बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

रिलीज़न और स्पिरिचुअलिज़्म


लैटिन भाषा के रेलिगर शब्द से निष्पन्न हुआ रिलीज़न आज अपना मूल अर्थ खो चुका है । तब पश्चिमी देशों में रिलीज़न जीवनशैली, मूल्यों और आचरण के लिए एक बन्धनकारी तत्व के रूप में प्रचलित हुआ करता था । किसी समुदाय विशेष को एकजुट बनाये रखने, सामाजिक व्यवस्था बनाये रखने और अपने समुदाय की एक पृथक पहचान निर्मित करने के लिए बनाये गये वैचारिक तंत्र ने रिलीज़न की अवधारण को जन्म दिया । यह बहुत कुछ भारतीयों के “धर्म” की अवधारणा से मिलता है । “धर्म” रिलीज़न की अपेक्षा अधिक व्यापक और वैश्विक है, यह समुदाय विशेष के लिए नहीं प्रत्युत प्राणिमात्र के सुखी और शांत जीवन के लिए है । इनमें वही अंतर है जो स्पिरिचुअलिज़्म और “आध्यात्म” में है । पश्चिमी स्पिरिचुअलिज़्म अलौकिक शक्तियों के चिंतन और मनुष्य जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों तक सीमित है जबकि भारतीयों का “आध्यात्म” ब्रह्माण्ड की सूक्ष्मतम शक्तियों और स्थूलतम पिण्डों के पारस्परिक वैज्ञानिक सम्बन्धों के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त करता है ।
धर्म के विपरीत रिलीज़न एक पृथक्त्वकारी तत्व है ।  यह किसी समुदाय विशेष की पृथक पहचान और उसके हितों तक सीमित है । धर्म उस आचरण की संस्तुति करता है जो किसी मानव समुदाय विशेष के संकुचित हितों को नहीं प्रत्युत प्रकृति और प्राणिमात्र के बीच सहज, साहचर्यपूर्ण और स्वस्थ सम्बन्ध स्थापित कर सकने में समर्थ हो । धर्म में तरलता है, आग्रह है, उदारता है । रिलीज़न में कठोरता है, दुराग्रह है, संकीर्णता है ।
अब प्रबुद्ध विश्व को यह तय करना होगा कि उसे विश्वबन्धुत्व और शांति की स्थापना करना है या छद्म समुदायबन्धुत्व और आतंक की स्थापना करना है । भारत, चीन, जापान, रूस और अमेरिका जैसे देशों की भूमिकायें यह सुनिश्चित करेंगी कि कलियुग का अंत किस तरह होगा ।    

जिस तरह चीन घुसपैठ की दुष्टता से ग्रस्त है उसी तरह हम भी शब्दों के अतिक्रमण की दुष्टता से ग्रस्त हैं । हमने धर्म को अचेत कर उसके अन्दर रिलीजन को जाग्रत कर दिया है । इसी कारण अब हमने रिलीज़न को ही धर्म कहना शुरू कर दिया है ।
कुछ पीढ़ी पहले हमने अपना धर्म परिवर्तन कर लिया, कारण जो भी रहा हो । धर्म परिवर्तन के साथ ही हमने अपने पूर्वजों का विरोध और अपमान करना शुरू कर दिया और सम्मान करने लगे उन विदेशियों का जिनसे हमारा दूर-दूर तक कभी कोई अच्छा नाता नहीं रहा बल्कि वे हमारे प्रति क्रूर व्यवहार करते रहे । हमने अपने उच्च आदर्श त्याग दिए और अपना लिये वे आचरण जो निन्दनीय हैं, मानवता के लिए अभिषाप हैं । हमने अपने पारम्परिक विचार त्याग दिए और स्वीकार कर लिए वे विचार जो भारतीय समाज के लिए अनुकूल नहीं हैं । हमने भोजन का पारम्परिक तरीका त्याग कर तामसी भोजन करना शुरू कर दिया । हमने अपने पर्व-त्योहार त्याग दिये और अपना लिए वे पर्व त्योहार जो हमारे लिए कभी अनुकूल नहीं रहे । हमने अपने पारम्परिक वस्त्र त्याग दिये और अपना लिए वे वस्त्र जो हमारे लिए नहीं विदेशी धरती के लोगों के लिए उपयुक्त हैं । धर्मांतरित होते ही हमारी प्रतिबद्धतायें बदल गयीं, हमारी निष्ठा बदल गयी, हमारे चिंतन की दिशा बदल गयी, हमारे आराध्य बदल गये, हमारे तीर्थस्थल बदल गये, हमारे मित्र बदल गये, हमारे शत्रु बदल गये, हमारे नारे बदल गये , हमारी भाषा बदल गयी, हमारे संस्कार बदल गये, हम पूरी तरह बदल गये ....फिर भी हमारा ये ज़िद भरा दावा है कि हम भारत के सच्चे नागरिक हैं ।


अभी मैं कमलदीप भुई और दिनेश भूगरा की पुस्तक CULTURE AND MENTAL HEALTH” पढ़ रहा हूँ । मानसिक स्वास्थ्य और संस्कृति के पारस्परिक सम्बन्धों को फिर से परिभाषित और रेखांकित करने का प्रयास किया जा रहा है । भारतीय परम्परा के अनुसार दोनो ही अन्योन्याश्रित हैं । मानसिक स्थिति अच्छी न हो तो संस्कृति कुन्द होती है । संस्कार के लिए अच्छी मानसिक स्थिति की आवश्यकता है । दैनिक आचरण में निरंतर परिमार्जन ही तो संस्कार है । संस्कार एक गतिमान तत्व है जो निरंतर श्रेष्ठता की ओर गमन करता है । जहाँ गमन न हो तो वहाँ रूढ़ता होगी । जहाँ रूढ़ता होगी वहाँ दुराग्रह और संकीर्णता होगी । अच्छे संस्कार न केवल व्यक्तिगत स्वास्थ्य के लिये अपितु सामाजिक स्वास्थ्य के लिये भी अपरिहार्य हैं ।  सामाजिक स्वास्थ्य पर ही किसी राष्ट्र  का स्वास्थ्य और अस्तित्व निर्भर करता है । क्या किसी देश की संस्कृति में एकरूपता के महत्व की अवहेलना करना उचित है ? 

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