शुक्रवार, 31 मई 2013

जन क्रांति


           भीमा झाड़ी ने जेल के डॉक्टर को देखते ही पूछा  साहब ! चैती को देखा? कैसी है?”

          “ख़ून की कमी है, सिकलिंग का मरीज इतनी जल्दी ठीक कहाँ होता है ? समय तो लगेगा।” – डॉक्टर ने प्रश्न के साथ उत्तर दिया और लापरवाही से आगे बढ़ गया।

          भीमा झाड़ी और चैती पोया दोनो एक ही जेल में थे। पुलिस के मुख़बिर के कारण चैती पकड़ी गयी थी । और भीमा .....? भीमा ने तो जानबूझकर ख़ुद को  पकड़वा दिया था । भीमा और चैती दोनो ही पुलिस के गवाह बन गये ।  भीमा उन दिनों एक सपने में खोया रहता, उसे उम्मीद थी कि वह छोड़ दिया जायेगा, सरकारी गवाह जो बन गया था । उसने सोचा , जेल से बाहर निकलकर वह चैती के साथ कहीं दूर चला जायेगा ....बहुत दूर । और वास्तव में एक दिन जेल से निकलकर वह दूर चला गया ....बहुत दूर ।  किंतु चैती उसके साथ नहीं जा सकी ।   

           भीमा तब नौ साल का था जब पहली बार दादा लोगों की सभा में गया था । तेलुगू शैली में हिन्दी मिश्रित गोण्डी बोलने वाले तीन जवान दादा और एक जवान दादी ने महुआ के पेड़ तले अपनी बैठक जमायी थी । एक दादा तो बहुत दुबला पतला था और ख़ूब काला भी । काले तो सभी थे पर वह दुबला वाला कुछ अधिक ही काला था । दादी उतनी दुबली नहीं थी पर मोटी भी नहीं थी, उसका रंग बाकी सबकी अपेक्षा थोड़ा सा साफ था । उस मंडली में वही सबसे आकर्षक थी । उस दिन गाँव भर के बच्चों को बुलाया गया था, एक दुबले-पतले दादा ने खड़े होकर भाषण दिया था । भीमा को भाषण तो समझ में नहीं आया पर गीत अच्छा लगा था जो उनके साथ की उस आकर्षक लड़की ने गाया था । लोगों ने बताया कि भाषण देने वाले का नाम गोपन्ना है, वह जनक्रांतिशब्द का बारम्बार उल्लेख किया करता था ।

            गोपन्ना के साथ वाला दूसरा दादा, जिसका नाम सोयम मुक्का था, चुप-चुप रहता था, शायद वह केवल ढपली बजाने के लिये ही था । भीमा को उसका ढपली बजाना अच्छा लगा था । उसका मन होता था कि वह भी ढपली बजाये, पर बजाना तो दूर उसे छूने का भी साहस वह नहीं जुटा पाता था । दादाओं की टोली अक्सर उसके गाँव आया करती थी, हर बार जनक्रांति और शोषण को समाप्त करने के लिये एक लम्बी लड़ाई की कसमें खायी जाती थीं और ढपली बजा-बजा कर किसी नये सबेरे का गीत गाया जाता था । सभा हर बार लाल सलाम के साथ शुरू होती और लाल सलाम के साथ ही समाप्त हो जाती । उनके झण्डे भी लाल रंग के होते थे । भीमा को लाल रंग अच्छा नहीं लगता था, उसे जामुनी रंग पसन्द था । क्रांति-गीत के समय एकाग्रचित्त भीमा का मन ढपली वाले की अंगुलियों के साथ नर्तन करता रहता । फिर एक दिन वह भी आया जब उसके छोटे-छोटे हाथों में ढपली थमा दी गयी । भीमा को सीखने में समय नहीं लगा, अब वह क्रांति-गीत भी गाने लगा था ।

            भीमा गाँव के प्रायमरी स्कूल में पढ़ता था । एक दिन कोरसा सन्नू गुरू जी ने क्लास में बताया कि दुनिया में कुछ लोग गरीबों का खून चूसते हैं, बड़े-बड़े लोग रिश्वत लेकर विदेशी बैंक में पैसा जमा करते हैं जिसके कारण देश में गरीबी है और लोग भूख से मर रहे हैं । गुरू जी ने यह भी बताया कि वह दिन अब दूर नहीं जब दादालोग इन सबको मार कर देश में साम्यवादी सरकार की स्थापना करेंगे । गुरू जी उस दिन ख़ूब नशे में थे, पीते तो रोज ही थे लेकिन उस दिन कुछ अधिक ही पी ली थी । भीमा की समझ में साम्यवादी सरकार का कोई स्वरूप नहीं था सो वह कुछ दिन इसी उधेड़बुन में बना रहा । फिर एक दिन जनसभा में दादा ने भी साम्यवाद और माओवाद का नाम लिया । भीमा की उलझन और बढ़ गयी थी ।

            जैसे-जैसे भीमा बड़ा होता गया, ढपली बजाने में उसकी निपुणता बढ़ती गयी । यह माओ की ढपली थी जिसमें से साम्यवाद का सुर निकलता था और जिसका रंग सुर्ख़ लाल हुआ करता था । पाँचवी पास करते-करते भीमा के हाथ में बन्दूक भी आ गयी थी । उसे निशाना लगाने, दुश्मन पर हमला करने, सूचनायें लाने आदि का प्रशिक्षण दिया जाने लगा । यह सब उसे किसी नयी दुनिया में ले जाने वाला जैसा लगता था । छठवी कक्षा की पढ़ाई के लिये उसे दूर के एक गाँव में जाना था पर दादाओं ने मना कर दिया । उससे कहा गया कि क्रांति के लिये पढ़ने की आवश्यकता नहीं । लोग पढ़-लिख कर बड़े-बड़े  अधिकारी बनते हैं और फिर ग़रीबों का ख़ून चूसते हैं ।  माओवाद की महिमा ने भीमा की बुद्धि का प्रक्षालन कर दिया था, वह पूरी तरह एक महान कार्य के लिये समर्पित हो गया ।   

           बत्तीस साल का भीमा एरिया कमाण्डर बनकर देश के दुश्मनों के ख़िलाफ़ माओवादी जंग में शामिल हो गया । उसकी दृष्टि में सारे नेता घोटालेवाज हैं, सारे अधिकारी रिश्वख़ोर हैं, सारे व्यापारी जमाख़ोर और मिलावट करने वाले हैं । पूरा देश ही दुश्मन है, सबको मारना होगा, साम्यवाद लाने के लिये माओवाद लाना होगा । कभी लाल रंग को नापसन्द करने वाला भीमा आज लाल रंग का दीवाना था । ढपली बजाने वाला भीमा माओ की ढपली बजाने में निपुण हो गया था ।  

          एक दिन अचानक भीमा को लगा कि शोषण तो मनुष्य की प्रवृत्ति में है । शोषण हर कहीं व्याप्त है, शोषण के ख़िलाफ़ हथियार उठाने वाले भी शोषण करने की भूख से व्याकुल हैं । वे भी शोषण करना चाहते हैं ....नये कलेवर और नये पाखण्ड के साथ ......केवल अवसर भर मिलने की देर है । तो यह सारा खेल अवसर पाने के लिये ही है ?  

          दस वर्ष की उम्र से लेकर बत्तीस वर्ष की उम्र तक जिस भीमा ने साम्यवाद के लिये अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया था उसी भीमा को अचानक साम्यवाद से नफ़रत होने लगी । किन्तु यह नफ़रत अचानक नहीं हुयी थी उसे । जब पहली बार उसे टंगिया से निर्ममतापूर्वक प्रहार करके खरगोश मारने के लिये कहा गया था ..... तब खरगोश को तड़पते देखकर उसका मन कितने दिन तो बुझा-बुझा सा रहा था । दर्द और ख़ून के प्रति योद्धा की संवेदना की हत्या करना आवश्यक है । भीमा को निष्ठुर बनाने के सभी प्रशिक्षण दिये गये थे । पुलिस के घायल पड़े जवान के सिर और गुप्तांग पर टंगिया से घातक प्रहार, सिर्फ़ यह पता करने के लिये करना कि वह जिन्दा है या नहीं, इसी निष्ठुरता का एक क्रूरतम प्रशिक्षण हुआ करता था । भीमा क्रूर बनता गया ..पर अन्दर ही अन्दर कुछ शोर भी होता रहा । यह शोर तब असह्य हो गया जब एक रात चैती की चीख उसके कानों से टकराई ।

           सिल्ले गट्टा की चैती पोया दण्डकारण्य जनमिलिशिया की सक्रिय सदस्य। वह कब माओवादी बन गयी, उसे याद भी नहीं । उसे बस इतना याद है कि होश संभालने के साथ ही उसने स्वयं को माओवादियों के बीच पाया था । गेहुँवा रंग, बड़ी-बड़ी आखें और गोल चेहरे वाली चैती की चर्चा कहाँ नहीं थी, उसके अपने दल से लेकर अन्य दलों तक हर कहीं चैती की जवानी कहर ढाती थी । तब वह चौदह साल की थी जब एक दिन बोद्दू रात को मटन भात खाने के बाद उसे एक झाड़ी में ले गया था । चैती अबोध थी पर इतनी भी नहीं कि बोद्दू की हरकतों को न समझ सके ।  ......रात का समय, जंगल की झाड़ी, बलिष्ठ बोद्दू, मटन की गर्मी, शराब का नशा, कमसिन चैती की ख़ूबसूरत आँखें .......। बोद्दू दल का मुखिया था, चैती का प्रतिरोध सफल नहीं हो सका । बाद में वह कई दिन तक गुमसुम बनी रही । वह एक ही बात सोचती – “क्या यह भी जनक्रांति का एक हिस्सा है ?”

          चैती अब अट्ठाइस साल की तोप है । बोद्दू के बाद जोगा, लिंगैया और पदाम भी उसे कभी-कभी झाड़ी में ले जाया करते थे । वे उसे बम नहीं तोप कहते थे, पर चैती सोचती कि इसमें भला उसका क्या दोष ? भीमा को यह सब अच्छा नहीं लगता था, किंतु प्रतिरोध करने की स्थिति में वह भी नहीं था ।  चैती के प्रति भीमा की सहानुभूति गहरी होती चली गयी ......गहरी । फिर वह धीरे-धीरे चैती को लेकर गम्भीर होता गया । इससे चैती को कुछ लाभ हुआ, .....किंतु बस इतना ही कि अब उसे झाड़ियों में कम जाना पड़ता था । जनक्रांति का यह हिस्सा भीमा को अच्छा नहीं लगता था, उसे लगा माओवाद भी शोषण से मुक्त नहीं है । किसी स्त्री की इच्छा के विरुद्ध उसका उपभोग ....वह भी कई लोगों के द्वारा ......यह न्याय कैसे हो सकता है ? दल में शामिल नये लोगों की नसबन्दी,  शादी करने पर प्रतिबन्ध, स्त्री की इच्छा के विरुद्ध उसका उपभोग  ...... जनक्रांति में इन सबका कोई स्थान नहीं होना चाहिये ।  

        एक दिन मुखबिर की सूचना पर चैती पकड़ी गयी । भीमा व्यग्र रहने लगा, वहाँ जेल में पता नहीं कैसा व्यवहार होता होगा उसके साथ । उसने बहुत से किस्से सुन रखे थे कैदियों के । भीमा के लिये माओवाद का आकर्षण आसमान से ज़मीन पर आ चुका था । उसे अपने जीवन का महत्वपूर्ण निर्णय लेना था ।

         एक दिन सबने सुना कि भीमा भी पकड़ा गया । अब भीमा और चैती एक ही जेल में थे किंतु दोनो एक-दूसरे से मीलों दूर थे । भीमा को संतोष था कि किसी न  किसी तरीके से वह चैती का हाल जानता रहेगा ।  

          कुछ साल जेल में बिताने के बाद दोनो को मुक्त कर दिया गया । दोनो ने विचार किया कि उन्हें जंगल से दूर चले जाना चाहिये ...जहाँ वे अपने सपनों को पंख लगा सकें । उन्होंने दिल्ली जाने की योजना बनायी, सोचा था कि दो जवान लोग जहाँ पसीना बहायेंगे वहाँ जीने की क्या मुश्किल हो सकती है ।

           जिस दिन उन्हें दिल्ली जाना था उसके ठीक एक दिन पहले ही भीमा चैती को बिना कुछ बताये चला गया ....... चैती राह देखती रही पर वह नहीं आया । तब लिंगैया ने कुटिल हँसी के साथ सूचना दी कि बोद्दू ने भीमा को गोली से उड़ा दिया । चैती न रोयी ...न चीखी ...न चिल्लायी ...बस कुछ समय के लिये मानो जड़ सी हो गयी ।

           उस दिन एक टार्गेट तय किया जाना था । दल के सभी प्रमुख लोग गोल घेरा बना कर बैठे थे, सभी को दिशा निर्देश दिये जाने थे । जब सभा समाप्त हुयी तो चैती उठकर बोद्दू के पास आयी, जैसे कि कुछ पूछना चाह्ती हो । किंतु पास आते ही चैती ने बोद्दू के सिर में गोलियाँ उतार दीं । सब सन्न रह गये । जोगा ने चैती की ओर बन्दूक तान ली, तभी लिंगैया चिल्लाया – “ छोड़ दे उसे .....।”

 

           चैती अब भी उसी दलम में है किंतु अब उसे कोई महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी नहीं दी जाती  सिवाय इसके कि वह जब-तब झाड़ी में चली जाया करे ।    

  
इस कहानी में दिये गये स्थान, पात्रों के नाम एवं घटनायें काल्पनिक हैं । किसी भी प्रकार की साम्यता मात्र संयोग ही होगा ।
   


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.