पुरुष
की दृष्टि में स्त्री का रूप रमणीय है और उसकी लीला अद्भुत् । रूपाकर्षित कायाभोगी
पुरुष ने रूपजीवाओं को कायाव्यापार के लिये आमंत्रित कर अपनी सहभागिता सुनिश्चित्
की और स्त्रीदेह एक व्यापारिक वस्तु बन गयी । वहीं बलिष्ठ देह के उद्दाम कामज्वार
की आकांक्षिणी स्त्री ने कायाकाम के वरण में सामाजिक मर्यादाओं की उपेक्षा की और अपनी
काया को कंचन से विनिमय के लिये मुक्त हो जाने दिया ।
कायाकाम
ने स्त्री-पुरुष दोनो को ही सदा से आकर्षित किया है । कदाचित सभ्य मनुष्य का सर्वाधिक
चिंतन काम को लेकर ही है । यह चिंतन काम की स्वीकार्यता, उसकी मर्यादा-अमर्यादा,
नैतिकता, पवित्रता और सामाजिक पक्षों को लेकर होता रहा है । वैदिक साहित्य में
यम-यमी कथा और ब्रह्मा की अपनी पुत्री के प्रति कामासक्ति का उल्लेख किया गया है जिसे
लेकर वेदों, हिंदू धर्म और ब्राह्मणों की प्रगतिवादियों द्वारा आये दिन छेछालेदर
किये जाने की परम्परा चल पड़ी है । उन्हें फ्रॉयड का चिंतन अधिक प्रगतिवादी,
वैज्ञानिक और पवित्र लगता है जिसने “जित देखूँ तित काम” सिद्धांत की स्थापना की ।
कायाकाम को लेकर फ़्रायड से बहुत पहले संस्कृत में कोकशास्त्र, कुट्टिनीमतम् आदि की
रचनायें की गयीं । प्राचीन संस्कृत साहित्य में कायाकाम सम्बन्धित कथाओं की कमी
नहीं है । काम स्वीकार्यता, काम विरोध, काम नैतिकता, काम पाखंड आदि विषयों को
आदर्श के तराजू पर रखे जाने के प्रयास भी होते रहे हैं ।
ब्रह्मा
सृष्टि के रचयिता हैं और अपनी सृष्टि यानी सरस्वती पर कामातुर हो मुग्धावस्था को
प्राप्त हो जाते हैं । पुत्री पर पिता के कामासक्त हो जाने का आरोप लगाने से पूर्व
हमें इस कथा का विश्लेषण करने की आवश्यकता है । ब्रह्मा सृष्टि के आदि रचयिता हैं,
वे सूक्ष्म पञ्चतन्मात्राओं, पञ्चमहाभूतों और ब्रह्माण्डीय वृहत पिण्डों से लेकर
मनुष्य तक अखिल चराचर जगत के रचनाकार हैं । यह ब्रह्मा कौन है ? यह कोई देवता है,
कोई जीव है, कोई अदृश्य शक्ति है या कुछ और ? निश्चित् ही यह ब्रह्मा कोई अदृश्य
शक्ति है, कोई पुरुष नहीं जो यौनाचार कर सके । फिर यह कौन ब्रह्मा है जो अपनी
पुत्री सरस्वती के प्रति कामासक्त हो उठा
?
हमें यह
निरंतर ध्यान रखना होगा कि हम उस ब्रह्मा की बात कर रहे हैं जो अखिल ब्रह्माण्ड का
रचनाकार होने के नाते सबका जनक है , सबका पिता है । हम यह भी जानते हैं कि कोई भी
रचना विभिन्न संयोगों का प्रतिफल होती है । यह संयोग सम भी हो सकता है और विषम भी
किंतु नव सृष्टि के लिये संयोग के घटक सदा ही विपरीत स्वभाव एवं गुण-धर्म वाले ही
होंगे । दर्शन की भाषा में इन्हें प्रकृति और पुरुष की संज्ञा दी गयी है जिनका
फ़्यूज़न सृष्टि की अनिवार्य शर्त है । सृष्टि के क्रम में नवीन रचनाओं के प्रति
आदिरचनाकार की ऊर्जा का आकर्षण निरंतर प्रगाढ़तर होता जाता है । वृहत खगोलीय पिण्ड
हों या कोई जीव, सभी की रचना के लिये यह एक अपरिहार्य घटना क्रिया है । इस घटना क्रिया
को ब्रह्मा का अपनी बेटी (रचना) के प्रति कामासक्त होने के रूप में भी देखा जा
सकता है । देखने को तो आधुनिक भौतिक शास्त्रियों ने ब्राउनियन मूवमेण्ट में शिव के
नृत्य को ही देखा और प्रकाश के संचरण में फ़ोटॉन्स के तालबद्ध नृत्यलास्य को भी देख
लिया । परमाणु के इलेक्ट्रॉन्स का अपनी ऑर्बिट्स में परिसंचरण नृत्य का वह आदि रूप
है और दो विपरीत गुण-धर्म वाले तत्वों का फ़्यूज़न वह रति रहस्य है जो चराचर जगत में
कई रूपों में प्रकट होता है । विपरीत ध्रुवीय चुम्बकीय आकर्षण पिण्डीयकाम या भौतिक
अनुराग का सूत्रपात करता है । इस रासलीला (रहस्यलीला) को समझने के लिये वैशेषिक
दर्शन के साथ-साथ एटॉमिक फ़िज़िक्स का अध्ययन बहुत आवश्यक है अन्यथा अर्थ के स्थान
पर अनर्थ की ही उपलब्धि हो सकेगी ।
यह
स्पष्ट है कि वैदिक साहित्य किसी एक व्यक्ति द्वारा रचित न होकर कई लोगों द्वारा
संकलित हैं, अस्तु वैदिक विचार एक दीर्घ कालखण्ड का प्रतिनिधित्व करते हैं । वैदिक
साहित्य के संकलनकर्त्ताओं ने कायाकाम सम्बन्धी कटु यथार्थों का उल्लेख प्रशस्ति
के लिये नहीं बल्कि तत्कालीन पाखण्डों को यथावत् प्रस्तुत करने के लिये किया है ।
परवर्ती संस्कृत साहित्य में कामकथाओं के विवरण भी कामव्यापार की प्रशस्ति नहीं
करते बल्कि कामविकारों के प्रति तत्कालीन समाज को सचेत ही करते प्रतीत होते हैं ।
अब बात आती है ऋषियों के निन्दनीय कामाचरणों की जिनका प्राच्य साहित्य में बारबार
उल्लेख किया गया है । ऋषियों के निन्दनीय कामाचरणों की किसी भी साहित्य में
प्रशंसा की गयी हो ऐसा मुझे नहीं लगता । उनके निन्दनीय कामों के अनुकरण का उपदेश
कहीं दिया गया हो ऐसा भी नहीं लगता । इसलिये इन कृत्यों के लिये वेदों, ब्राह्मणों
और हिन्दू धर्म को लांछित किया जाना सर्वथा अनुचित है । महत्वपूर्ण बात यह भी है
कि ऋषि होने के लिये ब्राह्मण होना अनिवार्य नहीं है ।
हमारे
चिकित्सकीय जीवन में कामसमस्यायों और उनकी विकृतियों को लेकर आने वालों में शीर्षक्रम
से अविवाहित युवक, किशोर, व्यापारी, वाहनचालक, अधिकारी, शिक्षक, मज़दूर, विवाहिता
स्त्रियाँ और धार्मिक स्थलों के कर्मकाण्ड करवाने वाले सम्मानित श्रृद्धेय लोग
सम्मिलित हैं । इससे वर्तमान भारतीय समाज की कायाकाम सम्बन्धी स्थितियों का एक
चित्र उपस्थित होता है । यह चित्र कायाकाम के सत्य और उनके पाखण्डों पर पर्याप्त
प्रकाश डालता है । किंतु यह इस बात का प्रमाण नहीं है कि इस सबके लिये हिन्दू धर्म
एक प्रेरक तत्व के रूप में कार्यरत है । जिस देश में हिन्दू बारम्बार शरणार्थी
जीवन के लिये बाध्य होते रहे हों वहाँ हिन्दूधर्म को दोष देना कितना उचित है ?
आज शैक्षणिक
संस्थानों में कण्डोम मशीन की उपलब्धता कायाकाम को नियंत्रित करने की नहीं बल्कि
सुरक्षित यौनसम्बन्ध स्थापित करने की स्वीकृति का परिचायक है । सेना के उच्चाधिकारियों
में अल्पावधि के लिये पत्नियों की अदला-बदली कायाकाम की वर्गविशेष में प्रच्छन्न
स्वीकृति है । अनैतिक और अवैधानिक होते हुये भी महानगरों में कायाकाम केन्द्रों
(चकलाघरों) के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं । यहाँ स्त्री देह का शोषण भी है और
उद्दामकाम की सहज स्वीकृति का व्यापार भी । हम इन्हें दो वर्गों में विभक्त करना
चाहते हैं – रूपजीवा और कामजीवा । रूपजीवाओं में जहाँ हम विवश और निर्धन स्त्रियों
को पाते हैं वहीं कामजीवाओं में उच्चवर्ग की सम्पन्न कालगर्ल्स को पाते हैं । यह
वर्गीकरण यौनाचार के व्यापार में पुरुष के वर्चस्व को अपेक्षाकृत हलका करने में
सहायक है ।
सहज काम
की सहज स्वीकृति और मर्यादाओं का एक स्वरूप हमें वनवासियों की उन प्राचीन परम्पराओं
में मिलता है जिनमें कायाकाम को नदी के प्रवाह की तरह मानकर कामजल को अंजुरी से
भर-भर पीने की मर्यादित स्वीकृति किशोरों को प्रदान की गयी है । वनवासी संस्कृति
में किशोरावस्था की उत्सुकता कायाकाम को सहज भाव से स्पर्श करते हुये उद्दाम प्रेम
को बहने देने का अवसर प्राप्त कर शांत होती है । वहाँ वेगवती नदी के प्रवाह को बाँधने
का प्रयास नहीं किया गया इसलिये उनके समाज में कामविकृतियों की न्यूनता देखने को
मिलती है ।
एक
प्रश्न यह भी है कि जब हम अपनी भोजन की आवश्यकताओं को कहीं भी जाकर पूरा कर सकते
हैं तो कायाकाम की आवश्यकताओं को क्यों नहीं कर सकते ? उसके लिये ही क्यों एक
खूँटे से बंधे रहने की बाध्यता है ? इसका उत्तर भोजन और अमर्यादित यौनाचार करने के
परिणामों के विश्लेषण की अपेक्षा करता है जिसमें स्त्रीदेह की दुर्दशा और अवांछित गर्भ
की समस्या प्रमुख चिंतनीय बिन्दु हैं । पत्नियों की सुरक्षित और सहमतिपूर्वक
अदला-बदली एवं सुरक्षित यौनसम्बंधों की जुगाड़ ने नैतिकता की आवश्यकता को धता बता
दी है । चूँकि ये पत्नियाँ रूपजीवायें नहीं हैं इसलिये इनके कामाचार को देहव्यापार
नहीं माना जा सकता । समाज के उच्च वर्ग में यह तेजी से व्याप्त होती जा रही ऐसी परम्परा
है जो लालच और प्रश्न दोनो को एक साथ जन्म देती है । हमारी समस्या काम नहीं,
उद्दामकामावेग पर विवेकपूर्ण नियंत्रण के अभाव की प्रवृत्ति है । भौतिक सम्पन्नता
और मुक्तकाम की लिप्सा ने पत्नियों की अदला-बदली को, पारिवारिक विघटनों और
उद्दामकामज्वर ने देहव्यापार को और पाशविककाम ने यौनदुष्कर्मों की अमर्यादित
परम्पराओं को जन्म दिया है । क्या इन सब सामाजिक और सांस्कृतिक विकृतियों के लिये
वेदों, ब्राह्मणों और हिन्दू धर्म को लांछित किया जाना उचित है ?
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