर्मल मुस्कान । तब मैं उसका इरादा समझ नहीं सका
था, उसके जाने के बाद बेकरी के अब्दुल्ला ने एक दिन बताया था – “सर ! मैम तो बंगाल
चली गयीं .....।”
पूरे आठ महीने बाद एक दिन
एली के दर्शन हुये थे। अस्थिपञ्जर बनी एली कहीं से भी थकी हुयी नहीं लगती थी। ग़ज़ब
का आत्मविश्वास था उसके अन्दर। मैंने पूछा था – “यह क्या हाल बना रखा है? बाढ़ तो
कब की ख़त्म हो गयी ....इतने दिन क्यों लगा दिये ?”
वह मुस्करायी, “विभीषिका ख़त्म होने के बाद ही तो काम शुरू
होता है रीहैबिलिटेशन का। स्वामी पूर्णानन्द ने मुझे भगा दिया वहाँ से। कह रहे थे
कि अब तुम्हें विश्राम की आवश्यकता है। दिन-रात के परिश्रम से तुम्हें कुछ हो गया
तो कन्यावध का पाप लगेगा पूरे आश्रम को ।”
वह हँस दी, शिशुओं सी
निर्मल हँसी उसे दैवीय आभा प्रदान करती थी।
एली हिन्दू साधुओं के एक
आश्रम में रहकर रीहैबिलिटेशन के काम में दिन-रात जुटी रहती थी। उसके क्षीण होते
शरीर से चिंतित हो स्वामी पूर्णानन्द ने जैसे-तैसे समझा-बुझाकर उसे वापस भेजा।
बंगाल से वापस आने के बाद
वह प्रायः सस्वर “असतो मा सद्गमय तमसोमा ज्योतिर्गमय....” और “हरिओम तत् सत” बोलने लगी थी। यह उसने वहीं
सीखा था। मैंने परिहास किया – “ कभी पास्टर पीटर के सामने मत गाइयेगा।”
वह मुस्कराई – “सनातन
सत्य सभी अवरोधों को पार कर प्रकट होने की क्षमता से युक्त है।”
मुझे लगा कि मैं एली का
नया अवतार देख रहा हूँ। पर यह सच नहीं था। एली को मैंने जाना ही कब कि उसके नये
अवतार के बारे में सोच सकूँ। एक दिन मैंने पूछा – “ एली! तुम क्या हो ... ज़ूविश, क्रिश्चियन
या हिन्दू?”
उसने सदा की तरह
मुस्कराकर प्रतिप्रश्न किया –“मनुष्य होने के लिये इन सबकी भी आवश्यकता पड़ती है
क्या?”
मैंने कहा –“यह समाज की
अपेक्षा है। समाज की सीमायें होती हैं, इसीलिये समाज विशेष अपने धर्म विशेष के
बन्धन से व्यक्ति को सीमित कर देना चाहता है ।”
उसने गम्भीर होकर कुछ
सोचा फिर पूरी इमानदारी से बोली - “बहुत सी हिन्दू, थोड़ी सी ज़ूविश और थोड़ी सी
क्रिश्चियन।”
मैं हँसा – “ यह भी ख़ूब
रही। यह तो भारतीय नेताओं वाला आचरण है। चर्च, सिनेगॉग या मन्दिर कहीं भी जाने से
अब कोई तुमसे कभी नाराज नहीं होगा।“
वह गम्भीर हो गयी – “मुझे
नहीं लगता कि सनातन सत्य के लिये इन आश्रयों की आवश्यकता है। लोग इन बन्धनों से
मुक्त कब हो पायेंगे। क्या हमारी पहचान चर्च, सिनेगॉग, मस्ज़िद और मन्दिर के बिना
सम्भव नहीं ? ”
“मेरे पिता यहूदी थे और
माँ हिन्दू .... अपनी पहचान के लिये अपने माता या पिता के धर्म के अनुकरण की
बाध्यता किसी के लिये क्यों होनी चाहिये ? जहाँ तक जीवनशैली और परम्पराओं की बात
है तो मैं भारतीय सनातन परम्परा के समीप स्वयं को अधिक पाती हूँ ...और क्या किसी भारतीय
नागरिक के लिये इतना ही पर्याप्त नहीं है? किंतु भारतीय समाज में मेरी पहचान इस
रूप में कभी स्वीकार्य नहीं हो सकी।”
मुझे लगा कि अल्पभाषी एली के पास आज बहुत कुछ
था कहने के लिये । मैं लगातार एली के चेहरे की ओर देखता जा रहा था, उसके माथे के नीचे की दोनो झीलों में
पानी की एक लहर उठ आयी थी। उसके हृदय की गहन पीड़ा को सहज ही अनुभव किया जा सकता
था।
मैंने धीरे-धीरे कहा –
“मैं आपकी पीड़ा को समझ सकता हूँ एली ! आपके इस दुःख में मैं आपके साथ हूँ, कोई
उपाय होता तो मैं यह दुःख अपने लिये ले लेता।
.........किंतु देखो, समाज एक समूह है ...और
समूह परम्पराओं से नियंत्रित होते हैं। परम्पराओं का प्रारम्भ तो विवेकपूर्ण होता
है किंतु परम्परायें स्वयं में निर्णायक क्षमता नहीं रखतीं। परम्पराओं की
परिमार्जक और नियामक शक्तियाँ चिंतकों के पास होती हैं। चिंतक को सूत्रधार भी होना
होता है, दुर्भाग्य से भारतीय समाज में आज सूत्रधारों का अभाव है। ....और याद रखना
एली! कि आपके जैसे लोग ही समाज में सूत्रधार भी बनते हैं।”
वह कुछ नहीं बोली, चुपचाप
उठकर अपने बोधिकुञ्ज में चली गयी। जाते-जाते मैंने देखा, नीली झीलों में रक्तिमा
उतर आयी थी।
कई बार मैं एली से नाराज़
हो जाता था। वह कभी भी, कहीं भी चल देती थी, वह भी दीर्घ प्रवास पर ....और जब वापस
आती थी तो अस्थिपञ्जर काया के साथ। मैं नाराज होता, उसे समझाता, बुझाता, झिड़कता ।
वह मुस्कराकर अंगूठे और तर्जनी से कप बनाकर विस्फारित नयनों से पूछती –“लाऊँ?” तब बात
टालने के उसके इस भोलेपन पर मेरी आँखे छलक उठतीं। वह अपना चेहरा मेरी आँखों के
समीप लाकर अपनी बड़ी-बड़ी नीली आँखों से पूछती- “क्या हुआ?” फिर अपने विस्फारित नयन
झुका कर मानो कहती –“ओह! सॉरी ...आपको दुखाया मैंने।”
“अफगानिस्तान में लोगों
की हालत अच्छी नहीं है, मुझे जाना होगा।” – एक दिन एली की इस घोषणा से मैं डर गया।
यह लड़की पागल हो गयी है क्या? मैंने गुस्से में एक-एक अक्षर पर जोर देते हुये कहा –
“तुम कहीं नहीं जा रही हो, समझीं ।”
वह सहम गयी और अपने
बोधिकुञ्ज में जाकर बैठ गयी ।
कुछ दिन बाद वह मेरे घर
आयी, सफेद फूलों के एक बुके के साथ। मुझे मनाने का यह उसका सबसे प्रिय तरीका हुआ
करता था। आज सोचता हूँ, एली ने न जाने कितनी बार मनाया होगा मुझे किंतु ऐसा अवसर
कभी नहीं आया कि मुझे भी एली को मनाना पड़ा हो कभी।
उसने पास आकर बुके मेरी
ओर बढ़ाया। गुस्से में भी एली से बुके न लेने का साहस मुझे कभी नहीं हो पाया। मैंने
चुपचाप बुके ले लिया। उसने सिर्फ़ थैक्स कहा, मेरे सिर पर हाथ फेरा, जैसे कि मेरी
माँ हो, फिर दरवाज़े की ओर मुड़ गयी।
धीरे से मैं केवल नाम भर
पुकार सका – “एली ........”
वह घूमकर मुस्कराई, उसके
चेहरे पर दृढ़ता थी और नीले नयनों में निर्मलता। उसने हाथ हिलाकर अभिवादन किया और
सीढ़ियाँ उतर गयी।
एली अफगानिस्तान चली गयी।
किंतु यह उसका अंतिम प्रवास सिद्ध हुआ। एक दिन ख़बर आयी कि तालिबानियों ने एली की
बड़ी निर्ममता से हत्या कर दी है। जिसने भी सुना, सन्न रह गया। एली जैसी निर्मल और
प्यारी लड़की से भी किसी को शत्रुता हो सकती है .....एक ऐसी लड़की से जो सदा दूसरों
के लिये ही जीती रही ? तालिबानियों का यह कैसा इस्लाम है जो लोगों के प्राणों को
क्रूरतापूर्वक छीनकर ही अपनी धार्मिक पिपासा को शांत कर पाता है ? धार्मिक पिपासा
यदि इसी तरह शांत हो सकती है तो मनुष्य के लिये ऐसे किसी धर्म की कोई आवश्यकता नहीं।
जब मैं एली के घर पहुँचा
तो लोगों की भीड़ लगी थी। अब्दुल्ला बिलख-बिलख कर रो रहा था। वह आर्त्त हो चिल्ला
रहा था – “ मैं यतीम हो गया ....।”
पूरी भीड़ रो रही थी और
मैं रो कर भी ख़ुश हो रहा था। एली के घर के सामने हर समुदाय के लोगों की भीड़ थी
किंतु किसी को एली की जाति या धर्म से कोई मतलब नहीं था। लोगों का बिलखना यह घोषणा
कर रहा था कि एली को उसकी पहचान मिल चुकी थी।
एली अफगानिस्तान जाकर कभी
वापस नहीं आ सकी। पर मैं आज भी रोज एली से बातें करता हूँ और वह आज भी अपने अंगूठे
और तर्जनी से कप बनाकर मुस्कराते हुये अपने विस्फारित नीले नयनों से पूछती है –
“लाऊँ?”
समाप्त।
( एली की निर्मम हत्या को
मैंने कभी स्वीकार नहीं किया। मेरे लिये वह न कभी मरी थी न कभी मरेगी। जब तक मैं
जीवित हूँ, एली जीवित रहेगी। एली की हत्या से व्यथित अब्दुल्ला कुछ दिन तक बेकरी
चलाने के बाद पता नहीं कहाँ चला गया। मैं, जब-तब समय निकाल बोधिकुञ्ज में बैठकर
एली से बातें करता रहता हूँ। )
सोमवार, 17 जून 2013
तोय नाहीं देऊँ, देऊँ नथुनिया मैं गारी
पकरी है कसिके नथुनिया मोरी सारी।
कैसे उठाऊँ घुँघटा, ठहरी मैं अनारी
आ जा पिया मोरा घुँघटा उठा, तो पे
जाऊँ मैं आज वारी वारी।
करत पिया मों से जोराजोरी
कभी पिया हारे कभी, मैं भी हारी।
नयना
नयना तेरे देखूँ, देखूँ जुड़वाँ झील रे।
कभी देखूँ कमल, कभी गगननील रे॥
झील में डूबके जाना हमने कैसे लगती आग रे ।
जलता रहूँ पल-पल यूँ ही, ऐसो कहाँ सौभाग रे ||
खीची डोर तूने देदे थोड़ी तो ढील रे ।
नयना तेरे देखूँ, देखूँ जुड़वाँ झील रे ॥
शुक्रवार, 31 मई 2013
जन क्रांति
भीमा
झाड़ी ने जेल के डॉक्टर को देखते ही पूछा “साहब
! चैती को देखा? कैसी है?”
“ख़ून की कमी है, सिकलिंग का मरीज इतनी जल्दी ठीक कहाँ
होता है ? समय तो लगेगा।” – डॉक्टर ने
प्रश्न के साथ उत्तर दिया और लापरवाही से आगे बढ़ गया।
भीमा झाड़ी और चैती पोया
दोनो एक ही जेल में थे। पुलिस के मुख़बिर के कारण चैती पकड़ी गयी थी । और भीमा .....? भीमा
ने तो जानबूझकर ख़ुद को पकड़वा दिया था ।
भीमा और चैती दोनो ही पुलिस के गवाह बन गये । भीमा उन दिनों एक सपने में खोया रहता, उसे उम्मीद थी कि वह छोड़ दिया जायेगा, सरकारी गवाह जो बन गया था । उसने
सोचा , जेल से बाहर निकलकर वह चैती के साथ कहीं दूर चला जायेगा ....बहुत दूर । और
वास्तव में एक दिन जेल से निकलकर वह दूर चला गया ....बहुत दूर । किंतु चैती उसके साथ नहीं जा सकी ।
भीमा
तब नौ साल का था जब पहली बार दादा लोगों की सभा में गया था । तेलुगू शैली में
हिन्दी मिश्रित गोण्डी बोलने वाले तीन जवान दादा और एक जवान दादी ने महुआ के पेड़
तले अपनी बैठक जमायी थी । एक दादा तो बहुत दुबला पतला था और ख़ूब काला भी । काले तो
सभी थे पर वह दुबला वाला कुछ अधिक ही काला था । दादी उतनी दुबली नहीं थी पर मोटी
भी नहीं थी,
उसका रंग बाकी सबकी अपेक्षा थोड़ा सा साफ था । उस मंडली में वही सबसे
आकर्षक थी । उस दिन गाँव भर के बच्चों को बुलाया गया था, एक
दुबले-पतले दादा ने खड़े होकर भाषण दिया था । भीमा को भाषण तो समझ में नहीं आया पर
गीत अच्छा लगा था जो उनके साथ की उस आकर्षक लड़की ने गाया था । लोगों ने बताया कि
भाषण देने वाले का नाम गोपन्ना है, वह “जनक्रांति” शब्द का बारम्बार उल्लेख किया करता था ।
गोपन्ना
के साथ वाला दूसरा दादा, जिसका नाम सोयम मुक्का था, चुप-चुप रहता था, शायद
वह केवल ढपली बजाने के लिये ही था । भीमा को उसका ढपली बजाना अच्छा लगा था । उसका
मन होता था कि वह भी ढपली बजाये, पर बजाना तो दूर उसे छूने
का भी साहस वह नहीं जुटा पाता था । दादाओं की टोली अक्सर उसके गाँव आया करती थी,
हर बार जनक्रांति और शोषण को समाप्त करने के लिये एक लम्बी लड़ाई की
कसमें खायी जाती थीं और ढपली बजा-बजा कर किसी नये सबेरे का गीत गाया जाता था । सभा
हर बार लाल सलाम के साथ शुरू होती और लाल सलाम के साथ ही समाप्त हो जाती । उनके
झण्डे भी लाल रंग के होते थे । भीमा को लाल रंग अच्छा नहीं लगता था, उसे जामुनी रंग पसन्द था । क्रांति-गीत के समय एकाग्रचित्त भीमा का मन
ढपली वाले की अंगुलियों के साथ नर्तन करता रहता । फिर एक दिन वह भी आया जब उसके
छोटे-छोटे हाथों में ढपली थमा दी गयी । भीमा को सीखने में समय नहीं लगा, अब वह क्रांति-गीत भी गाने लगा था ।
भीमा
गाँव के प्रायमरी स्कूल में पढ़ता था । एक दिन कोरसा सन्नू गुरू जी ने क्लास में
बताया कि दुनिया में कुछ लोग गरीबों का खून चूसते हैं, बड़े-बड़े
लोग रिश्वत लेकर विदेशी बैंक में पैसा जमा करते हैं जिसके कारण देश में गरीबी है
और लोग भूख से मर रहे हैं । गुरू जी ने यह भी बताया कि वह दिन अब दूर नहीं जब
दादालोग इन सबको मार कर देश में साम्यवादी सरकार की स्थापना करेंगे । गुरू जी उस
दिन ख़ूब नशे में थे, पीते तो रोज ही थे लेकिन उस दिन कुछ
अधिक ही पी ली थी । भीमा की समझ में साम्यवादी सरकार का कोई स्वरूप नहीं था सो वह
कुछ दिन इसी उधेड़बुन में बना रहा । फिर एक दिन जनसभा में दादा ने भी साम्यवाद और
माओवाद का नाम लिया । भीमा की उलझन और बढ़ गयी थी ।
जैसे-जैसे
भीमा बड़ा होता गया,
ढपली बजाने में उसकी निपुणता बढ़ती गयी । यह माओ की ढपली थी जिसमें
से साम्यवाद का सुर निकलता था और जिसका रंग सुर्ख़ लाल हुआ करता था । पाँचवी पास
करते-करते भीमा के हाथ में बन्दूक भी आ गयी थी । उसे निशाना लगाने, दुश्मन पर हमला करने, सूचनायें लाने आदि का
प्रशिक्षण दिया जाने लगा । यह सब उसे किसी नयी दुनिया में ले जाने वाला जैसा लगता
था । छठवी कक्षा की पढ़ाई के लिये उसे दूर के एक गाँव में जाना था पर दादाओं ने मना
कर दिया । उससे कहा गया कि क्रांति के लिये पढ़ने की आवश्यकता नहीं । लोग पढ़-लिख कर
बड़े-बड़े अधिकारी बनते हैं और फिर ग़रीबों
का ख़ून चूसते हैं । माओवाद की महिमा ने
भीमा की बुद्धि का प्रक्षालन कर दिया था, वह पूरी तरह एक
महान कार्य के लिये समर्पित हो गया ।
बत्तीस
साल का भीमा एरिया कमाण्डर बनकर देश के दुश्मनों के ख़िलाफ़ माओवादी जंग में शामिल
हो गया । उसकी दृष्टि में सारे नेता घोटालेवाज हैं, सारे अधिकारी
रिश्वख़ोर हैं, सारे व्यापारी जमाख़ोर और मिलावट करने वाले हैं
। पूरा देश ही दुश्मन है, सबको मारना होगा, साम्यवाद लाने के लिये माओवाद लाना होगा । कभी लाल रंग को नापसन्द करने
वाला भीमा आज लाल रंग का दीवाना था । ढपली बजाने वाला भीमा माओ की ढपली बजाने में
निपुण हो गया था ।
एक
दिन अचानक भीमा को लगा कि शोषण तो मनुष्य की प्रवृत्ति में है । शोषण हर कहीं व्याप्त
है, शोषण के ख़िलाफ़ हथियार उठाने वाले भी शोषण करने की भूख से व्याकुल हैं । वे
भी शोषण करना चाहते हैं ....नये कलेवर और नये पाखण्ड के साथ ......केवल अवसर भर
मिलने की देर है । तो यह सारा खेल अवसर पाने के लिये ही है ?
दस
वर्ष की उम्र से लेकर बत्तीस वर्ष की उम्र तक जिस भीमा ने साम्यवाद के लिये अपना
सब कुछ न्योछावर कर दिया था उसी भीमा को अचानक साम्यवाद से नफ़रत होने लगी । किन्तु
यह नफ़रत अचानक नहीं हुयी थी उसे । जब पहली बार उसे टंगिया से निर्ममतापूर्वक
प्रहार करके खरगोश मारने के लिये कहा गया था ..... तब खरगोश को तड़पते देखकर उसका
मन कितने दिन तो बुझा-बुझा सा रहा था । दर्द और ख़ून के प्रति योद्धा की संवेदना की
हत्या करना आवश्यक है । भीमा को निष्ठुर बनाने के सभी प्रशिक्षण दिये गये थे । पुलिस
के घायल पड़े जवान के सिर और गुप्तांग पर टंगिया से घातक प्रहार, सिर्फ़
यह पता करने के लिये करना कि वह जिन्दा है या नहीं, इसी
निष्ठुरता का एक क्रूरतम प्रशिक्षण हुआ करता था । भीमा क्रूर बनता गया ..पर अन्दर
ही अन्दर कुछ शोर भी होता रहा । यह शोर तब असह्य हो गया जब एक रात चैती की चीख
उसके कानों से टकराई ।
सिल्ले
गट्टा की चैती पोया दण्डकारण्य जनमिलिशिया की सक्रिय सदस्य। वह कब माओवादी बन गयी,
उसे याद भी नहीं । उसे बस इतना याद है कि होश संभालने के साथ ही उसने स्वयं को
माओवादियों के बीच पाया था । गेहुँवा रंग, बड़ी-बड़ी आखें और गोल चेहरे वाली चैती की
चर्चा कहाँ नहीं थी, उसके अपने दल से लेकर अन्य दलों तक हर कहीं चैती की जवानी कहर
ढाती थी । तब वह चौदह साल की थी जब एक दिन बोद्दू रात को मटन भात खाने के बाद उसे
एक झाड़ी में ले गया था । चैती अबोध थी पर इतनी भी नहीं कि बोद्दू की हरकतों को न
समझ सके । ......रात का समय, जंगल की झाड़ी,
बलिष्ठ बोद्दू, मटन की गर्मी, शराब का नशा, कमसिन चैती की ख़ूबसूरत आँखें .......। बोद्दू
दल का मुखिया था, चैती का प्रतिरोध सफल नहीं हो सका । बाद में वह कई दिन तक गुमसुम
बनी रही । वह एक ही बात सोचती – “क्या यह भी जनक्रांति का एक हिस्सा है ?”
चैती
अब अट्ठाइस साल की तोप है । बोद्दू के बाद जोगा, लिंगैया और पदाम भी उसे कभी-कभी झाड़ी
में ले जाया करते थे । वे उसे बम नहीं तोप कहते थे, पर चैती सोचती कि इसमें भला उसका
क्या दोष ? भीमा को यह सब अच्छा नहीं लगता था, किंतु प्रतिरोध करने की स्थिति में
वह भी नहीं था । चैती के प्रति भीमा की
सहानुभूति गहरी होती चली गयी ......गहरी । फिर वह धीरे-धीरे चैती को लेकर गम्भीर
होता गया । इससे चैती को कुछ लाभ हुआ, .....किंतु बस इतना ही कि अब उसे झाड़ियों
में कम जाना पड़ता था । जनक्रांति का यह हिस्सा भीमा को अच्छा नहीं लगता था, उसे
लगा माओवाद भी शोषण से मुक्त नहीं है । किसी स्त्री की इच्छा के विरुद्ध उसका
उपभोग ....वह भी कई लोगों के द्वारा ......यह न्याय कैसे हो सकता है ? दल में
शामिल नये लोगों की नसबन्दी, शादी करने पर
प्रतिबन्ध, स्त्री की इच्छा के विरुद्ध उसका उपभोग ...... जनक्रांति में इन सबका कोई स्थान नहीं
होना चाहिये ।
एक
दिन मुखबिर की सूचना पर चैती पकड़ी गयी । भीमा व्यग्र रहने लगा, वहाँ जेल में पता
नहीं कैसा व्यवहार होता होगा उसके साथ । उसने बहुत से किस्से सुन रखे थे कैदियों
के । भीमा के लिये माओवाद का आकर्षण आसमान से ज़मीन पर आ चुका था । उसे अपने जीवन
का महत्वपूर्ण निर्णय लेना था ।
एक
दिन सबने सुना कि भीमा भी पकड़ा गया । अब भीमा और चैती एक ही जेल में थे किंतु दोनो
एक-दूसरे से मीलों दूर थे । भीमा को संतोष था कि किसी न किसी तरीके से वह चैती का हाल जानता रहेगा ।
कुछ
साल जेल में बिताने के बाद दोनो को मुक्त कर दिया गया । दोनो ने विचार किया कि
उन्हें जंगल से दूर चले जाना चाहिये ...जहाँ वे अपने सपनों को पंख लगा सकें । उन्होंने
दिल्ली जाने की योजना बनायी, सोचा था कि दो जवान लोग जहाँ पसीना बहायेंगे वहाँ
जीने की क्या मुश्किल हो सकती है ।
जिस
दिन उन्हें दिल्ली जाना था उसके ठीक एक दिन पहले ही भीमा चैती को बिना कुछ बताये चला
गया ....... चैती राह देखती रही पर वह नहीं आया । तब लिंगैया ने कुटिल हँसी के साथ
सूचना दी कि बोद्दू ने भीमा को गोली से उड़ा दिया । चैती न रोयी ...न चीखी ...न
चिल्लायी ...बस कुछ समय के लिये मानो जड़ सी हो गयी ।
उस
दिन एक टार्गेट तय किया जाना था । दल के सभी प्रमुख लोग गोल घेरा बना कर बैठे थे,
सभी को दिशा निर्देश दिये जाने थे । जब सभा समाप्त हुयी तो चैती उठकर बोद्दू के
पास आयी, जैसे कि कुछ पूछना चाह्ती हो । किंतु पास आते ही चैती ने बोद्दू के सिर
में गोलियाँ उतार दीं । सब सन्न रह गये । जोगा ने चैती की ओर बन्दूक तान ली, तभी
लिंगैया चिल्लाया – “ छोड़ दे उसे .....।”
चैती
अब भी उसी दलम में है किंतु अब उसे कोई महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी नहीं दी जाती सिवाय इसके कि वह जब-तब झाड़ी में चली जाया करे ।
इस कहानी में दिये गये स्थान, पात्रों के नाम एवं
घटनायें काल्पनिक हैं । किसी भी प्रकार की साम्यता मात्र संयोग ही होगा ।
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