22 मई
की सुबह हम सिलीगुड़ी में थे जहाँ से हमें कलिंगपोंग होते हुये गंगटोक जाना था ।
सुबह सात बजे की बस से हमने कलिंगपोंग के लिये प्रस्थान किया । शिवस्वरूप रास्ते
भर सोते रहे और हम प्रकृति का सौन्दर्य अपनी आँखों में भरते रहे । दस बजे के लगभग
हम कलिंगपोंग में थे, वहाँ जाकर पता चला कि गंगटोक का रास्ता चार घण्टे का है तो
हमने आगे बढ़ने का निर्णय किया और चोटी वाले की गाड़ी से गंगटोक की ओर चल पड़े ।
दोपहर बाद हम गंगटोक में थे । थके होने के बाद भी हमने आसपास ही थोड़ी बहुत तफरीह
की और अगले दिन के लिये परमिट की औपचारिकतायें पूरी कीं । सिक्किम में चीन के
सीमावर्ती क्षेत्रों में जाने के लिये अस्थायी परमिट लेना पड़ता है जिसके लिये पहले
से ही दो पासपोर्ट साइज़ फ़ोटो और परिचय पत्र की छायाप्रतियाँ रख लेना सुविधाजनक
होता है । औपचारिकता एक दिन पहले से कर लेनी होती है । हमें होटल मालिक ने बताया
कि ऐसा करना पर्यटकों की सुरक्षा की दृष्टि से आवश्यक होता है ।
20 मई
के बाद से हम फलों, मिठाइयों और कॉफ़ी आदि से काम चला रहे थे । पर्यटन की अवधि
कितनी भी लम्बी क्यों न हो हमें भोजन के स्थान पर स्थानीय फल, सूखे मेवे, स्थानीय
मिठाइयाँ, दूध और कॉफ़ी लेना ही अधिक सुविधाजनक लगता है । अस्तु, थोड़ा-बहुत खाकर हम
दोनो सो गये ।
हम जिस
होटल में ठहरे थे वहाँ बड़ी-बड़ी आँखों और गोल चेहरे वाली एक सिक्किमी युवा लड़की, जो
कि ट्रैफिक पुलिस कर्मचारी थी, सुबह-सुबह अपना बैग रखने आती थी । रोज की तरह उस
दिन भी वह आयी, काउण्टर पर ही बैग से मेकअप का सामान निकाला, पहले से ही ख़ूबसूरत
आँखों में काजल लगाया और पहले से ही ख़ूबसूरत ओठों पर लिपिस्टिक लगायी, फिर अपने
छोटे से आइने में ख़ुद को कई बार निहारा । आइने में ख़ुद को जी भर निहारते-निहारते
उसने हमसे पूछा – “आज कहाँ जाना है?”
हमारे
“छांगू लेक” बताते ही वह चौंकी, बोली “इसी तरह ... इतने कम कपड़ों में ? और पैरों
में जूते भी नहीं ... चप्पल से नहीं चलेगा । आपको कुछ गर्म कपड़े लेने चाहिये ...और
जूते भी । वहाँ बहुत ठण्ड है ... शाम तक पानी बरसना तय है ...बर्फ़वारी भी हो सकती
है ।”
इस
अप्रत्याशित सूचना से हम किंचित परेशान हुये किंतु दूकानें खुलने में अभी बहुत समय
था और नकचढ़ा नोर्वो इतनी देर प्रतीक्षा नहीं कर सकता था । हमने ऊपर ही कहीं रास्ते
में ग़र्म कपड़े ख़रीदने का निश्चय किया ।
23 की
सुबह नोर्वो की गाड़ी से हमने छांगू झील के लिये प्रस्थान किया । रास्ते में दो-तीन
स्थानों पर हमें ख़राब रास्ते के कारण रुकना पड़ा । तीन-चार स्थानों पर पुलिस और
सेना के जवानों ने हमारे परमिट चेक किये । पूरा रास्ता दैवीय शक्ति और सौन्दर्य से
आप्लावित लगता रहा ।
वाहन
चालक नोर्वो एक स्वाभिमानी किंतु बहुत ग़र्म मिज़ाज़ युवक था । किसी से भी उलझने में
उसे कोई संकोच नहीं होता था । छांगू लेक पहुँचते-पहुँचते हमने उसके मिज़ाज़ के एक
कोमल हिस्से को पहचान लिया, उसके रूक्ष चेहरे पर मुस्कान आयी और फिर तो हमारी
अच्छी पटने लगी । वास्तव में वह एक सहयोगी प्रकृति का युवक था जिसे ड्राइविंग के
साथ-साथ गाइड का काम करने में भी मज़ा आता था । एक स्थान पर जब गाड़ी रुकी तो उसने
हमें चेतावनी दी – “सिक्किम में खुले स्थान पर प्रसाधन करना और सिगरेट पीना अपराध
है, पुलिस वाले देख लेंगे तो आपको पकड़ेंगे और आप मुश्किल में पड़ जायेंगे ।”
यहाँ
नोर्वो ने कॉफ़ी पी और हमने अपने लिये एक जैकेट ख़रीदी । ऊपर वास्तव में पानी भी
बरसा और बर्फवारी भी हुयी । हमने मन ही मन ट्रैफ़िक सुन्दरी को धन्यवाद दिया ...वह
सचमुच धन्यवाद के साथ-साथ एक कप कॉफी की भी हकदार थी किंतु इस समय यह सब सम्भव
नहीं था । हमने नीचे घाटी में चरते यॉक के, कुछ चट्टानों के और कुछ पर्वत चोटियों
के चित्र लिये और आगे बढ़ गये ।
एक ख़ूबसूरत
मोड़ पर नोर्वो ने गाड़ी रोक दी । वहाँ बर्फ़ थी और लोग बर्फ़ पर फिसल रहे थे, तराई से
आये कुछ लोग अपनी आदत से मज़बूर थे और उन्होंने कुरकुरे के रैपर्स और कोल्ड
ड्रिंक्स की खाली बोतलें इधर-उधर फेकना शुरू कर दिया । पूरे भारत में अपनी
स्वच्छता के लिये विख्यात सिक्किम की धरती को तराई के लोगों का यह दुर्व्यवहार
अच्छा नहीं लगता तभी तो वहाँ की धरती कुनमुनाती है और वहाँ जब-तब लैण्ड स्लाइड की
घटनायें होती रहती हैं ।
ख़ूबसूरत
छांगू झील और हाथी झील होते हुये हम पहले बाबा मन्दिर गये । कहा जाता है कि जवान
हरभजन सिंह वहाँ आज भी अपने ड्यूटी पूरी मुस्तैदी से करते हैं । हरभजन सिंह के नाम
से वहाँ एक मन्दिर बना है जिसे लोग बाबा मन्दिर के नाम से जानते हैं । इस स्थान से
कुछ आगे बढ़ने पर चीन ऑक्यूपाइड तिब्बत की सीमा प्रारम्भ होती है । हमने वहाँ कई एक
बंकर देखे, जंगली पुष्प देखे और देखा भारतीय जवानों का देश की सीमाओं के प्रति
समर्पण ।
वापसी
में हम लोग हाथी झील और फिर छांगू झील रुके । प्रकृति यहाँ सदा ही श्रृंगार किये
रहती है । इन देवस्थलों का चुम्बकीय आकर्षण अद्भुत् है । सौन्दर्य और वैराग्य का
अद्भुत् संयोग यहाँ की विशेषता है । मन था कि कम से कम पूरे एक दिन तो वहाँ रह
पाते । हम युक्सोम,लाचेन, लाचुंग, जुलुक और नाथुला भी जाना चाहते थे किंतु समय
सीमाओं से बंधे हम लोग चाहकर भी वहाँ नहीं जा सके । सोचा, अगली बार वहीं जायेंगे ।
शाम तक
हम वापस गंगटोक आ गये । कुछ फल, मिठायी का सेवन और कॉफ़ी पीकर हम दोनो ने महात्मा
गांधीमार्ग स्थित बाज़ार घूमने का निश्चय किया । गंगटोक में आवागमन के लिये
टैक्सियों की बहुत अच्छी सुविधा है किंतु हम दोनो ने पैदल ही प्रस्थान किया ।
फूलों के गमलों से सजे फ़ुटपाथ और ओवर ब्रिज से होते हुये हम बाज़ार पहुँचे । अभी तक
हमने जितने भी बाज़ार देखे हैं उनमें यह पहला ऐसा बाज़ार है जो सर्वाधिक आकर्षक, स्वच्छ,
सुन्दर, सुप्रबन्धित और मर्यादित है जिसने अपनी विशेषताओं के कारण चण्डीगढ़,
काठमाण्डू और कोलकाता की बाज़ारों को भी पीछे छोड़ दिया है ।
सामान्यतः
शहर मुझे पसन्द नहीं हैं, मैं गाँवों में घूमना पसन्द करता हूँ किंतु गंगटोक वाकई
में ख़ूबसूरत है । यहाँ की वादियाँ, पर्वत चोटियाँ, सड़कें, बाज़ारें और लोग ... सब
कुछ बेहद ख़ूबसूरत । शाम हमने एम.जी. रोड पर टहलते और चित्र लेते बितायी । यह एक
यादगार और बेहद ख़ूबसूरत शाम थी । साफ-सुथरी चौड़ी सड़क, बीच के डिवाइडर में उगे
रंगबिरंगे फूल, फव्वारे, रंगीन रोशनियों से जगमगाता बाज़ार, आइस्क्रीम खाकर रेपर को
डस्टबिन में डालते सिक्किमी नागरिक, बेंच पर बैठी सुन्दरियाँ और चहल कदमी करते लोग
...
मुझे वे
गाँव और शहर अच्छे लगते हैं जहाँ शुद्ध खोये की मिठाइयाँ मिलती हैं । सिक्किम के
अतिरिक्त प्रायः शेष भारत में शुद्ध खोये की मिठायी की कल्पना भी ख़तरे से खाली
नहीं है । सिक्किम इस मामले में निरापद है ... और इसलिये भी सिक्किम मुझे पसन्द है
।
24 मई
की सुबह साढ़े सात बजे अपने वादे के अनुसार तासी गोड़िया ने होटल में दस्तक दी । पेलिंग
जाने के लिये हम पहले ही तैयार हो चुके थे, इसलिये विलम्ब न करते हुये गाड़ी में
बैठे और चल दिये । गंगटोक से न्यू जलपाईगुड़ी के मार्ग में लेगशिप पड़ता है जहाँ से पेलिंग
और जोरथांग का रास्ता कटता है । न्यू जलपाईगुड़ी का रास्ता जोरथांग से भी है । गंगटोक
से पेलिंग का रास्ता बहुत ख़राब था, कई जगह लैण्ड स्लाइड के कारण हमें रुकना पड़ा ।
रास्ते में पड़ने वाले रमटेक बौद्ध मठ, सिक्किम की पुरानी राजधानी, पवित्र झील,
रिम्बी झरना आदि होते हुये दक्षिण सिक्किम जिले के एक गाँव दरप पहुँचते-पहुँचते
शाम हो गयी थी ।
कार से
उतरते ही गुरुंग होम स्टे के संचालक शिवम गुरुंग ने हाथ जोड़कर अभिवादन किया । हम
और शिवस्वरूप तासी और शिवम् के साथ ऊपर पहुँचे जहाँ शिवम् की भतीजी और टीटी ने
हमारा स्वागत किया । लगभग एक एकड़ से भी अधिक स्थान में फैला शिवम् का घर अच्छा लगा
। थोड़ी औपचारिक चर्चा के बाद शिवम् ने हमें हमारी हट में पहुँचा दिया । ज़ल्दी ही
शिवम की भतीजी सावित्री चाय और बिस्किट ला कर रख गयी । हमें सचमुच घर जैसी
अनुभूतियाँ हो रही थीं । साथ की अन्य हट में एक मलेशियायी परिवार था, दूसरी और
तीसरी हट्स में दो ब्रिटिश युवतियाँ अपने-अपने भारतीय मित्रों के साथ थीं ।
भोजन की
व्यवस्था कॉमन हॉल में थी । टीटी और उसका नन्हा पिल्ला हमारे आसपास ही मंडराते रहे
। शिवस्वरूप को कुत्ते-बिल्ली बिल्कुल भी पसन्द नहीं हैं जबकि कुत्तों से हमारी
दोस्ती होने में देर नहीं लगती । हमने शिवम् की लाइब्रेरी से “Food
security and Human care” उठायी
और भोजन परोसे जाने तक पन्ने पलटते रहे । भोजन परोसने में शिवम् की भतीजी के
अतिरिक्त उनकी पत्नी और बहन भी थीं । भोजन हमारी रुचि के अनुरूप था- इस्कुस के
कोमल पत्तों की भाजी, दाल, चावल, सब्ज़ी, पोदीने की चटनी और रोटी । हमने शिवम् के
घर में पहली बार इस्कुस की बेल और टमाटर का वृक्ष देखा । रास्ते में तासी ने बताया
था कि सिक्किम में टमाटर का पौधा ही नहीं, बड़ा वृक्ष भी होता है । वास्तव में यह
एक अलग प्रजाति का वृक्ष है जिसके फल टमाटर के आकार के होते हैं और जिनका उपयोग
खाने के लिये किया जाता है । हिमांचल की तरह लाल रंग की मूली यहाँ भी देखने को
मिली ।
सुबह
शिवम् को प्रातः भ्रमण पर जाते देख, मैंने भी साथ जाने की इच्छा प्रकट की । शिवम्
खुश हो गये, टीटी भी हमारे साथ हो ली । रास्ते में कई विषयों पर चर्चा हुयी, यथा –
सिक्किम की शिक्षा व्यवस्था, बेरोज़गारी, परम्परागत खेती के स्थान पर इलायची की
खेती के प्रति दीवानगी, स्टेपल फ़ूड के लिये अन्य प्रांतों पर निर्भरता, अपराध की
स्थिति, कुटीर उद्योग, निर्धनता, कुपोषण और स्वास्थ्य सेवायें, सांस्कृतिक संकट और
लुप्त होती लोकपरम्परायें ... आदि ।
प्रातः
भ्रमण के समय शिवम् ने बताया था कि सिक्किम के गाँवों में पारस्परिक सहभागिता से
सारे कार्य सम्पन्न किये जाने की प्राचीन परम्परा रही है जिसे परमा कहा जाता है ।
साम्यवादी देशों में भी यह परम्परा स्थापित करने का प्रयास किया गया था किंतु
सांस्कृतिक-सामाजिक चेतना और पारस्परिक निष्ठा के अभाव में कहीं भी सफल नहीं हो
सकी । तराई के लोगों के आवागमन और उनकी सांस्कृतिक शिथिलताओं के प्रभाव से परमा
परम्परा संकटग्रस्त हो रही है । शिवम् के साथ-साथ मेरे लिये भी यह चिंता का विषय
है । हम सिक्किम को शेष भारत के दुष्प्रभावों से सुरक्षित रखना चाहते हैं ... और
यह एक बहुत बड़ी चुनौती है । हमने इन्हीं विषयों पर चर्चा करते हुये एक तात्कालिक
कार्ययोजना बनायी जिससे शिवम् बहुत उत्साहित हुये । हमें सिक्किम के दैवत्व को हर
हाल में बचाना ही होगा ।
सचमुच, मुझे
तो सिक्किम एक दैवीय स्थान लगा, प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ नागरिकों की जागरूकता,
स्वच्छता, देवियों जैसी सुन्दर लड़कियाँ, गठीले युवक, लोगों का भोलापन और गाँवों की
परमा परम्परा ...सब कुछ मनमोहक सब कुछ सत्यम् शिवम् और सुन्दरम् !
हम दोनो
को कई दिन बाद घर जैसी नींद आयी, शिवस्वरूप अभी एक दिन और शिवम् का आतिथ्य सुख उठाना
चाहते थे किंतु हमें हर हाल में 26 मई की शाम तक मेघालय की राजधानी शिलांग पहुँचना
ही था । सुबह सावित्री ने आकर अभिवादन करते हुये चाय के लिये पूछा । शिवस्वरूप के हाँ
कहने की देर कि वह ट्रे में चाय और बिस्किट लेकर पहुँचा गयी । स्नान के बाद शिवम्
ने नाश्ते के लिये आमंत्रित किया । हम लोग लॉन में बैठे, पास में एक ओर बैठे थे उल्लू
के दो प्यारे से बच्चे और दूसरी ओर था एक छोटा सा पोखरा जिसमें मछलियाँ तैर रही थीं
।
25 मई की
शांत सुबह ! शिवम् की पत्नी और भतीजी ने लॉन में टेबल पर नाश्ता लगा दिया । नाश्ते
में उबले आलुओं के साथ थी पोदीने की चटनी और चावल का बना फितुक या खोले जिसे मक्खन
मिलाकर बनाया जाता है । नाश्ता करते-करते देखा सामने तासी खड़े मुस्करा रहे थे । हम
उनका संकेत समझ गये । नाश्ते के बाद हमने शिवम् से बिदा लेनी चाही तो वे हमें कॉमन
हॉल में ले गये जहाँ उनकी पत्नी ने शुभकामनाओं और आगे की यात्रा की मंगलकामनाओं के
साथ हमें सफ़ेद दाख पहनाया और दोनो हाथ जोड़कर अभिवादन किया । शिवम् ने उपहार में हमें
चार पैकेट्स दिये, दो में उनके खेत की ऑर्गेनिक हल्दी थी, एक में उनके खेत की बड़ी
इलायची और एक पैकेट में थे उनकी पत्नी के गाँव के ऑर्गेनिक चावल । हमने अतिथि डायरी
में कुछ लिखा, परिवार के साथ फ़ोटो सेशन हुआ, सावित्री के सिर को सहला कर प्यार किया,
सबको नमस्कार किया, टीटी और उसके नन्हें शैतान पिल्ले को दुलराया और स्नेह का एक बन्धन
साथ लेकर और एक बन्धन वहीं छोड़कर आगे की ओर बढ़ चले । शिवम् अभिभूत थे, उनकी पत्नी,
बहन और छुटकी सावित्री भी, जैसे कि अपने किसी सगे को विदा कर रहे हों । हम पूरे चौबीस
घण्टे भी तो नहीं रह सके थे वहाँ, और इतनी ही देर में स्नेह और आदर की एक छोटी सी निर्मल
धारा वहाँ बह चली थी ।
थोड़ी ही
देर में हम कार में थे, तासी ने गाड़ी चालू की और हम रिम्बी झरने की ओर बढ़ चले । रिम्बी
में कुछ देर रुक कर हम फिर आगे बढ़े । तासी हमें खेचुपुरी के एक बहुत पुराने बौद्ध मठ
ले गये और समीप ही स्थित एक पवित्र झील भी ।
ख़ूबसूरत
रास्तों, झरनों और सड़क किनारे उगे फूलों को लालची की तरह जी भर निहारते हम अब सिलीगुड़ी
के रास्ते पर थे । तीस्ता के किनारे चलते-चलते जब हम सिक्किम पार करने ही वाले थे कि
शिवस्वरूप ने चुटकी ली – “भाईसाहब ! जहाँ से सड़क किनारे गन्दगी के लक्षण मिलने शुरू
हो जायें तो समझ लेना कि हम भारत छोड़कर इण्डिया में प्रवेश कर चुके हैं ।”
घाटी मेंं याक
बादलों से होड़
हाथी झील
बाबा मन्दिर के पास का एक बंकर
पर्वतीय पुष्प
रिम्बी झरना
पर्वतीय पुष्प
लैण्ड स्लाइड से आयी रुकावट दूर करती स्थानीय व्यवस्था
पर्वत शिखरों को दुलराते हिमानी मेघ
एम.जी. रोड मार्केट गंगटोक
सच्चे राष्त्रवादी
चोटी वाला
चित्रकार मेघ
तासी गोड़िया के साथ कॉफ़ी का मजा
राबदेंत्से के भग्नावशेष, सिक्किम की पुरानी राजधानी
बीघा शिंगशोर पुल दक्षिण सिक्किम
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