श्रेष्ठता
की ओर निरंतर अग्रसर होना मनुष्य का उदात्त भाव है किंतु श्रेष्ठतावाद मनुष्य समाज
की सबसे बड़ी समस्या है । श्रेष्ठ होने के लिए किसी व्यक्ति विशेष द्वारा बताये गये
उपाय विशेष के प्रति पूर्वाग्रह और शेष लोगों को उसका अनुकरण करने के लिए बल
पूर्वक आग्रह करना ही श्रेष्ठतावाद है । यह श्रेष्ठतावाद ही समुदायों को जन्म देता
है और वैचारिक हठधर्मिता ऐसे समुदायों को कठोर एवं हिंसक बना देती है ।
भारत की
धरती पर अनेक समुदाय अस्तित्व में आते, मिटते और पुनः आते रहे हैं । दैत्य, दानव,
राक्षस आदि ऐसे ही समुदाय हैं । छल-बल से अपने समुदाय की सांख्यिकीय वृद्धि करने
में निपुण ये समुदाय मानवता के शत्रु रहे हैं ।
श्रेष्ठतावादी
समुदाय अभी तक यह समझ पाने में असफल रहा है कि गुणात्मक श्रेष्ठता के लिए
सांख्यिकीय वृद्धि का कोई महत्व नहीं होता । हाँ, हिंसा और पतित कार्यों के लिए
संख्या का होना कुछ महत्वपूर्ण हो सकता है ।
भारत ने
अपनी धरती पर विभिन्न धर्मों को अपनी पहचान बनाने और अस्तित्व में बने रहने क अवसर
उपलब्ध कराया है । किंतु अपने-अपने धर्मों की महिमा की श्रेष्ठता से ग्रस्त लोगों
ने श्रेष्ठतावाद को अभियान के रूप में लेकर पूरे विश्व को एक जैसा ....एक ही पथ का
अनुयायी बना देने का संकल्प कर लिया है । यह संकल्प अप्राकृतिक है, विघटनकारी है,
मनुष्य की प्रकृति के विरुद्ध है ।
आज के
परिदृष्य में हम यह विचार करने के लिए विवश हुये हैं कि समाज को विशेषणयुक्त
धर्मों से मुक्ति पाने पर क्यों नहीं चिंतन करना चाहिये । जिस तरह हम अपने घर में कई प्रकार के कार्यों
के लिए स्वतंत्र होते हैं ....उसी तरह सामाजिक जीवन में भी एक सीमा में रहते हुये
हमें किसी भी पथ का अनुसरण करने के लिए पूर्वाग्रहों से मुक्त होने की आवश्यकता है
। हम क्या पहनें -यह हमारी रुचि और ऋतु की मांग के अनुसार होना चाहिये, इसी तरह
हमारा सार्वजनिक और वैयक्तिक जीवन हमारी और समाज की आवश्यकता के अनुरूप होना
चाहिये । इससे मनुष्य जीवन की सामाजिक और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त
होगा ।
हम एक
ऐसे समाज की कल्पना करने में सुख का अनुभव करते हैं जिसमें लोग धर्म विशेष के
अनुयायी न होकर केवल मनुष्य धर्म के अनुयायी हों ; पूरी धरती के लोगों की केवल एक ही नागरिकता हो
; पूरे विश्व की केवल एक ही संसद हो ; पूरे विश्व का एक ही संविधान हो और मनुष्य
केवल मनुष्य हो ।
डॉक्टर भैया! काश ऐसा होता! लेकिन कट्टरता के ऐसे नमूने देखे हैं कि विश्वास नहीं होता कि ऐसा सम्भव है. फिर भी प्रार्थना और उम्मीद है!
जवाब देंहटाएंनिस्सन्देह, सलिल भइया जी ! कट्टरता के घृणित कृत्य हमने भी देखे हैं ....आज भी देख रहे हैं, तभी तो ऐसे विचार मन में आये कि पूरी वसुधा एक कुटुम्ब बन जाय । यूँ यह विचार नितांत नया नहीं अपितु सनातन सोच का परिणाम है । भारतीय ऋषियों ने सदा ही एक आदर्श स्थिति की कल्पना की और उसके क्रियान्वयन के लिए विश्व से अपेक्षा की । किसने सोचा था कि ज़र्मनी फिर एक हो जायेगा ! किसने सोचा था कि सोवियत संघ के इतने टुकड़े हो जायेंगे ! किंतु यह सब हुआ .......हम शुभ कल्पनायें करेंगे तो लोग उस पर मनन करने के लिए आगे आयेंगे .....समय लग सकता है । प्रतीक्षा करने के लिए हम अगले जन्म में भी तैयार हैं । :)
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