रविवार, 11 अक्तूबर 2015

फ़ल्लुज़ाह के बाज़ार में बिकती हैं लड़कियाँ




पता नहीं इस धरती के वाशिंदे इतने असंवेदनशील क्यों हैं, वैश्विक समाज के लोग दूसरों की त्रासदी पर विचार करते भी हैं या नहीं ? ईसवी सन् 2012 के बाद मध्य एशिया से आने वाली ख़बरों ने हमारे दिल-ओ-दिमाग़ को दहला दिया है । ये ख़बरें तब आ रही हैं जब धरती के वैज्ञानिक आये दिन अंतरिक्ष में अपने उपग्रह भेजते रहते हैं ... इस उम्मीद में कि शायद धरती जैसा कोई और ग्रह मिल जाय जहाँ मनुष्य रह सके । मनुष्य को एक और धरती की तलाश है, शायद यह धरती उसके लिये कम पड़ गयी है अपने ज़ुल्म-ओ-सितम ढाने के लिये ? ईराक़ के मानवाधिकार मंत्रालय के अनुसार अनबर सूबे के फ़ल्लुज़ाह शहर में इस्लामिक स्टेट्स के लड़ाकों द्वारा युद्ध में जीती गयी सीरिया और ईराक़ की ग़ैर मुस्लिम लड़कियों की ख़रीद-फ़रोख़्त ज़ारी है । फ़ल्लुज़ाह में ऐसे बाज़ार लगभग हर रोज़ लगते हैं । 
किसी गाँव, कस्बे या शहर पर हमले के बाद पकड़े गये लोगों में से दस साल से अधिक उम्र के क़ाफ़िर मर्दों को महिलाओं से अलग कर दिया जाता है । इनमें से अधिकांश मर्दों की क्रूरतापूर्वक हत्या कर दी जाती है । कम उम्र के लड़कों को इस्लामिक स्टेट की ख़िदमत के लिये रख लिया जाता है और लड़कियों को शरीयत के अनुसार मर्दों की ज़िस्मानी हविस के लिये हथकड़ियों में जकड़ कर बाज़ार लाया जाता है जहाँ उन लड़्कियों के ज़िंदा गोश्त का मोल-भाव किया जाता है । यानी अल्लाह का एक बंदा एक बंदी को सिर्फ़ इस लिये बेच देता है क्योंकि वह एक ख़ूबसूरत औरत है । ईराक के मानवाधिकार मंत्रालय के अनुसार बाज़ार में इस ज़िंदा सामान की कीमत ज़िस्म की उम्र के हिसाब से तय की जाती है । पकड़ी हुयी स्त्रियाँ “फ़तह का माल” होती हैं जिनका पुरुष यौनेषणा की पूर्ति के लिये किसी भी रूप में स्तेमाल किया जाना शरीयत कानून के अनुसार न्यायसंगत माना जाता है । ख़ूबसूरत और कम उम्र की लड़कियाँ “ज़िहाद निकाह” के लिये बाध्य होती हैं । 
ईराक और सीरिया में क्रिश्चियन, यज़ीदी, शाबैक और कुर्दिश समुदाय के लोग इस्लामिक स्टेट के आसान शिकार हो रहे हैं । 2012 से सीरिया के पुरुष लगातार क्रूर हत्या के शिकार हो रहे हैं । सीरिया की बेग़ुनाह स्त्रियाँ, जिनमें छोटी बच्चियाँ भी सम्मिलित हैं, सामूहिक यौनौत्पीड़न की शिकार हो रही हैं ।  एक समुदाय दूसरे समुदाय को धर्म की फ़तह के लिये ख़त्म करने पर आमादा है । हम इक्कीसवीं शताब्दी में एक बार फिर सदियों पुराने आदिम युग की क्रूरता का नंगा नाच देखने के लिये विवश हैं । इस्लाम के नाम पर इस्लामिक और ग़ैरइस्लामिक स्त्रियों पर होने वाली क्रूरता को रोकने के लिये सबसे बड़ी भूमिका इस्लामिक दुनिया की आधी आबादी की ही है । जबतक यह आधी आबादी अपने आत्मसम्मान और स्वाभिमान के लिये उठ कर खड़ी नहीं होगी तब तक इसे रोक पाना सम्भव नहीं लगता ।

        धरती का एक समुदाय क्रूरता की बुलंदियों को स्पर्श करता जा रहा है और वसुधैव कुटुम्बकम् की भारतीय वैश्विक अवधारणा अर्थहीन होती जा रही है । सीरिया की धरती भारत से बहुत दूर है, हमें उनके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है किंतु समस्या जब मानवीय उत्पीड़न और क्रूरता की हो तो भौगोलिक सीमाओं का कोई अस्तित्व नहीं होता ।   


बाज़ार में बेचने के लिये लायी गयीं लड़कियाँ ! हमारी सभ्यता का मापदण्ड क्या है ? 


हैवानियत की कोई सीमा नहीं रखी गयी है इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में ..... 


इनका सबसे बड़ा ग़ुनाह यह है कि ये लड़कियाँ हैं  .....और कोई कानून इनकी रक्षा करने में सक्षम नहीं हो सका है आज तक  


यहाँ मैं कोई कैप्शन दे सकने की स्थिति में नहीं हूँ ... मेरी रूह काँपने लगी है और ख़ून खौलने लगा है ।   


 .....और यह है इस्लामिक स्टेट वालों का इस्लामिक कानून 


 ..... आख़िर औरत को मनुष्य कब माना जायेगा ?  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.