यह पर्वत ऊँचा है
हिमालय से भी अधिक
जिस पर जमी हुयी है
बर्फ़
बेशुमार दर्द की ।
सवाल उठते रहे हैं
कि क्यों नहीं पिघलती
यह बर्फ़
जो जमी है न जाने कब
से ।
लोग ज़वाब चाहते रहे
हैं
लेकिन
हमेशा की तरह रहकर ख़ामोश
क्रूरता से मुस्कराते
भर रहते हैं
ज़वाब देने वाले ।
उन्हें कोई फ़र्क नहीं
पड़ता
इस बात से
कि एक बार फिर मर गयी
है
एक माँ
एक और
नयी अरुणा शानबाग बनकर
पैदा होने के लिये ।
मैथिली शरण ने यूँ ही
नहीं कहा था
“अबला जीवन
हाय तुम्हारी यही
कहानी
आँचल में है दूध
और आँखों में पानी”।
आज
टिमटिमाकर बुझते-बुझते
चली गयी है वह
सदियों पुराने सवाल
छोड़कर
और मार कर एक तमाचा
सभ्यता के क्रूर
मुखौटे पर ।
दर्द क यह पर्वत कभी नहीं पिघलेगा कौशल जी.....संवेदनाएँ जो शून्य हो गईं हैं......वो ताप ही कहाँ है जो पिघला सके इसे....
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!शुभकामनायें.
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 21-05-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1982 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
सवाल जस का तस खड़ा है -कौन हल करेगा ?
जवाब देंहटाएंआँचल में दूध के साथ आँखों से बहती कातरता नहीं ,प्रखर दृष्टि की चुनौती के दर्शन करने लगेगा जब कवि , स्थिति तब बदलेगी!