स्वतंत्र भारत के छत्तीसगढ़ प्रांत में बस्तर के प्रवेशद्वार
पर स्थित है आयातित विचार ‘माओवाद’ से ग्रस्त एक छोटा सा जिला कांकेर। राजतांत्रिक
व्यवस्था के युग में कभी यह एक राज्य हुआ करता था जिसके अधिकांश निवासी वनवासी
समुदाय के प्रकृतिपूजक, धार्मिक, अकिंचन और संतोषी लोग थे। पराधीनता की बेड़ियों से
मुक्त होने पर स्वतंत्र हुये भारतीयगणतंत्र में देशी राज्यों और रियासतों के विलय
के साथ ही भारतीयराजतंत्र इतिहास बन गया। तंत्र बदला, तंत्र को संचालित करने वाले
यंत्र बदले, यंत्रों के चालक-संचालक बदले, सहस्त्रों वर्ष पुरानी मान्यतायें बदलीं
और बदल गये शोषण के तरीके । कांकेर के महाराजा आदित्य प्रताप देव तो यहाँ तक कहते
हैं कि पराधीन भारत और स्वाधीन भारत में केवल चोले का अंतर है । पराधीन भारत के
लिए उपयुक्त कानूनों से ही स्वाधीन भारत भी शासित हो रहा है ।
मनुष्य पर मनुष्य के शासन-अनुशासन की प्राचीन परम्परा
समाप्त हो चुकी है किन्तु उसके अवशेष आज भी उन दिनों की स्मृति दिलाते हैं । इन
अवशेषों में कुछ शब्द हैं जो अब प्रभावहीन हो चुके हैं, कुछ उपाधियाँ हैं जो
अस्तित्वहीन हो चुकी हैं, कुछ खण्डहर हो चुके और कुछ खण्डहर होने से बच गये भवन
हैं जो या तो भारत शासन की सम्पत्ति हैं या फिर शब्दों में क़ैद हो चुके राजाओं की
। दुर्गों और प्रासादों को देखने आने वाले दर्शकों को स्थानीय गाइड बड़े ही
गौरवपूर्ण तरीके से वहाँ की गाथायें सुनाते हैं । गाथायें ऐसी कि उनके सामने
वर्तमान लोकतंत्र धूमिल हो उठता है ।
महाराजा, महारानी, राजमाता, राजकुमार और राजकुमारी जैसे
शब्द अब प्रभावहीन हो चुके हैं । अपना गौरवपूर्ण वैभव खो चुके दुर्ग और प्रासाद राजनीतिक
क्षितिज से लुप्त हो चुके हैं । भारत के लिये यह एक विराट परिवर्तन था । क्यों हुआ यह परिवर्तन, कैसे हुआ और होने के
बाद क्या हुआ ?
ज़ॉली बाबा (मझले राजकुमार) के आमंत्रण पर दशहरे के दिन कांकेर
राजमहल की युगों पुरानी परम्परा का निर्वहन होते देखने का अवसर मिला तो मन में
उमड़ते-घुमड़ते बहुत सारे प्रश्न उत्तर की तलाश में यहाँ-वहाँ भटकते रहे और मैं उन
परम्पराओं में राजतंत्र की विशेषताओं को खोजता रहा ।
मेरे राजमहल पहुँचने से पहले ही वहाँ लोगों की भीड़ लग चुकी
है, फिर भी लोगों के आने का क्रम थम नहीं रहा है । इन आगंतुकों में दूर गाँवों से
आने वाले ग्रामीण हैं, नगर के सम्भ्रांत लोग हैं, उत्सुक पर्यटक हैं, विभिन्न दलों
के वर्तमान और पूर्व विधायक हैं, स्थानीय राजनेता हैं, जंगलवार कॉलेज के
ब्रिगेडियर हैं, पत्रकार और शोधार्थी हैं । इनमें से अधिकांश लोग अनामंत्रित हैं ।
ये वे लोग हैं जो दशहरा की परम्परा निभाने हर साल स्वस्फूर्त चेतना से आते हैं ।
यह चेतनभीड़ उस निश्चेतनभीड़ से पूरी तरह अलग है जो राजनेताओं के भाषण सुनने के लिये
सभास्थल पर बरगला कर या मूल्य देकर लायी जाती है । भीड़ के चेहरों और उत्साह ने मुझे
यह सोचने पर विवश कर दिया है कि एक आम आदमी के मन में आज भी अपनी प्राचीन
परम्पराओं और शासन प्रणालियों के प्रति आदरपूर्ण भाव है । क्यों है यह आदरपूर्ण
भाव ? क्यों है यह आकर्षण ? वही भीड़ कभी निश्चेतन तो कभी चेतन कैसे हो जाती है ?
इन प्रश्नों के उत्तर खोजे जाने चाहिये । वर्तमान लोकतंत्र
के सही मूल्यांकन के लिये जिस आधारभूमि की आवश्यकता है वह इन प्रश्नों के उत्तरों
में छिपी हुयी है । आज दशहरा पर्व है, लोगों की भीड़ है, कांकेर का महल है,
राजपरिवार है और हम हैं ....अपने प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए। इस खोज में आपकी
सहभागिता अपेक्षित है । तो चलिये, मिलते हैं राजमहल परिसर के चप्पे-चप्पे से
जिसमें छिपे हुये हैं न जाने कितने प्रश्नों के उत्तर ।
दशहरे के दिन सुबह से ही महल में चारो ओर चेतनभीड़ है,
राजपरिवार के सदस्य भी उस चेतनभीड़ के एक भाग बन चुके हैं । किसी स्तर पर कहीं कोई
विभेद नहीं है, कोई वर्ग नहीं है, कोई विशिष्टता नहीं है और इसीलिए सुरक्षा की कोई
व्यवस्था भी नहीं है । अपनों के बीच सुरक्षा की क्या आवश्यकता !
जॉली बाबा ने मुझे बताया कि प्रति वर्ष दशहरे के दिन एक वृद्धास्त्री महल में आया करती थी और अपनी श्रद्धा के पुष्प चढ़ा कर वापस चली जाती थी । उसका एक हाथ नहीं था । कोई नहीं जानता वह वृद्धा कौन थी । अचानक दो वर्ष पहले उस वृद्धास्त्री ने महल आना छोड़ दिया । बाद में पता चला कि वह परलोक सिधार गयी । यह भी पता चला कि यह वही वृद्धास्त्री थी जिसका एक हाथ उसकी किशोरावस्था में नरभक्षी बाघिन ने खा लिया था । इससे पहले वह सत्रह और लोगों को अपना शिकार बना चुकी थी, वह किशोरी उसकी अठारहवीं और अंतिम शिकार थी । बाघिन आज भी कांकेर के राजमहल में बड़ी शान से खड़ी है ।
अपने कन्धों पर आंगादेव को लिये सुदूर गाँवों से आने वाले
ग्रामीणों का स्वागत करते राजकुमारों को देखते समय मैं सोच रहा हूँ कि इन्हें किसी
नक्सली या माओवादी से डर क्यों नहीं लगता ? लोगों में परस्पर असुरक्षा की भावना कब
और क्यों विकसित होती है ? हमारे वर्तमान मंत्रियों को सुरक्षा की इतनी आवश्यकता
क्यों है ? जनता के सेवक को जनता से इतना डर क्यों है ? यह अविश्वास क्यों विकसित
हो गया ? असुरक्षा और अविश्वास को पोषित करने वाली यह कैसी लोकतांत्रिक व्यवस्था
है ?
महल के मुख्यकक्ष के प्रवेशद्वार पर खड़ी भीड़ से घिरे मझले
राजकुमार सूर्यप्रताप सिंह देव और छोटे राजकुमार अश्विनी प्रताप सिंह देव
आंगादेवों का स्वागत कर रहे हैं । एक-एक कर आंगादेव आते जा रहे हैं और दोनो
राजकुमार उनके पाँव पखारते जा रहे हैं । आंगादेव के भक्त उन्हें लेकर मुख्य कक्ष में एक
द्वार से अन्दर प्रवेश कर दूसरे द्वार से बाहर निकल रहे हैं । इस बीच आंगादेव कक्ष
की कुछ चीजों को स्पर्श भी करते हैं । उनके आगे-आगे चल रहे भक्त झूम रहे हैं, उनके
ऊपर दैवीशक्ति का निपात हो रहा है ।
हर गाँव के एक आंगादेव होते हैं, कुल बावन गाँवों के
आंगादेवों का आगमन हुआ है । कौन हैं ये आंगादेव ?
कांकेर से दक्षिण-पश्चिम की ओर महाराष्ट्र के गढ़चिरौली को
जाने वाले मार्ग पर लगभग पच्चीस कोस की दूरी पर एक नदी है जिसकी रेत में स्वर्ण कण
पाये जाते हैं । स्थानीय लोग न जाने कब से रेत में से इन स्वर्णकणों को निकालते आ
रहे हैं । यह आज से कई युग पहले की बात है जब एक सुन्दर वनवासी स्त्री उस नदी की
रेत में से स्वर्णकण बीनने आया करती थी । श्रम से थक कर वह सुन्दरी नदी में स्नान करती
और फिर अपने घर चली जाती । एक दिन दो राजकुमारों ने उसे स्नान करते देख लिया । वे
उसके सौन्दर्य पर मोहित हो गये । फिर वे रोज वहाँ आते और छिपकर युवती को स्नान
करते देखा करते । युवती के पति को जब इस बात की भनक लगी तो उसने उन दोनो
राजकुमारों की हत्या कर दी । अपनी हत्या के बाद दोनो राजकुमार देव बन गये । उनकी
आत्मा लकड़ी में प्रविष्ट हो गयी, इन्हें ही आंगादेव कहा जाने लगा। ये प्रमुख
आंगादेव थे । बाद में समाज का कोई भी विशिष्ट व्यक्ति किसी घटना विशेष में यदि
अकाल मृत्यु को प्राप्त होता तो आंगादेव बन जाता । इस तरह आंगादेवों की संख्या
बढ़ने लगी । आज हर गाँव के अपने एक पृथक आंगादेव हैं । समाज की विशिष्ट स्त्रियाँ
भी अकालमृत्यु होने पर देवी बन कर समाज का मार्गदर्शन करती हैं।
संध्या समय महाराज आदित्य प्रताप देव जी आंगादेव के
दर्शन पर बहुत अच्छी जानकारी देने वाले हैं । लेकिन अभी तो हम आपको उस ओर ले जाना
चाहते हैं जहाँ हिज़ हाइनेस महाराजा आदित्य प्रताप देव जी अपने अनुचरों के साथ जा
रहे हैं ।
आंगादेवों का स्वागत का कार्य हो चुका है और अब उन्हें पूजन
के लिये एक मंचनुमा अस्थायी मंडपम में ले जाया जा रहा है जहाँ महाराज अपने पूरे
परिवार के साथ एक-एक कर सभी आंगादेवों के पास जाकर उनकी पूजा अर्चना करेंगे । महाराज
के पीछे चल रही सेविकाओं के हाथों में पीतल की परातें हैं जिनमें पत्ते के दोनों
में चावल आदि पूजन की सामग्री है । दो सेवक बोरों में नारियल लेकर चल रहे हैं ।
महाराज प्रत्येक आंगादेव के पास पहुँचकर पूजन के पश्चात नारियल अर्पित करते जा रहे
हैं ।
बावन आंगादेवों के पूजन की लम्बी प्रक्रिया के बाद एक अन्य
मंडपम में महाराज अपने परिवार के साथ बैठ कर आंगादेवों को खेलते हुये देखने वाले हैं
। लोगों का विश्वास है कि देव शक्तियाँ अपने भक्तों के शरीर में प्रविष्ट होकर
उन्हें अपने नियंत्रण में ले लेती हैं । देवशक्ति आवेशित व्यक्ति के शरीर में
विचित्र प्रकार के कम्पन होने लगते हैं । अपने कन्धों पर लकड़ी के भारी भरकम आंगा
को लिए लोग नाचते और भागते रहते हैं । उन्हें नियंत्रित करना सरल नहीं होता ।
प्राचीन परम्परा के अनुसार राजा और प्रजा के बीच यह एक ऐसा अवसर होता है जब वे
एक-दूसरे के समीप आते हैं और अपने सम्बन्धों को सरल एवं प्रगाढ़ बनाने का प्रयास
करते हैं । राजा अपनी प्रजा की मान्यताओं और आस्था को सम्मानित करते हैं और लोक
मान्यताओं के प्रति अपना विश्वास प्रकट करते हैं ।
दर्शक दीर्घा की तरह प्रयुक्त होने वाले इस अस्थायी मंडपम
में महाराज के पहुँचने से पहले ही कई लोगों ने आसनों पर अपना आधिपत्य कर लिया है ।
रिक्त पड़े तीन आसनों पर महाराज, राजमाता और महारानी को स्थान मिल गया है किंतु
दोनो राजकुमारों को खड़े रहना पड़ेगा । उनके लिए रखे गये आसनों पर जनता पूरे अधिकार
के साथ विराजमान हो चुकी है । वर्गभेद और विशिष्टता के अहं से दूर यह सरलता क्या
हमारे राजनेताओं के लिये अनुकरणीय नहीं है ?
देव आवेशित भक्तों के शारीरिक कम्पन और विचित्र क्रियाकलापों
के वैज्ञानिक पक्ष पर चिंतन का यह उचित अवसर नहीं है । इस विषय पर फिर कभी चर्चा
होगी अभी तो आप नर्तक दलों के भावनृत्य का आनन्द लीजिये ।
नर्तक दलों को देखकर मैंने सोचा था कि दशहरा के दिन
राम-रावण विषयक किसी प्रसंग का भावनृत्य देखने को मिलेगा किंतु मुझे निराश होना
पड़ा है । नृत्य प्रारम्भ हो चुका है और नर्तकों को राम-रावण से कोई लेना-देना नहीं
है । मांदरी, खड़खड़ी, वंशी, नगाड़ी, तुरही, मंजीरा, घुंघरू आदि परम्परागत
वाद्ययंत्रों के साथ प्रस्तुत की जाने वाली नृत्य नाटिकाओं में वनवासी जीवन की
झलकियों का सहज प्रस्तुतीकरण किया गया है । इसमें मोर का नृत्य है, जंगल में शिकार
किये जाने की नृत्यनाटिका है और है दैनिक जीवन में विभिन्न अवसरों पर किये जाने
वाले नृत्यों की झलक ।
दोनो राजकुमार सारी व्यवस्था स्वयं ही देख रहे हैं । भीड़
में हम प्रायः दूर हो जा रहे हैं इसलिये बीच-बीच में दोनो राजकुमार अपने अतिथियों
से फ़ोन पर सम्पर्क बनाये हुये हैं । यह उनकी सरलता और उदारता का प्रमाण है ।
महल के पीछे खेतों की ओर सभी के लिए प्रसादम की व्यवस्था की
गयी है, हमने उधर जाने का प्रयास किया किंतु भीड़ देखकर वापस आना पड़ा है । वाह ! वे
रहे ज़ॉली बाबा ! चलिए अब हमारा काम बन जायेगा । खेतों की ओर जाने के लिए वे हमें
महल के अन्दर ले जा रहे हैं । हम कई कक्षों, गलियारों और आँगनों से होते हुये बाहर
निकल रहे हैं । ज़ॉली बाबा का अनुसरण करते हुये हमें लगा रहा है जैसे हम
चन्द्रकांता संतति के किसी रहस्यमय दुर्ग या महल में हैं । हमें अधिक चलना नहीं
पड़ा, ज़ॉली बाबा ने हमें समीप के रास्ते से खेतों के पास तक पहुँचा दिया है ।
प्रसादम ग्रहण करने के लिये दो मंडपम बनाये गये हैं । मैंगो
पीपुल हों या बनाना पीपुल आज तो सभी को एक साथ प्रसादम ग्रहण करना पड़ेगा । हमारे
साथ हैं रायपुर से आये क्रॉनिकल के पत्रकार डी.श्याम कुमार, स्थानीय काष्ठकलाकार
अजय मण्डावी, आचार्य नवनीत शर्मा, स्थानीय पत्रकार योगेश और कुछ अनचीन्हे चेहरे ।
हम सभी भूमि पर एक पंगत में बैठ गये हैं । प्रसादम में परोसा जा रहा है आलू, गोभी,
बीन, बैंगन, छोले ....की सब्ज़ी, दाल, देशी चावल का भात और आमिषों के लिए
......।
स्वादिष्ट प्रसादम ग्रहण करने बाद हमें वापस महल जाना है ।
पूजा के समय भीड़ से घिरे महाराज ने जाने से पहले मिलने के लिए कहा था ।
और अब हम महल की ओर जा रहे हैं, हमारे विश्राम के लिए वहीं कहीं
व्यवस्था की गयी है ।
विश्राम हो चुका है और अब अजय मण्डावी ने आकर बड़े महाराज के
बुलावे की सूचना दी है इसलिए हम अपने दल-बल सहित महाराज से मिलने जा रहे हैं ।
बाहर बरामदे में हमें अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी । जल्दी ही महाराज आ गये, हम लोग वहाँ पड़े आसनों पर बैठ गये हैं कुछ
और लोग भी हमें घेर कर बैठ गये हैं। विषय है – “राजशाही-लोकशाही” ।
इस वार्ता में उभर कर आये बिन्दु विचारणीय हैं । महाराज आदित्य
प्रताप जी ने कुछ ऐसे रहस्यों को अनावृत किया है जिसके पश्चात हम भारतीय इतिहास के
अलिखित तथ्यों पर गर्व करने के लिये बाध्य हुये हैं ।
महाराज आदित्य प्रताप देव जी के अनुसार भारतीय उपमहाद्वीप
में राजतंत्रात्मक व्यवस्था के दो स्वरूप प्रचलित थे एक तो वह व्यवस्था जो विकसित,
धनाड्य और संसाधनपूर्ण बड़े राज्यों में प्रचलित थी और दूसरी वह जो वनांचलों में
प्रचलित थी । वनांचलों के राजा अपनी प्रजा की ही तरह संतोषी और सरल हुआ करते थे ।
कई राज्यों में कराधान की प्रणाली शिथिल हुआ करती थी जिससे प्रजा सुखी थी । राजा
और प्रजा के बीच संबन्ध प्रगाढ़ हुआ करते थे और राजा उनके प्रति उत्तरदायी हुआ करते
थे । आन्ध्रप्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के सीमावर्ती वनांचलों के कई
राज्यों में राजस्व सर्वेक्षणों को अधिक महत्व नहीं दिया जाता था । मुस्लिम
पराधीनता के युग में भी बस्तर का वनांचल देशी राजाओं के ही आधिपत्य में बना रहा ।
सन 1890 तक वनवासी क्षेत्रों
में कराधान प्रणाली मानवीय संवेदनाओं पर आधारित थी । राजा और प्रजा के मध्य
सहदृयतापूर्ण सम्बन्ध थे । राजा अपनी वनवासी प्रजा का भगवान हुआ करता था । यह
मान्यता वनवासी जनमानस में गहरायी तक जम चुकी थी । इस मान्यता के कारण ही जनता का
अपने राजा के प्रति समर्पण भाव एकता और निष्ठा बनाये रख सकने में समर्थ हुआ । अरबों
और मराठों के सहयोग से अंग्रेज सरकार ने जब बस्तर में प्रवेश किया तो उन्होंने
राज्य व्यवस्था, शासन और कराधान की देशी पद्धति को समाप्त कर ब्रितानिया सरकार के लिये
हितकारी नयी और कठोर व्यवस्था लागू करने के लिये देशी राजाओं पर दबाव डाला । यह
लगभग उसी तरह था जिस तरह आज टी.वी. चैनल्स के माध्यम से भारतीय संस्कृति पर
अपसंस्कृति का आक्रमण किया जा रहा है । राजा और प्रजा के मध्य स्थापित रही सहृदयता
और मानवीय सम्बन्धों की परम्परा को समाप्त करने के कुचक्र किये गये जिससे उनके
मध्य दूरियाँ बढ़ने लगीं । स्थानीय राजाओं द्वारा इस दूरी को पाटने के लिये पर्वों-त्योहारों
की परम्परा के नाम पर अपनी प्रजा से निकट सम्बन्ध स्थापित करने के प्रयास किये
जाते रहे । अंग्रेजों ने अपनी इसी नीति के अनुरूप बस्तर के राजकुमार प्रवीण भंज
देव की शिक्षा-दीक्षा के लिए महल में एक महिला गवर्नेस रखी और उनकी जीवन शैली को
पूरी तरह पाश्चात्य परम्परा में ढालने का कुचक्र किया । बाद में अंग्रेजों ने
उन्हें सनकी, चिड़चिड़ा और पागल तक घोषित कर दिया । इस सबके पीछे उनका उद्देश्य था
बस्तर राज्य को सीधे अपने नियंत्रण में लेना ।
अंग्रेजों ने बस्तर के देशी राजाओं के सामने राजा, राज्य
व्यवस्था, शासन और कराधान की शोषणमूलक नयी परिभाषायें प्रस्तुत कीं । स्वाधीन भारत
में अंग्रेजों की बनायी ब्रिटिश हित मूलक नीतियाँ अपना ली गयीं । पराधीन भारत में
ब्रिटेन के लिये राजस्व की वसूली करने वाली निरंकुश कलेक्टरी व्यवस्था ही स्वाधीन
भारत की प्रशासकीय व्यवस्था बन गयी । ब्रिटिश सरकार की तर्ज़ पर राज्य और
केन्द्र सरकारें अस्तित्व में आयीं । नेतागण स्वयं को तो जनता के सेवक के रूप में
प्रचारित करते हैं किंतु सेवकाई के इस तंत्र को ‘सरकार’ कहते हैं । ‘भारत सरकार’
के स्थान पर ‘भारत सेवक’ कब अपने अस्तित्व में आयेगा ? जनता के ये सेवक इतने महत्वपूर्ण कैसे हो जाते हैं कि सेवितों की सेवा करते-करते प्रभु बन जाते हैं ? क्या यह "सेवक" शब्द निर्धन और शोषित जनता के साथ क्रूर परिहास नहीं है ?
‘सरकार’ शब्द मालिक और
ग़ुलाम के सम्बन्धों को ध्वनित करता है । ‘सरकार’ शब्द ही अहंभाव से ग्रस्त है यह
सुशासन का नहीं शोषण का प्रतीक है । प्राचीन भारत में राजा और प्रजा के मध्य
दूरियाँ इतनी नहीं हुआ करती थीं जितनी आज के मंत्रियों और जनता के बीच हैं । वज्जीसंघ
जैसे गणतंत्रात्मक देश इसके ज्वलंत उदाहरण हैं ।
स्वतंत्र भारत का आज भी कोई अपना स्वदेशी तंत्र नहीं है, स्वदेशी विधि नहीं है, स्वदेशी शिक्षा प्रणाली नहीं है, जीवन की स्वदेशी शैली और परम्परायें नहीं हैं ? कुछ भी स्वदेशी न होने पर भी हम स्वयं को स्वाधीन कहते हैं, यह कैसा मज़ाक है ?
नहीं ....हमें भारतीय मूल्यों और मान्यताओं के अनुरूप एक ऐसी सुशासन व्यवस्था निर्मित करनी होगी जो पूरी तरह भारतीय हो और भारतीयों के गौरव को बढ़ाने वाली हो ।
हमारी वार्ता में आंगादेव का दर्शन भी है किंतु इस विषय पर
पृथक से लिखना उचित होगा । इस लेख के उपसंहार में बस इतना ही कहना चाहूँगा, जैसा
कि मैं पहले भी कहता रहा हूँ कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था कबीलातंत्र की ओर बढ़ती
जा रही है । भारत का राजनैतिक और सामाजिक पतन अभी और होना शेष है । किंतु समय
अच्छा भी आयेगा यह भी निश्चित है ।
और अंतिम बात यह कि यद्यपि राजतंत्र के समय प्रचलित
राजा-रानी जैसे शब्द आज अपना अस्तित्व खो चुके हैं तथापि भारत की गौरवशाली परम्परा
में इनके महत्व को आज तक टक्कर नहीं दी जा सकी है इसलिए आम भारतीयों की तरह मुझे
भी ये शब्द आकर्षित करते हैं । आख़िर अंग़्रेज़ों ने अभी तक अपनी प्राचीन परम्पराओं
को संरक्षित करके रखा है । ब्रिटेन की राजशाही कभी ख़त्म हो सकेगी क्या ?
राजमहल के मुख्य कक्ष के बाहर आंगादेवों के स्वागत की प्रतीक्षा में
मझले राजकुमार सूर्य प्रताप देव और छोटे राजकुमार अश्विनी प्रताप देव।
आंगादेवों की पूजा के लिये मण्डपम की ओर जाते हुए कांकेर के महाराजा आदित्य प्रताप देव ।
आंगादेव का पूजन करते हुये महाराजा आदित्य प्रताप देव । पीछे हैं महारानी साहिबा ।
कन्धे पर बन्दूक थामे क्रॉनिकल अख़बार के पत्रकार डी. श्याम कुमार, बीच में हैं ब्रिगेडियर और भगवा कुर्ता पहने खड़े हैं मझले राजकुमार सूर्यप्रताप देव (ज़ॉली बाबा)
खड़े ही रहना पड़ा छोटे राजकुमार को ।
प्रसादम की तैयारी करती वनवासी बालायें ।
प्रसादम ग्रहण करने के लिये पंगत में बैठे लोग ।
आम लोगों के बीच चर्चा करते हुये महाराजा आदित्य प्रताप देव ।