वे
दान पाकर
ग़ुस्ताख़ होते हैं
हम
दान देकर
बेवक़ूफ़ होते हैं ।
गुण्डे
न जाने क्यों माननीय
होते हैं ।
माननीय
इतने अमाननीय होते हैं
कि देश का लोकतंत्र
सचमुच
बहुत भयभीत रहता है ।
कई माननीयों का
अमाननीय चरित्र हमें हर पल चिढ़ाता है और यह घोषणा करता रहता है कि देखो हमने
तुम्हें फिर उल्लू बना दिया और तुम इतने दुर्बल हो कि हमारा कुछ नहीं बिगाड़ नहीं
सकते ।
हम उन्हें अपना “मत”
दान करते हैं, वे हमारे “दान” का दुरुपयोग करते हैं । हमारे दान से सम्पन्न होकर वे
माननीय बन जाते हैं । माननीय बन कर वे न जाने कितने अमाननीय और अमानवीय कार्य करते
हैं । वे घोटाले करते हैं, वे हत्यायें करवाते हैं, वे यौन शोषण करते हैं, वे
वर्गभेद उत्पन्न करते हैं, वे समाज को तोड़ते हैं, वे देश को लूटते हैं और पूरी
दुनिया के सामने हमारा सिर नीचा करते हैं । दोषी कौन है ? वे या हम ?
जब मैं माननीयों की
अमाननीय भाषा सुनता हूँ, जब एक माननीय दूसरे माननीय के लिये अभद्र, अमर्यादित और
हिंसक शब्दों का प्रयोग सार्वजनिकरूप से करता है तो एक सहज प्रश्न यह उठता है कि
इन माननीयों में वह कौन सा गुण है जिसके कारण वे हमारे लिये माननीय हैं ?
जब मैं एक माननीय को
दूसरे माननीय के लिये सार्वजनिकरूप से अमर्यादितभाषा में वक्तव्य देते हुये सुनता
हूँ तो मुझे लोकतंत्र के खोखलेपन का तीव्र अनुभव होता है । जब मैं एक माननीय को
अपने राजनैतिक प्रतिद्वन्दी के लिये “छाती पर चढ़ जाऊँगा”, “नाक में रस्सी डालकर
नाथ दूँगा” .... जैसी पाशविक और हिंसक घोषणायें सुनता हूँ तो मुझे लगता है कि मैं
लोकतंत्र के मान्यताप्राप्त हिंसक अपराधियों के बीच खड़ा हूँ .... और तब मैं यह समझ
नहीं पाता कि हमारे दान से माननीय बना हमारे बीच का एक आम आदमी अतिविशिष्ट बनकर अतिअशिष्ट
आचरण करने के लिये अधिकृत क्यों है ?
बेह्तरीन अभिव्यक्ति .आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये. ,,
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