सोमवार, 21 जुलाई 2014

अ मैन-ईटर ....इन साइड द पैलेस ऑफ़ किंग हिज़ हाईनेस महाराजा भानुप्रताप देव( अ रियल स्टोरी ऑफ़ अरली ट्वेंटीथ सेंचुरी )

 

   इससे पहले भी वह कई बार सफल आक्रमण कर चुकी थी । कांकेर राज्य की सेना का बारम्बार पराजय का मुँह देखना महाराजा भानुप्रताप देव के लिए लज्जा का कारण बन चुका था । सत्रह .....सत्रह निर्दोष लोगों की हत्या हो चुकी थी और उसे पकड़ने के सारे उपाय निष्फल होते जा रहे थे । यह राज्य की आंतरिक समस्या थी, इस बारे में ब्रितानिया सरकार से सहयोग लेना अपने को अपनी ही दृष्टि में गिराना था ।
    
       एक और भी कारण था कि महाराजा कांकेर ब्रितानिया सरकार से इस बारे में कोई चर्चा नहीं करना चाहते थे । उन्हें अच्छी तरह मालुम था कि ब्रितानिया सरकार उस नरभक्षी को मार देगी । जबकि महाराजा इस बात के विरुद्ध थे । उन्हें प्रतीक्षा थी उस दिन की जब महल के बगीचे में बनी बघवा खोली एक बार फिर आबाद होगी।
     लगभग दो सप्ताह पहले ही उस नरभक्षी बाघिन को दुधावा के आसपास देखा गया था जब उसने एक किशोर को अपना भोजन बना डाला । इस बार उसे पकड़ने की रणनीति स्वयं महाराजा ने बनायी । वे आश्वस्त थे कि उसे जीवित ही पकड़ लिया जायेगा, जबकि राजसैनिक उसे जीवित या मृत किसी भी स्थिति में देखने के लिए व्यग्र थे।
उस दिन एक वनवासी ने महल के सैनिक को समाचार दिया कि कुख्यात  नरभक्षी बाघिन को कुम्हान खार गाँव के आसपास के जंगल में देखा गया है । महाराजा ने सैनिकों को तैयार किया और कुम्हान खार की ओर कूच कर दिया ।
दो दिन हो चुके थे और बाघिन जैसे अदृश्य हो गयी थी, उसका कहीं कोई  पता नहीं चल रहा था । वह “तुम डाल-डाल हम पात-पात” वाली नीति अपनाये हुयी थी । महाराजा ने अपने सैनिकों और कुशल शिकारियों को रात में भी सजग रहने का आदेश दे दिया था ।


मचान पर बैठे सुकालू की पूरी देह को मच्छरों ने दावत की बड़ी सी परात में सजा पकवान  समझकर खूब मनमानी की । मच्छर अपने-अपने रिश्तेदारों के साथ दावत उड़ा कर प्रसन्न  होते रहे और सुकालू दम साधे बैठे रहने को विवश था ...नेक भी हलचल हुयी नहीं कि पूरा अभियान फुस्स ! 

       तीसरे दिन मुंह अंधेरे ही तालाब के पास बाघिन को पानी पीते हुये देखा गया । शिकारियों ने अचेत करने वाले तीर धनुष पर चढ़ा लिए । वे अभी निशाना साध  ही रहे थे कि चालाक बाघिन ने पानी में छलांग लगा दी । धनुष की कमानें खिंचीं और  तीरों की बौछार से पानी में बुडुक-बुडुक की आवाज़ें आने लगीं । लेकिन एक भी तीर बाघिन को नहीं लगा, वह जैसे अमर हो कर धरती पर आयी थी । शिकारियों का पूरा दल हाथ  झाड़कर रह गया ।
महाराजा ने धैर्य से काम लेने की समझाइश देते हुए अभियान सतत  चलाये रखने का आदेश दिया । मंगलू ने हाँका डालने का सुझाव दिया । पहले तो महाराजा इसके लिए तैयार नहीं हुये किंतु बाद में लोगों की निराशा और असंतोष को देखते हुए  चौथे दिन हाँका डालना निश्चित किया गया । जंगल को तीन ओर से घेर कर हाँका डाला गया। हाँका में दक्ष शिकारियों के साथ-साथ आसपास के ग्रामीण वनवासियों ने भी बड़े उत्साह से भाग लिया । बच्चों को इसमें सम्मिलित होने की अनुमति नहीं थी फिर भी बच्चे कहाँ मानने वाले ! भीड़ के साथ वे भी चिल्लाने लगे । चतुर बाघिन तीन ओर से घिर चुकी थी, बच कर भागने के लिए केवल एक मार्ग ही शेष था ....जिधर तीर कमान और बन्दूक लिए लोग पहले से ही मोर्चा संभाले हुए थे । अचानक बाघिन को दौड़ते हुये देखा गया, भीड़
में उत्साह का संचार हुआ और बच्चे ख़ुशी में गला फाड़-फाड़ कर चिलाने लगे ।
“आज नहीं बच पायेगी ...बहुत छकाया है सबको”। - सबके मुंह से यही निकल रहा था । महाराजा चिंतित हो उठे ...कहीं अति उत्साह में लोग बाघिन की हत्या न कर दें । उन्होंने चिल्लाकर कहा – “ अचेत करने वाले तीर चलाना ....गोली हवा में चलाना ......बाघिन को गोली लगने न पाये ....”।
हवा में धाँय-धाँय की आवाज़ें गूँजने लगीं .....तीर-कमान वाले अपनी समस्त इन्द्रियों को सजग कर साँसें साधे बाघिन के समीप आने की प्रतीक्षा करने लगे ।
......और लोगों ने देखा कि भागती हुयी बाघिन बाँस के एक झुरमुट में घुस गयी । भीड़ समीप आने लगी ........झुरमुट को घेरने के लिए लोगों ने दौड़ लगा दी । बच्चे भी छोटे-छोटे डण्डे हाथ में उठाये उधर ही भागने लगे तो पैंसठ साल के बुच्चा ने लाठी लेकर सबको खदेड़ा ।
बाँस का घना झुरमुट भारी भीड़ की ग़िरफ़्त में था । लोगों का उत्साह अपने चरम पर पहुँच चुका था । महाराजा ने एक बार फिर सभी को चिल्लाकर सचेत किया कि कोई भी बाघिन पर गोली न चलाये । किंतु गोली तो दूर, किसी को तीर या लाठी तक  चलाने की भी आवश्यकता नहीं पड़ी ।
भीड़ ने पाया कि बाघिन एक बार फिर अपनी माया से अदृश्य हो चुकी थी । लोगों की निराशा की सीमा न रही । बुच्चा चिल्लाया – “ मैं तो पहले ही कहता था न  कि वह बाघिन नहीं कोई देव है, तभी तो सबके देखते-देखते बिला जाती है । पूजा करनी होगी, कुछ भेंट चढ़ानी होगी ...... वह कोई साधारण बाघिन नहीं है”।
भीड़ के भी आश्चर्य का ठिकाना न रहा ...सच ही तो ...देखते-देखते कहाँ बिला गयी बाघिन !

महाराजा भी हार मानने वाले नहीं थे, इस बार तो बघवा को पकड़ना ही है । नए सिरे से योजना बनी, एक बकरे के पैर में दो-तीन स्थान पर घाव बनाकर उसमें नमक लगा दिया गया । लोग मचानों पर बैठ कर बाघिन की प्रतीक्षा करने लगे । नमक लगे घाव के कारण बकरा चिल्लाता रहा और बाघिन जंगल में कहीं मुस्कराती  रही। लोगों को विश्वास था कि इतने दिन की भूखी बाघिन बकरे के लालच में इस बार आयेगी अवश्य । लोग जागते रहे और रात गहरी होती रही । रात्रि का अंतिम प्रहर भी आ गया ....
अंततः, ठसका दिखाती हुयी वाघिन आयी । भूख से बेहाल हो कर आयी । भोजन के लालच में आयी, किंतु ..........
....किंतु चालाक बाघिन बकरे की ओर मुस्कराकर देखती हुयी आगे बढ़ती चली गयी । बकरा चिल्लाता रहा, गोया कह रहा हो – “अरे बाघिन जी ! मैं इधर हूँ ...कब से आपकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ । मनुष्य लोग आपको पकड़ने के लिए व्यग्र हो रहे हैं और आप हैं कि सबकी आशाओं पर पानी फेरती हुयी आगे चलती चली जा रही हैं । मुझे खाओ तो सही...मैं आपके पेट में जाकर गहरी नींद सोना चाहता हूँ”। 
बाघिन ने बकरे के रुदन पर कोई ध्यान नहीं दिया, जैसे कह रही हो-
“अबे उल्लू ! खीर को छोड़कर सत्तू तो तेरे जैसे ही मूढ़ मति खाते हैं”।
अंधेरा पलायन करने की तैयारी के बारे में विचार कर ही रहा था कि तभी एक किशोरी ने अपनी झोपड़ी के पीछे की झाड़ी में शौच की इच्छा से प्रवेश किया ।

अचानक किशोरी अपनी पूरी शक्ति से चिल्लाने लगी, पूरे जंगल में किशोरी की आर्त चीख  गूँज उठी । एक ऊँचे मचान पर बैठे महाराजा को इसकी आशा नहीं थी । यह चीख अप्रत्याशित थी .....पूरे अभियान में इस चीख के लिए कोई स्थान मुकर्रर नहीं किया गया था । महाराजा को विश्वास हो गया कि चालाक बाघिन ने अवसर देखकर किशोरी पर आक्रमण कर दिया है, उनके हाथ अपनी सुरक्षा के लिए ली गयी बन्दूक पर जा पड़े .....और एक
धमाके के साथ सब कुछ शांत हो गया ।

सबको गोली न चलाने के लिए कहते रहने वाले महाराजा ने एक लड़की की चीख से व्यथित हो आवाज़ की दिशा में अंधेरे में गोली चला दी थी । लड़की की चीख शांत होते ही महाराजा सन्न रह गये । अचानक उनकी समस्त इन्द्रियाँ अपनी सम्पूर्ण क्षमता और तीव्रता से कार्य करने लगीं । उन्हें अपराध बोध ने घेर लिया ........बाघिन तो पकड़ नहीं सके, एक लड़की का जान और चली गयी । महाराजा के दुःख और आत्मग्लानि की सीमा नहीं रही । वे मचान से कूद कर झाड़ी की ओर भागे ....अन्य लोग भी भागे । 
  झाड़ी के पास पहुँच कर भीमा ने फूस जलाकर प्रकाश किया । सबने देखा कि बाघिन ने लड़की को पूरी तरह दबोच रखा है, लड़की अचेत है और बाघिन निश्चल । सबको आश्चर्य हुआ .....बाघिन निश्चल  क्यों है !
लोगों ने देखा कि बाघिन के कन्धे के पास से रक्त की तीव्र फुहार फूट रही थी, यानी वह भी घायल हुयी थी, सबने मिलकर उस विशालकाय नरभक्षी बाघिन को लड़की की अचेत देह के ऊपर से हटाया । बाघिन उस किशोरी की एक भुजा पूरी तरह अपने पेट में सुरक्षित रख चुकी थी ।
   अब तक सब कुछ स्पष्ट हो चुका था । बाघिन पकड़ी गयी ........किंतु.......
    महाराजा की आँखें बरस उठीं, पता नहीं ......... लड़की के प्राण बच जाने की प्रसन्नता में या बाघिन के मारे जाने के दुःख में ।
   किशोरी का प्रारम्भिक उपचार घटनास्थल पर स्वयं महाराजा ने किया और फिर उसे अपनी गाड़ी से अस्पताल पहुँचाया ।
  अगले दिन महाराजा महल के अपने कक्ष में ही बने रहे ...बाहर नहीं निकले, भोजन भी नहीं किया । वे आत्मग्लानि से व्यथित थे । वन्यप्राणियों के अधिकारों के लिए चिंतित रहने वाले महाराजा के हाथों से ही एक वन्य पशु की हत्या हो गयी थी । बघवा खोली को भी इस बार निराश होना पड़ा ।
  पूरे दिन महल में लोगों का तांता लगा रहा, लोग नरभक्षी बाघिन को देखने के लिए महल में उमड़े पड़ रहे थे । सूरज ढलते ही महाराजा ने घोषणा की – “यह बाघिन हमारे साथ रहेगी, यहीं .......हमारे महल में इसके रहने की व्यवस्था की जाय”।

  नरभक्षी बाघिन महाराजा के कक्ष में आज भी अपनी पूरी शान के साथ खड़ी है । मैंने गौर किया, महाराजा भानुप्रताप देव के पौत्र जॉली बाबा नरभक्षी बाघिन की कहानी सुनाते-सुनाते बीच में एक-दो बार भावुक हो उठे थे । 
  बाहर वारिश तेज़ होने लगी थी, महल की खिड़की में लगी लोहे की छड़ से पानी की बूँदें अठखेलियाँ कर रही थीं । मुझे पानी की बूँदों को अपने कैमरे में क़ैद करना अच्छा लगता है । मैंने ज़ॉली बाबा से पूछा – “मैं इन बूदों को क़ैद कर लूँ ?” वे मुस्करा उठे – “आपको कभी मना
किया है ?”
  आज के कार्यक्रम में प्रोजेक्टर पर मुझे वन्यजीवन से सम्बन्धित कुछ और भी देखना था...”सम एक्सक्ल्यूसिव”। इस बीच जॉली बाबा की नन्हीं बेटी यानी राजकुमारी जया तीन बार आकर वापस जा चुकी थी । शायद उसे अपने पिता के साथ खेलना था । बाहर अंधेरा घिर रहा था, मैंने जॉली बाबा से विदा ली । 
  महल से बाहर निकला तो छाता छल करने पर आमादा था और वारिश थी कि आज कोई कसर नहीं छोड़ने पर आमादा थी । मैं ख़ुश था...महल मेरे कैमरे में क़ैद जो था। 


      और हाँ ! कांकेर के लोगों ने अभी पाँच बरस पहले तक हर दशहरा पर एक हाथ वाली किसी वृद्धा को महल में आकर पुष्प चढ़ाते देखा है ।

 नरभक्षी बाघिन राजमहल में आज भी शान से खड़ी है । 

कांकेर राजमहल के इस कक्ष में 

शानदार आशियाना है नरभक्षी बाघिन का ।  

महल के पुस्तकालय की खिड़की 

जहाँ पानी की बूँदों ने अठखेलियाँ करनी शुरू कर दीं ।    

शतावरी की नाज़ुक लता पर अपनी सहेलियों के साथ झूला झूलतीं 

पानी की बूँदें ...

राजमहल की बघवा खोली


बस्तर के रजबाड़ों में एक रजबाड़ा है - चारो ओर विन्ध्यपर्वत श्रेणियों से घिरा और दूधनदी के किनारे बसा कांकेर । कहते हैं कि यहाँ के जंगल कंकऋषि की तपःस्थली रहे हैं । इस राज्य के महाराजा कोमलदेव के नाम पर यहाँ का जिला चिकित्सालय है तो प्रसिद्ध हायरसेकेण्ड्री स्कूल है महाराजा भानुप्रतापदेव के नाम पर ।
भारत की स्वतंत्रता के दस वर्ष पूर्व 1937 में महाराजा भानुप्रतापदेव के पुत्र ने इस नये महल में रहने का मन बनाया जो उस समय बगीचा के नाम से जाना जाता था । 
महलों के किस्से बड़े रोचक हुआ करते हैं । ऐसा ही एक किस्सा है कांकेर के बगीचा महल की बघवा खोली का जिस पर से पर्दा हटाया है स्वयं राजकुमार सूर्यप्रतापदेव ने । पढ़िये ये रोचक किस्सा ....   
     

           उस दिन सुबह-सुबह सूरज अभी उगा ही था कि लगभग अट्ठाइस वर्षीया एक युवा स्त्री बदहवास सी भागती हुयी महल की ओर आयी । द्वारपाल ने देखा, स्त्री के बाल बिखरे हुये थे, शरीर पर लिपटे जो थोड़े बहुत कपड़े थे भी वे अस्त-व्यस्त हुये जा रहे थे । 
स्त्री घबड़ायी हुयी थी और सुबक रही थी । द्वारपाल उससे पूर्व परिचित था, उसने पूछा - "क्या हुआ रे सुरसतिया ! इतनी घबड़ायी हुयी क्यों है ?"

स्त्री जैसे-तैसे कुछ बोल सकी और फिर वहीं गिरकर अचेत हो गयी ।

द्वारपाल ने चिल्लाकर लोगों को सचेत किया और एक संदेशवाहक से महल में समाचार भिजवाया - "आज फिर एक बच्चे को बघवा ले गया ..... जाकर महाराज को बता ज़ल्दी से ।"
महल में शोर मच गया । लोग इधर से उधर भागने लगे ...ज़ल्दी ही पूरे नगर में आदमखोर बाघ के हमले की ख़बर फैल गयी । 

महाराजा भानुप्रतापदेव अभी-अभी नित्यकर्म से निवृत्त हो पूजा पर बैठे थे । सेवक समाचार बताने के लिए पूजा समाप्त होने की प्रतीक्षा करने लगा किंतु महल परिसर में आती आवाज़ों से महाराजा पहले ही समझ चुके थे कि आज फिर बाघ का आक्रमण हुआ है । पूजा में उनका मन नहीं लगा, शीघ्र ही पूजा समाप्त कर उठ बैठे और सेवक से बोले - "भगतराम से बाघ को पकड़ने की व्यवस्था करने को कहो । व्यवस्था हो जाय तो हमें ख़बर करना ...हम साथ चलेंगे । ...और सदाशिव को मेरे पास भेजो .....अभी .....तुरंत ।"

सदाशिव ने आने में विलम्ब नहीं किया । उसके उपस्थित होते ही महाराजा ने आदेश दिया - " बाग में पश्चिम दिशा की ओर के खाली पड़े स्थान में बाघ के रहने के लिये एक खोली बनाने की व्यवस्था करो । जब तक खोली बन कर तैयार हो तब तक के लिए बड़े वाले पिंजरे को साफ कर बाग में लगवा दो ।" 
बड़े परिश्रम के बाद आदमख़ोर बाघ पकड़ा गया, उसने बच्चे को आधे से अधिक खा लिया था । भीड़ उत्तेजित थी और बाघ को उसके अपराध की सज़ा देना चाहती थी । महाराजा ने जैसे-तैसे उत्तेजित भीड़ को शांत किया और बाघ को पिंजरे में क़ैद करने का आदेश दिया । 

रात-दिन एक कर बघवा खोली बनायी गयी । खोली बनते ही बाघ को उसके नये कमरे में छोड़ दिया गया । आदमख़ोर बाघ का नया घर द्विआवृती था ...यानी एक बड़े से कमरे के भीतर बीचोबीच एक और कमरा जो एक बड़े पिंजरे की तरह लगता था । यूँ तो बाघ को बड़े वाले कमरे में रहने की पूरी आज़ादी थी लेकिन कमरे की सफाई और गोश्त परोसते समय उसे पिंजरे में क़ैद होना पड़ता था । भीतर वाले पिंजरे या गर्भकक्ष में एक ओर लीवर से खुलने और बन्द होने वाला लोहे का एक भारी दरवाज़ा था । बाघ को लम्बे समय तक बघवा खोली में रखा जाता था और जब यह अनुमान हो जाता था कि अब वह आदमख़ोरी नहीं करेगा तो उसे घने जंगल में ले जाकर छोड़ दिया जाता था ।

हमारे पास आदमख़ोर बाघ या शेर को सुधारने के लिए रजबाड़ों द्वारा किये गये इस तरह के प्रयासों का कोई अधिकृत अभिलेख उपलब्ध नहीं है किन्यु अनुमान है कि शायद विश्व में अपनी तरह का यह एक अभिनव सफल प्रयोग था।

स्वतंत्र भारत में स्थापित किये गये कई अभयारण्यों के बाद भी वन्य जीवों का अस्तित्व संकटपूर्ण है .......शायद इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि पहले "मैन ईटर बाघ" हुआ करते थे, आज "बाघ ईटर मैन" होना बहुत आम बात हो गयी है ।        

छत्तीसगढ़ी बोली में जिसे "बघवा खोली" कहते हैं उसका अंग़्रेज़ी तर्ज़ुमा है "tiger's room". यह चित्र उसी खोली का है, और य्ह खोली बनी है कांकेर के राजमहल में । आप सोचेंगे कि इसमें नया क्या ? राजा-महाराजाओं के शौक़ तो ऐसे ही हुआ करते थे । 
लेकिन नहीं ...... 
यह शौक़ नहीं ....एक ज़रूरत थी । 
इस पुरानी बघवा खोली को अब एक कार्यालय का रूप दिया जा रहा है ....बिना उसके मौलिक स्वरूप को क्षति पहुँचाये ।   


गर्भ कक्ष ...यानी बघवा खोली के अन्दर बीचोबीच एक और कक्ष 


भीतर के पिंजरे के जंग लगे लोहे के भारी दरवाज़े को साफ़ कर उसके लीवर को सुधारा जा रहा है ताकि जॉली बाबा अपने विदेशी मेहमानों को अपने पूर्वजों के प्रयास का जीवंत रूप दिखा सकें । 

बुधवार, 9 जुलाई 2014

वसुधैव कुटुम्बकं


श्रेष्ठता की ओर निरंतर अग्रसर होना मनुष्य का उदात्त भाव है किंतु श्रेष्ठतावाद मनुष्य समाज की सबसे बड़ी समस्या है । श्रेष्ठ होने के लिए किसी व्यक्ति विशेष द्वारा बताये गये उपाय विशेष के प्रति पूर्वाग्रह और शेष लोगों को उसका अनुकरण करने के लिए बल पूर्वक आग्रह करना ही श्रेष्ठतावाद है । यह श्रेष्ठतावाद ही समुदायों को जन्म देता है और वैचारिक हठधर्मिता ऐसे समुदायों को कठोर एवं हिंसक बना देती है ।
भारत की धरती पर अनेक समुदाय अस्तित्व में आते, मिटते और पुनः आते रहे हैं । दैत्य, दानव, राक्षस आदि ऐसे ही समुदाय हैं । छल-बल से अपने समुदाय की सांख्यिकीय वृद्धि करने में निपुण ये समुदाय मानवता के शत्रु रहे हैं ।
श्रेष्ठतावादी समुदाय अभी तक यह समझ पाने में असफल रहा है कि गुणात्मक श्रेष्ठता के लिए सांख्यिकीय वृद्धि का कोई महत्व नहीं होता । हाँ, हिंसा और पतित कार्यों के लिए संख्या का होना कुछ महत्वपूर्ण हो सकता है ।
भारत ने अपनी धरती पर विभिन्न धर्मों को अपनी पहचान बनाने और अस्तित्व में बने रहने क अवसर उपलब्ध कराया है । किंतु अपने-अपने धर्मों की महिमा की श्रेष्ठता से ग्रस्त लोगों ने श्रेष्ठतावाद को अभियान के रूप में लेकर पूरे विश्व को एक जैसा ....एक ही पथ का अनुयायी बना देने का संकल्प कर लिया है । यह संकल्प अप्राकृतिक है, विघटनकारी है, मनुष्य की प्रकृति के विरुद्ध है ।
आज के परिदृष्य में हम यह विचार करने के लिए विवश हुये हैं कि समाज को विशेषणयुक्त धर्मों से मुक्ति पाने पर क्यों नहीं चिंतन करना चाहिये ।  जिस तरह हम अपने घर में कई प्रकार के कार्यों के लिए स्वतंत्र होते हैं ....उसी तरह सामाजिक जीवन में भी एक सीमा में रहते हुये हमें किसी भी पथ का अनुसरण करने के लिए पूर्वाग्रहों से मुक्त होने की आवश्यकता है । हम क्या पहनें -यह हमारी रुचि और ऋतु की मांग के अनुसार होना चाहिये, इसी तरह हमारा सार्वजनिक और वैयक्तिक जीवन हमारी और समाज की आवश्यकता के अनुरूप होना चाहिये । इससे मनुष्य जीवन की सामाजिक और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त होगा ।

हम एक ऐसे समाज की कल्पना करने में सुख का अनुभव करते हैं जिसमें लोग धर्म विशेष के अनुयायी न होकर केवल मनुष्य धर्म के अनुयायी हों ;  पूरी धरती के लोगों की केवल एक ही नागरिकता हो ; पूरे विश्व की केवल एक ही संसद हो ; पूरे विश्व का एक ही संविधान हो और मनुष्य केवल मनुष्य हो । 

सोमवार, 7 जुलाई 2014

एक आलसी का चिठ्ठा: मैं, शंकर के समर्थन में

एक आलसी का चिठ्ठा: मैं, शंकर के समर्थन में: हदीस की मानें तो भारत विजय अरबश्रेष्ठतावादी मजहब के संस्थापक की अंतिम इच्छाओं में से एक थी। यदि यह मजहब नहीं होता तो भारत के सांस्कृतिक इत...

रविवार, 6 जुलाई 2014

ऋग्वेद में हैं बेबीलोन और मिस्र के किस्से


नट-नटी को उदास देखकर सूत्रधार ने पास आकर कारण पूछा तो नट ने अपनी चिंता प्रकट की -
“हे प्रभु ! मनुष्य के अब तक के अनुसंधानों में सबसे बड़ा और श्रेष्ठ अनुसंधान है ईश्वर के अस्तित्व का ज्ञान, किंतु आज यह ज्ञान ही अब मनुष्य के विवादों और युद्धों का कारण बनता जा रहा है । हमें बताया गया है कि विवादों और युद्धों का कारण अज्ञान होता है किंतु यहाँ तो स्थिति विपरीत है” ।

सूत्रधार ने गम्भीर हो कर कहा – “हे नट ! आपका यह कथन सत्य है कि आज ईश्वर को केन्द्रित कर विवादों और युद्धों की रचना की जा रही है किंतु यह सत्य नहीं है कि इन सबका कारण ज्ञान है अज्ञान नहीं । वास्तव में इन सबका कारण अज्ञान ही है ।”

नट कुछ कहता इससे पूर्व ही नटी बोल उठी – “हे प्रभु ! अन्यथा न लें ; हमने अपने आचार्यों से सुना है कि वेद ज्ञान के आदि स्रोत हैं, अपौरुषेय हैं, मानव सभ्यता के सर्वाधिक प्राचीन एवं सनातनधर्मियों के पूज्य ग्रंथ हैं ...किंतु कुछ लोग ध्वनि को आधार बनाकर वैदिक एवं उत्तरवैदिक आर्षग्रंथों के किंचित साम्य शब्दों का तर्क देते हुये भ्रम उत्पन्न कर रहे हैं । डॉक्टर ज़. हक़ ने अपनी पुस्तक ‘प्रोफ़ेट मुहम्मद इन हिन्दू स्क्रिप्चर्स’ में भविष्य पुराण के प्रतिसर्ग तृतीय खण्ड 3,3,5, का उल्लेख करते हुये बताया है कि मुहम्मद साहब के आने की पूर्व भविष्यवाणी हिन्दू ग्रंथों में पहले ही कर दी गयी थी । यथा- एतस्मिन्नन्तिरे म्लेच्छ आचार्य्येण समन्वितः । महामद इति ख्यातः शिष्यशाखासमन्वितः ॥ 5॥
तथाकथित विद्वानों द्वारा शब्द “महामद” को अरबी भाषा के “मुहम्मद” का संस्कृत रूपांतरण कहा जा रहा है । कदाचित उनके कहने का आशय है कि हिन्दुओं को अपने पवित्र ग्रंथ की इस भविष्यवाणी का सम्मान करते हुये मुहम्मद साहब के बताये मार्ग का अनुसरण करना चाहिये ....और .....उन्हें मुसलमान हो जाना चाहिये । इतना ही नहीं .......कहा तो यहाँ तक जा रहा है कि ऋग्वेद का एक-पाँचवाँ भाग बेबीलोनियन और इज़िप्टियन साहित्य का संस्कृत रूपांतरण है जिसमें अब्राहम को ब्रह्म, अब्राहम की दूसरी पत्नी साराह को सरस्वती और मनु को नूह के रूप लिखा गया है । 1935 में डॉ. प्राणनाथ ने तो ऋग्वेद में बेबीलोनियन और इज़िप्टियन राजाओं की विभिन्न घटनाओं और युद्धों के वर्णन की बात कही है । कुछ लोग वेदों को पाश्चात्य सभ्यताओं से भारतीयों द्वारा चुराया हुआ ज्ञान कह रहे हैं ।
हे प्रभु ! यदि वैदिक एवं उत्तरवैदिक आर्षग्रंथ अभारतीय हैं तो फिर भारत और कहाँ है ?”

सूत्रधार ने शंका समाधान करते हुए कहा – “हे नटी ! अक्षर और ध्वनियाँ निश्चित हैं, किंतु विभिन्न समुदायों की परपराओं के अनुसार समान या समतुल्य उच्चारण होते हुये भी शब्दों के अर्थ देशकालवातावरण के अनुसार भिन्न हो जाया करते हैं । राजस्थान में बाई को जो आदर प्राप्त है वह वाराणसी में नहीं है । अस्तु, शब्दों के साथ इस प्रकार की खीचतान सर्वथा अनुपयुक्त है किंतु कलियुग में यह अनुपयुक्तता ही समुदाय विशेष के लिए उपयुक्तता बन जाती है । यद्यपि ऐसी एकांगी उपयुक्तता सर्व स्वीकार्य और सार्वभौमिक नहीं होती ...सर्वकल्याणकारी भी नहीं होती किंतु कलियुग का यही स्वभाव है अतः विषाद को दूर कर सत्य मार्ग पर चलने का प्रयास करती रहो । वेद तो श्रुत हैं, ज्ञान के भण्डार हैं .... उन पर किसी समुदाय विशेष का अधिकार नहीं है, वे तो मानवमात्र के लिए हैं ...वेदों पर मानवमात्र का अधिकार है । ऋषि परम्परा में ज्ञान को महत्व दिया जाता रहा है, इसीलिए आविष्कार की बात तो सामने आती है किंतु आविष्कारक का नाम सामने नहीं आता । भारत वह देश है जहाँ के लोग ‘भा’ (प्रकाश) में ‘रत’ हैं, नाम में रत नहीं”।   

शनिवार, 5 जुलाई 2014

बदली



सूत्रधार ने नट-नटी के सम्मुख पटकथा रख दी और चुपचाप उनकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगा । दोनो बड़ी जिज्ञासा से पटकथा का अवलोकन करने लगे । जैसे-जैसे उनके उत्सुक नेत्र पटकथा के अक्षरों से होते हुये शब्दों में तैर कर आगे बढ़ने लगे उनकी मुखमुद्रा परिवर्तित होने लगी । पटकथा के समाप्त होते ही दोनो ने एक-दूसरे के मुख की ओर निहारा, मौन नेत्रों ने एक-दूसरे से एक जैसे प्रश्न किए और फिर सूत्रधार की ओर अगले आदेश के लिए देखा ।
जब तक सूत्रधार कुछ कहता, नटी से रहा नहीं गया और वह बोल पड़ी- प्रभु ! हम तो सुनते आये हैं कि सागर और सरिता के बीच प्रेमी और प्रेमिका जैसे सम्बन्ध हैं । पिता और पुत्री के रूपक तो आज तक नहीं सुने गये, और आज आप हमें यह नया मंचन करने के लिए आदेशित कर रहे हैं ?”
सूत्रधार मुस्कराकर बोले – “समुद्र की कोख से जन्म लेने वाली बदली अपनी विभिन्न अवस्थाओं से होती हुई अंततः समुद्र में ही पहुँच कर शांत होती है । नदी तो एक अवस्था है ...... मूल है नीर ।  
नटी को, स्मृति में, पिता के नेह ने आबद्ध किया, उसके नेत्र भर आये और वह संतुष्ट हो मंचन के लिए प्रवृत्त हुयी .....आज उसका भाव नृत्य अद्भुत् था ।     

सज-संवर, हो नेह पूरित
छा गयी बदली ।
कर पवन का थाम कर
लाँघ कर देहरी चली ।
सबने कहा बदली है बदली
लो उड़ चली बदली ।

बूढ़े समन्दर ने कहा
वो कहाँ बदली !
अंश है वो तो मेरी
पर तनिक पगली ।
दूर ज्यों-ज्यों वो हुयी
रुक-रुक झरी बदली ।

पर्वतों पर पत्थरों पर
बूंद-बूंद झरी बदली ।
झर-झर झरी, धूलि सनी
सरिता बनी बहती रही ।
बहकर समन्दर से मिली
थी गोद में जिसके पली ।

है दीर्घ यात्रा से शिथिल

पर नेह की बदली न बदली ।