हम
अमर हैं .....
क्योंकि
हम अजन्मा हैं, जन्म और मृत्यु की सीमाओं से परे ।
हम अपनी मां के डिम्ब ( ओवम) और पिता के
शुक्र (स्पर्म) के संयोग की निरंतरता के परिणाम हैं । हमारी संतान भी हमारे और
हमारी पत्नी के शरीरांशों की निरंतरता के परिणाम हैं । यही क्रम है ....... जीव से
जीव की निरंतरता का ।
जिसे हम मृत्यु कहते हैं वह रूपांतरण की एक
संक्रांति स्थिति है । जिसे हम जन्म कहते हैं वह रूपांतरण की संक्रांति स्थिति का
परिणाम है । वस्तुतः जन्म और मृत्यु जैसे शब्द भी सापेक्ष हैं ....सापेक्ष स्थिति
को दर्शाने वाले शब्द ।
जो व्यक्त है वह गतिमान है । जो गतिमान है
वह ज-गत है ।
जब हम गतिमान होते हैं तो एक स्थिति को
छोड़ते हुये दूसरी स्थिति को प्राप्त करते हैं । गति का यही परिणाम है ...छोड़ना और
पाना । शरीर की नश्वरता उसकी अमरता का विरोध नहीं है । मृत्य और जन्म की स्थितियाँ
जीव की छोड़ने और पाने की जागतिक स्थितियाँ हैं ...गत्यात्मकता की द्योतक हैं .....
निरंतरता की द्योतक हैं ।
जब कृष्ण ने कहा कि मैं अजन्मा हूँ ......
अमर हूँ, तो लोगों को लगा कि यह स्वयं को ईश्वर सिद्ध करने का पाखण्ड कर रहा है ।
कृष्ण अहंकारी है ...देवकी का पुत्र भला अजन्मा और अमर कैसे हो सकता है ! किंतु
कृष्ण ने जो कहा वही सत्य है ....... हम सब अमर हैं । हम सब अपनी संततियों के रूप
में सदा जीवित रहते हैं ....पीढ़ी-दर-पीढ़ी ......शरीर और भूमिकाओं में परिवर्तन
करते हुये ।
जब भारतीय ऋषियों ने मनुष्य को नट कहा और
जीवनव्यापार को नाट्य तो उनका आशय जीवन की निरंतरता में मनुष्य की सांसारिक
भूमिकाओं के संदेश को निरूपित करना ही था ।
हमारी संतान हमारे कर्मों की भी निरंतरता है
.....परिणाम है .... जिसे हम चाहे-अनचाहे भोगने के लिये बाध्य होते हैं । जब हम
संतान के किसी कृत्य से सुखी या दुःखी होते हैं तो हम बीज रूप में अपने ही कृत्यों
का परिणाम भोग रहे होते हैं । अपने ही कृत्यों के परिणाम से सुखी या दुःखी हो रहे
होते हैं ।
हमारी संतान के सभी कृत्य हमारे ही रोपे
बीजों का प्रतिफलन है ।
यह जो जनरेशन गैप है ........ जिसे हम अपने
लिये एक बड़ी समस्या मानते हैं और दुःखी होते हैं ....अपनी ही संतान को कोसते हैं
......... वह वस्तुतः सांसारिक नाट्यशाला में भूमिकाओं का परिवर्तन है जिसे हमारी
संतानें मंचित करती हैं । यह सब हमारे लिये रहस्य है । जो हमारे लिये रहस्य है वह
परमसत्ता के लिये रास...लीला है ।
मंचन के लिये कभी हमें पॉज़िटिव रोल मिलते
हैं तो कभी निगेटिव । यह निगेटिविटी और पॉज़िटीविटी ही सत्य है ब्रह्माण्ड का ।
इनमें से किसी भी एक को समाप्त नहीं किया जा सकता । इसलिये अपनी हर भूमिका का
निर्वहन अनिवार्य है हमारे लिये । आनन्द और दुःख के क्षण ..... जिन्हें हम अपनी
भूमिका में जीते हैं, जगत के रहस्य को अभिव्यक्त करते हैं । इस अभिव्यक्ति की
नाटकीय स्वीकार्यता मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करती है ।
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