यह
प्रश्न लाख टके का नहीं है
एक टके
का भी नहीं है
अधेले
का भी नहीं है ।
दरअसल
जिस
प्रश्न का उत्तर हर किसी को पता हो
उस
प्रश्न का भला क्या मूल्य ?
फिर भी
यह एक
प्रश्न है
जो
उत्तरों को चिढ़ाते हुये
मूछों
पर ताव देते हुये
सबको
चुनौती देते हुये
अपनी
पूरी निर्लज्जता के साथ
तन कर
खड़ा है ।
यह
प्रश्न
एक
समस्या है
जिसका
उत्तर
प्रजा
से लेकर राजा तक
सबको
पता है ।
प्रजा
के पास
साहस का
अभाव है
राजा के
पास
समाधान
की इच्छाशक्ति का अभाव है ।
समस्या
विकराल होती जा रही है
राजा
प्रश्न
को बनाये रखते हुये
समाधान का
दिखावा करता है
और इस
दिखावे के लिए
करोड़ों
रुपये स्वीकृत करता है ।
यह एक
निर्लज्ज खेल है
जो
प्रजा के प्राणों के मूल्य पर
खेला जा
रहा है ।
सुना है
यह संत
सुनता
नहीं
देखता
नहीं
बोलता
नहीं
क्योंकि
उसने
पाप को
अभय दे
दिया है ।
संदर्भ
:- इस कविता का संबन्ध एक पुजारी से भी हो सकता
है जो सुबह-शाम पूजा करता है और शेष समय डाके डालने में व्यस्त रहता है । इस कविता
का संबन्ध एक राजा से भी हो सकता है जो दिन में ग़ुनाहों के उन मुकदमों का फ़ैसला
करता है जिन्हें वह ख़ुद सारी रात करता रहा है । इस कविता का संबन्ध उस वीतरागी से
भी हो सकता है जो सन्यासी है और हर रात एक कन्या से बलात्कार करता है । इस कविता
का संबन्ध हर उस धूर्त भेड़िये से भी हो सकता है जो संत बनकर हर क्षण किसी शिकार की
तलाश में व्यस्त रहता है । इस कविता का संबन्ध लोकतंत्र की उन सभी दुष्ट
व्यवस्थाओं से भी हो सकता है जो जनता की आँखों में धूल झोंकते हुये अपने पापी
अस्तित्व को बनाये रखने में सफल होते रहते हैं ।
अर्थ :- अब बात
बस इतनी सी है कि एक नरभक्षी शेर को इंसानों की सेहत का ज़िम्मा दे दिया गया है ।
वैधानिक चेतावनी :- वैधानिक चेतावनी इतने छोटे-छोटे अक्षरों में लिखी जानी चाहिये
जिससे उसका प्रयोजन ही धूमिल हो जाय ।
कोई बात नहीं उसपर पर्दा भी है बाहर की ओर से दिखाई कुछ नहीं देता है :)
जवाब देंहटाएंवाह !!
जवाब देंहटाएंजीवन भर चेहरे दो रखते
समय देख कर रंग बदलते
सड़ा हुआ सा जीवन लेकर
औरों पर ये, छींटे कसते !
रोज दिखायी देते ऐसे रावण मन,रामायण पढ़ते,
श्वेतवसन शुक्राचार्यों को , मंदिर में बैठे देखा है !