बुधवार, 6 मई 2015

अक्षर


आकाश में तैरती ध्वनि
ठहर गयी उतर कर
भोजपत्र पर,  
लोगों ने देखा
जहाँ ठहरी थीं ध्वनियाँ
वहाँ उभर आयी थीं 
कुछ रेखाकृतियाँ ।
 रेखाकृतियों का नामकरण हुआ
“अक्षर” ।
अक्षर की देह पाकर
ध्वनि मुदित हुयी
उसे अदृष्य होने से मुक्ति मिली ।
अक्षरों ने नृत्योत्सव मनाया
और तभी
प्रकट होने लगे
“शब्द”
देव
हर्षित हुये ।

“वागर्थाविव संपृक्तौ ....” ने धारण किया
नया चोला
“शब्दार्थाविव संपृक्तौ ....”
....................
जो होते जा रहे हैं अब
“शब्दार्थाविव असंपृक्तौ ....”
धूमिल होते जा रहे हैं
शब्दों के अर्थ
शब्द
अब विकृतचित्र बनाने लगे हैं ।
लुप्त हो गयी है माहेश्वरलिपि
लुप्त हो गयी है देववाणी । 
आकाश संज्ञान ले रहा है
उसने अभी-अभी बात की है
कृष्णविवर से
महेश्वर
प्रस्तुत होने ही वाले हैं
तांडव नृत्य के लिये ।

भोजपत्र 

भोज वृक्ष 


2 टिप्‍पणियां:

  1. 'धूमिल होते जा रहे हैं
    शब्दों के अर्थ
    शब्द
    अब विकृतचित्र बनाने लगे हैं ।
    लुप्त हो गयी है माहेश्वरलिपि
    लुप्त हो गयी है देववाणी । '
    - वास्तविकता यही है ,अर्थहीनता और विकृतियाँ जीवन की लय भंग कर तांडव का कारण बन जाती हैं.संस्कृत भाषा विशुद्ध रूप से ध्वन्यात्मक है .ध्वनि-सूत्रों का प्रणयन नटराज शिव के डमरू-नाद से (नौ और पांच अर्थात्‌ चौदह बार बजाया) १४ ध्वनि सूत्र निकले, जो माहेश्वर सूत्र कहलाये.
    दक्षिण में लेखन विद्या 'इन्द्र वायव्य व्याकरण' नाम से जानी जाती है . वाणी को आकार देने के लिये इन्द्र ने वायु देव का सहयोग माँगा,तब वह अक्षरों में साकार होने लगी .ब्रह्मांडीय ध्वनियों के अनुसरण पर रचित होने के कारण यह लिपि ,उस (देव) वाणी का दृष्यात्मक रूप है .

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    उत्तर
    1. जी प्रणाम ! संयोग और वियोग का कारण वायु महाभूत है । शब्द का गुण निराकार आकाश है । वाणी को आकार देने के लिये वायु का होना अनिवार्य है । इंद्र हमारी sense faculties हैं । कितनी वैज्ञानिक है हमारे महर्षियों की विवेचना ।

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.