कुदरत का कहर : मीडिया का भेदभाव –
पूर्वाञ्चल
के चार राज्यों –असम, मेघालय, मणिपुर और अरुणांचल प्रदेशों में आयी बाढ़ और जन-धन
हानि के प्रति इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की संवेदनहीनता और सूचना के अभाव में जनता की
उपेक्षा एक दुःखद एवं निन्दनीय पहलू है । झेलम की बाढ़ से मात्र एक सप्ताह पूर्व
ब्रह्मपुत्र में आयी भीषण बाढ़ से बीस लाख से भी अधिक लोग प्रभावित हुये । ये सभी
प्रभावित लोग भारत के नागरिक थे जिनके साथ हुयी त्रासदी से लगभग पूरा भारत अनजान
रहा । निश्चित ही यह भारत के नागरिकों के प्रति पक्षपात और उनके मौलिक अधिकारों का
हनन है । पूर्वाञ्चल के राज्यों को शेष भारत से सदा ही उपेक्षा मिलती रही है जिसके
कारण वहाँ अलगाववाद की लौ कभी-कभी उठती रहती है । इस तरह हम भारत की एकता को
खण्डित करने के बीज ख़ुद ही बोते रहते हैं
। केन्द्र सरकार से अपेक्षा है कि सीमांत राज्यों के लिए विशेष प्रकोष्ठ गठित कर
उनकी समस्याओं का समाधान और विकास के कार्य प्राथमिकता के तौर पर किए जायें ।
कुछ तो फ़र्क़ पड़ेगा :
जम्मू-कश्मीर
की आपदा में जिस तरह पूरा देश उठ खड़ा हुआ है उसने एक बार फिर यह प्रमाणित कर दिया
है कि कश्मीर भारत की रग-रग में बसा हुआ है । भारतीय सेना ने जिस दिल-ओ-जान से
कश्मीर की आपदा को अपनी आपदा समझकर राहत कार्य किया उससे उनके प्रति शत्रुता का
भाव रखने वाले (चन्द) कश्मीरियों के दिल-ओ-दिमाग़ पर भी कुछ तो फ़र्क़ पड़ेगा । कुछ
सिरफिरों को छोड़ दिया जाय तो यह फर्क़ सकारात्मक ही होगा । कई बार संकट हमें
एक-दूसरे के समीप ला देता है । यह समीपता भले ही कण्डीशनल हो किंतु शुभपरिणाम दायक
होगी, ऐसी आशा है ।
कितनी
विचित्र बात है कि कश्मीर की राजनीतिक समस्या के कारण से लेकर प्राकृतिक आपदा और
फिर हृदय परिवर्तन की शुरुआत तक के सभी कारणों के मूल में भारतीय ही रहे हैं । आम
नागरिकों में पर्यावरण को प्रदूषित करने में लगी होड़, भूमाफ़ियाओं में अतिक्रमण के
प्रति बढ़ता लोभ, उद्योगपतियों द्वारा अविवेक और धूर्ततापूर्ण तरीके से उद्योगों की
स्थापना के लिये पर्यावरण पर निरंतर होती चोटों एवं पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों
की चेतावनियों की निरंतर उपेक्षा से उत्पन्न प्राकृतिक असंतुलन, राजनीतिक
इच्छाशक्तियों के अभाव और आम आदमी के मूर्खतापूर्ण कृत्यों के कारण ही हिमालय
क्षेत्र में प्राकृतिक आपदायें होती हैं । अच्छी बात केवल यह है कि हर आपदा में
पूरा देश सारे मतभेदों को भुलाकर एक साथ उठ खड़ा होता है ।
हम आशा
करते हैं कि हम सभी लोग बारम्बार मानव आमंत्रित इन प्राकृतिक आपदाओं से कुछ सीखकर
अपनी और इस धरती की सुरक्षा के लिए कोई दूरदर्शी योजना बनायेंगे ।
इतनी बुरी भी नहीं हैं खाप पंचायतें
–
हरियाणा
की खाप पंचायतें अपने पंचायती निर्णयों के लिए मीडिया की दृष्टि में आलोचना की शिकार
होती रही हैं । मुझे लगता है कि स्थानीय समस्याओं के समाधान के लिये अपने स्तर पर
अपने अलिखित किंतु व्यावहारिक कानून के द्वारा जनहित में कोई निर्णय लेना
अप्राकृतिक घटना नहीं है । मैं खाप पंचायतों के निर्णयों के गुणदोष की विवेचना
नहीं करना चाहता किंतु जनसंख्या नियंत्रण के लिए उनके द्वारा अभी हाल ही में लिया
गया निर्णय स्वागत योग्य है । जनसंख्या नियंत्रण के लिए देश में जाति और धर्म से
परे एक समान नागरिक कानून बनना ही चाहिये जिसके पालन की बाध्यता हर किसी के लिए एक
जैसी हो ।
मुझे एक
घटना याद आ रही है । एक युवक जब दो संतानों (पहली लड़की और दूसरा लड़का) का पिता बन
गया तो मैंने उसे नसबन्दी ऑप्रेशन की सलाह दी । उसका उत्तर था – “फिर मेरी चार–चार
दुकानों को कौन संभालेगा सर ?” मैंने कहा- “बधाई हो ! लेकिन आपने तो कभी बताया ही
नहीं कि आपकी तीन और भी दुकानें हैं”। युवक का अगला उत्तर चौंकाने वाला था – “
नहीं सर! अभी तो यही एक दुकान है, धीरे-धीरे करके तीन और दुकानें खोलना है अभी,
उसी के लिए चार बेटे तो होना ही चाहिये न!”
ऐसे
दूरदर्शी लोगों के लिये कठोर कानून तो होना ही चाहिये न !
संतों
की भूमिका मे हैं व्हिसलब्लोअर्स
भारतीय
समाज और प्रशासकीयतंत्र में संतों की भूमिका निभाते आ रहे व्हिसलब्लोअर्स जिस
जनसहयोग और सुरक्षा के अधिकारी हैं, दुर्भाग्य से पूरे परिदृष्य से वह पूरी तरह
लुप्त है । इंडियन इंजीनियरिंग सर्विस के प्रोजेक्ट डायरेक्टर सत्येन्द्र दुबे,
इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन के मार्केटिंग मैनेजर शणमुगम मंजूनाथ, कर्नाटक प्रशासनिक
सेवा में सहकारिता विभाग के अधिकारी एस.पी. महंत जैसे संत अधिकारियों की अपने
उत्कृष्ट आदर्शों के कारण हुयी निर्मम हत्या और अशोक खेमका एवं संजीव चतुर्वेदी
जैसे प्रतिष्ठित अधिकारियों को दी जाने वाली प्रशासकीय प्रताड़नाओं ने यह सिद्ध कर
दिया है कि भारत का प्रशासकीय तंत्र तो जैसा निरंकुश है वह तो है ही, जनता भी ऐसे
संत अधिकारियों के प्रति पूरी तरह अनुत्तरदायी है ।
निरंतर
प्रतिकूल स्थितियों में भी अपने कर्त्तव्य के प्रति सजग और निष्ठावान अधिकारियों
के समर्थन में भारतीय जनमानस को जिस तरह अपने नागरिक दायित्वों का निर्वहन करना
चाहिये उसका भारत में अभी तक वातावरण ही नहीं निर्मित हो सका है । यह एक अत्यंत
चिंतनीय विषय है जो हमारे दुर्बल समाज की वैचारिक और कार्मुक स्थिति को रेखांकित
करता है । क्या ऐसा समाज कभी उन्नति कर सकेगा ?
मुझे
लगता है कि खेमका जैसे सभी निष्ठावान अधिकारियों को एक मंच पर आकर सुगठित होकर
कार्य करने की आवश्यकता है । ईमानदारी की डगर पर चलने के ख़तरे कितने अमानवीय हैं
इसका मुझे कई बार अच्छी तरह अनुभव हो चुका है । यदि आप निष्ठावान हैं और किताबों में
पढ़े आदर्शों और उपदेशों का व्यावहारिक अनुवाद अपने कार्य में करना चाहते हैं तो
आश्चर्यजनकरूप से सारा तंत्र एकजुट होकर आपके विरुद्ध युद्ध के लिये उठ खड़ा होता
है । दुःख और निराशा में वृद्धि तब और भी हो जाती है जब शोषित वर्ग भी निर्लिप्त
भाव से मूक दर्शक बन जाता है । ये सारी
स्थितियाँ निश्चित ही एक अच्छे समाज के निर्माण के लिये प्रतिकूल हैं ।
मुझे यह
भी लगता है कि निष्ठावान और सद्चरित्र भारतीयों को वैवाहिक और पारिवारिक दायित्वों
से मुक्त रहना चाहिये जिससे दुष्ट आत्मायें उनका भावनात्मक दोहन न कर सकें और वे
पूर्णमनोयोग से सत्पथ पर चलते हुये ईश्वरीय उद्देश्यों को पूर्ण करने में अपने
पवित्र दायित्वों का निर्वहन करते रह सकें ।
अम्मा
गयीं जेल – न्यायतंत्र
की बची लाज
ज्ञात
स्रोत से अधिक आय के आर्थिक अपराध में अपराधिनी अम्मा को मात्र चार साल जेल की सजा
और मात्र एक सौ करोड़ रुपये का आर्थिक दण्ड दिया गया है । राजनीति या शासकीय सेवा
में रहते हुये अनुपातहीन सम्पत्ति का अर्जन करने वाले लोग लोकतंत्र के बहुत बड़े और
ग़ुस्ताख़ डाकू होते हैं, ऐसे लोगों की सारी अनुपातहीन सम्पत्ति राष्ट्रीय सम्पत्ति
घोषित की जानी चाहिये और मात्र दो-चार वर्ष की जेल नहीं अपितु आजीवन कारावास होना
चाहिये । लालू, राजा, चौटाला, कोड़ा, कनिमोझी, येदियुरप्पा, बाबूलाल, मदेरणा और
कलमाड़ी जैसे जेल की हवा खा चुके राष्ट्रीय अपराधियों की फ़ेहरिस्त को शून्य किये
जाने के लिये और भी कठोर कानून बनाये जाने की आवश्यकता है । बहरहाल, दुःखी पीड़ित
भारतमाता अपने पुत्रों के भविष्य के लिये कुछ आशान्वित हुयी है जिसका सभी भारतीयों
द्वारा स्वागत किया जाना चाहिये ।
मज़बूर
प्रधानमंत्रियों की विवश चिल्ल-पों
छीना-झपटी
में हमारे हाथ से निकल गये हमारे पश्चिमी हिस्से के सरदार, जो विश्व बिरादरी से
ख़ुद को प्रधानमंत्री कहलाने का हक़ भी पा चुके हैं, वैश्विक मंच मिलते ही कश्मीर को
भी छिनाने की रार करने का अवसर नहीं चूकते । ध्यान दीजिये – मैं इस मामले में
पत्रकारिता जगत में चिरप्रचलित हो चुके ज़ुमले “कश्मीर का राग” का विरोधी रहा हूँ ।
बज़ाय इस ज़ुमले के, मैं “कश्मीर छिनाने की चिल्ल-पों” कहना पसन्द करता हूँ । राग वह होता है जो
मन-मस्तिष्क को आनन्द से भर दे, कश्मीर छिनाने के लिए पाकिस्तानी प्रधानमंत्रियों
की विवश उठापटक को मैं तो चिल्ल-पों कहना ही अधिक उपयुक्त समझता हूँ ।
बहरहाल, भारतीय उपमहाद्वीप की भौगोलिक एकता में वर्तमान
समस्यायों के समाधान की जिस बात को मैं पिछले कई वर्षों से कहता आ रहा हूँ, अब
जस्टिस काटजू ने भी उसी बात को अपना स्वर देना शुरू किया है । यूँ भी पाकिस्तान के
कई कलाकारों और बांग्लादेश की लेखिका की पसन्दीदा जगह भारत ही है । ऐसे ही और भी न
जाने कितने पाकिस्तानी और बांग्लादेशी लोग होंगे जो भारत की धरती पर अपने भविष्य
को अधिक उज्ज्वल देख रहे हैं । बस, राजनीतिक स्वार्थ की सरहदों को तोड़ने भर की देर
है फिर कन्याकुमारी से कश्मीर और अरुणांचल से ईरान की सीमा तक के निवासी भारतीय
होंगे और उनके भविष्य उज्ज्वल ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.