रविवार, 6 जुलाई 2014

ऋग्वेद में हैं बेबीलोन और मिस्र के किस्से


नट-नटी को उदास देखकर सूत्रधार ने पास आकर कारण पूछा तो नट ने अपनी चिंता प्रकट की -
“हे प्रभु ! मनुष्य के अब तक के अनुसंधानों में सबसे बड़ा और श्रेष्ठ अनुसंधान है ईश्वर के अस्तित्व का ज्ञान, किंतु आज यह ज्ञान ही अब मनुष्य के विवादों और युद्धों का कारण बनता जा रहा है । हमें बताया गया है कि विवादों और युद्धों का कारण अज्ञान होता है किंतु यहाँ तो स्थिति विपरीत है” ।

सूत्रधार ने गम्भीर हो कर कहा – “हे नट ! आपका यह कथन सत्य है कि आज ईश्वर को केन्द्रित कर विवादों और युद्धों की रचना की जा रही है किंतु यह सत्य नहीं है कि इन सबका कारण ज्ञान है अज्ञान नहीं । वास्तव में इन सबका कारण अज्ञान ही है ।”

नट कुछ कहता इससे पूर्व ही नटी बोल उठी – “हे प्रभु ! अन्यथा न लें ; हमने अपने आचार्यों से सुना है कि वेद ज्ञान के आदि स्रोत हैं, अपौरुषेय हैं, मानव सभ्यता के सर्वाधिक प्राचीन एवं सनातनधर्मियों के पूज्य ग्रंथ हैं ...किंतु कुछ लोग ध्वनि को आधार बनाकर वैदिक एवं उत्तरवैदिक आर्षग्रंथों के किंचित साम्य शब्दों का तर्क देते हुये भ्रम उत्पन्न कर रहे हैं । डॉक्टर ज़. हक़ ने अपनी पुस्तक ‘प्रोफ़ेट मुहम्मद इन हिन्दू स्क्रिप्चर्स’ में भविष्य पुराण के प्रतिसर्ग तृतीय खण्ड 3,3,5, का उल्लेख करते हुये बताया है कि मुहम्मद साहब के आने की पूर्व भविष्यवाणी हिन्दू ग्रंथों में पहले ही कर दी गयी थी । यथा- एतस्मिन्नन्तिरे म्लेच्छ आचार्य्येण समन्वितः । महामद इति ख्यातः शिष्यशाखासमन्वितः ॥ 5॥
तथाकथित विद्वानों द्वारा शब्द “महामद” को अरबी भाषा के “मुहम्मद” का संस्कृत रूपांतरण कहा जा रहा है । कदाचित उनके कहने का आशय है कि हिन्दुओं को अपने पवित्र ग्रंथ की इस भविष्यवाणी का सम्मान करते हुये मुहम्मद साहब के बताये मार्ग का अनुसरण करना चाहिये ....और .....उन्हें मुसलमान हो जाना चाहिये । इतना ही नहीं .......कहा तो यहाँ तक जा रहा है कि ऋग्वेद का एक-पाँचवाँ भाग बेबीलोनियन और इज़िप्टियन साहित्य का संस्कृत रूपांतरण है जिसमें अब्राहम को ब्रह्म, अब्राहम की दूसरी पत्नी साराह को सरस्वती और मनु को नूह के रूप लिखा गया है । 1935 में डॉ. प्राणनाथ ने तो ऋग्वेद में बेबीलोनियन और इज़िप्टियन राजाओं की विभिन्न घटनाओं और युद्धों के वर्णन की बात कही है । कुछ लोग वेदों को पाश्चात्य सभ्यताओं से भारतीयों द्वारा चुराया हुआ ज्ञान कह रहे हैं ।
हे प्रभु ! यदि वैदिक एवं उत्तरवैदिक आर्षग्रंथ अभारतीय हैं तो फिर भारत और कहाँ है ?”

सूत्रधार ने शंका समाधान करते हुए कहा – “हे नटी ! अक्षर और ध्वनियाँ निश्चित हैं, किंतु विभिन्न समुदायों की परपराओं के अनुसार समान या समतुल्य उच्चारण होते हुये भी शब्दों के अर्थ देशकालवातावरण के अनुसार भिन्न हो जाया करते हैं । राजस्थान में बाई को जो आदर प्राप्त है वह वाराणसी में नहीं है । अस्तु, शब्दों के साथ इस प्रकार की खीचतान सर्वथा अनुपयुक्त है किंतु कलियुग में यह अनुपयुक्तता ही समुदाय विशेष के लिए उपयुक्तता बन जाती है । यद्यपि ऐसी एकांगी उपयुक्तता सर्व स्वीकार्य और सार्वभौमिक नहीं होती ...सर्वकल्याणकारी भी नहीं होती किंतु कलियुग का यही स्वभाव है अतः विषाद को दूर कर सत्य मार्ग पर चलने का प्रयास करती रहो । वेद तो श्रुत हैं, ज्ञान के भण्डार हैं .... उन पर किसी समुदाय विशेष का अधिकार नहीं है, वे तो मानवमात्र के लिए हैं ...वेदों पर मानवमात्र का अधिकार है । ऋषि परम्परा में ज्ञान को महत्व दिया जाता रहा है, इसीलिए आविष्कार की बात तो सामने आती है किंतु आविष्कारक का नाम सामने नहीं आता । भारत वह देश है जहाँ के लोग ‘भा’ (प्रकाश) में ‘रत’ हैं, नाम में रत नहीं”।   

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