धर्म और
आतंक दोनों विपरीत ध्रुव हैं। धर्म सतोगुणी है तो आतंक तमोगुणी, दोनों एक साथ नहीं
चल सकते किंतु कलियुग में स्वयं को धार्मिक प्रचारित कर रहे लोग यदि आतंक को ही
अपना आचरण बना लें और धार्मिक स्थलों का उपयोग आतंकी घटनाओं या आतंकियों के किले
के रूप में करने लगें तो धर्म की संज्ञा एवं आतंक के गठबन्धन को व्यावहारिक दृष्टि
से धर्म के नाम से ही जानने और पहचाने जाने की लौकिक बाध्यता हो जाती है।
लोकाभिव्यक्ति की सहज रीति यही है। तार्किक दृष्टि से यह शाब्दिक रूढ़ि ही कही
जायेगी जो किसी भी समुदाय के छद्म धर्मानुयायिओं के आचरण के कारण लोक में प्रचलित
हो जाती है।
कई
कर्मकाण्डी समितियों द्वारा दुर्गापूजा, गणेशपूजा और सरस्वतीपूजा के वार्षिक
अनुष्ठानों के समय किया जाने वाला आचरण न केवल असामाजिक, अराजक और अनैतिक होता है
बल्कि अधार्मिक भी होता है। ऐसे लोगों द्वारा किया गया आचरण कभी भी जनस्वीकार्य
नहीं होता। हम इसे अधार्मिक लोगों द्वारा धार्मिक आतंक के रूप में स्वीकार करते
हैं जो सर्वथा निन्दनीय है। अब इसी तरह के अराजक आचरण को १९९० में कश्मीरी पण्डितों
के कश्मीर से बलात् निष्कासन, मुम्बई में छत्रपति शिवाजी रेलवे स्टेशन एवं ताज
होटल तथा यहूदी स्थल पर आक्रमण, भारत की संसद पर आक्रमण, वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर पर
आक्रमण, अफ़्रीका में बोको हरम की जघन्य हरकतों, फ्रांस में हुयी आतंकी हत्याओं और
सन् २०१२ से सीरिया में चल रहे युद्ध और युद्ध से जुड़े अवर्णनीय जघन्य अपराधों के
सन्दर्भ में देखा जाय तो समुदाय विशेष की उन्मादी उपस्थिति को स्वीकार करना ही
पड़ेगा। कहने की आवश्यकता नहीं है कि एक ओर तो आतंक के लिये धर्म की व्याख्याओं और
अनुयायिओं के विस्तार का सहारा लिया जा रहा है और दूसरी ओर आम धर्मानुयायिओं
द्वारा व्यापकरूप से इसका सशक्त विरोध भी नहीं किया जा रहा है। यह एक गम्भीर मंथन का
विषय है।
आजकल एक
नयी कहावत प्रचलन में है, “आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता”। हम इसकी व्याख्या
इस तरह करते हैं – “....अर्थात् जहाँ धर्मसम्मत आचरण होता है वहाँ आतंक नहीं
होता”। दुर्भाग्य से यह एक ऐसा सच है जिसे आतंकवादियों के राजनीतिक और सामाजिक पोषकों
ने एक रक्षात्मक जुमला बना लिया है।
अयोध्या
की प्रजा के लिये राम और भरत में कोई अंतर नहीं। जिन्हें चारो अवधकिशोरों में
योग्य राजा की छवि दिखायी देती हो उनके द्वारा दिया गया वक्तव्य “कोउ नृप होहि
हमहिं का हानी” जो अर्थ देता है वह अर्थ भीरु जनता द्वारा किसी विदेशी आक्रमणकारी
के राजा बनने पर दिये गये इसी वक्तव्य से प्राप्त नहीं होता। दो भिन्न-भिन्न
परिस्थितियों में दिया गया एक ही प्रकार का वक्तव्य “कोउ नृप होहि हमहिं का हानी”
भिन्न-भिन्न अर्थ देता है। ठीक इसी तरह “आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता” वाला
वक्तव्य भी विद्वत्जनों की धर्मसभा में जो अर्थ देता है वह अर्थ राजनेताओं और
छद्मधर्मानुयायिओं द्वारा दिये जाने पर निष्पन्न नहीं होता।
“धर्मसम्मत
आचरण” हमारे जीवन को सुव्यवस्थित और सुरक्षित रखता है किंतु “धर्म के नाम का
दुरुपयोग” पाखण्ड और आतंक के लिये सुरक्षा कवच का काम करता है। यह उसी तरह है जैसे
ईश्वर की सत्ता और ईश्वर नामधारी किसी अपराधीव्यक्ति का आचरण। ईश्वर सिंह नामक
व्यक्ति वह सत्ता नहीं है जिसे हम सृष्टि के रचयिता ईश्वर के नाम से जानते और
मानते हैं। किंतु क्रूर अपराधी ईश्वर सिंह के साथ जुड़े “ईश्वर” नाम के उच्चारण की
विवशता को तो स्वीकार करना ही होगा। यह तब और आवश्यक हो जाता है जब किसी आतंकवादी
के जनाजे में हज़ारों की स्वस्फूर्त भीड़ उसे कंधा देने पहुँचती है और उसके कुकर्मों
को अपना समर्थन देती है। यह तब और भी आवश्यक हो जाता है जब मक़बूल भट्ट और अफज़ल गुरु
के न्यायिक मृत्युदण्ड को महिमामण्डित करने के लिये कश्मीर घाटी और भारत की
राजधानी में शिक्षित युवाओं का एक समूह भारत की राष्ट्रीयसम्प्रभुता को ललकारता
है। ऐसे समय में तथाकथित धर्माचार्यों द्वारा भीड़ के ऐसे कृत्यों का कोई विरोध न
किया जाना और भीड़ को सच्चा मार्ग दिखाने की पहल का न किया जाना समुदाय पर आरोप के
साथ-साथ धर्म की भी लांछना का कारण बन जाया करता है। इस आरोप और लांछना का
प्रतिक्रियात्मक विरोध करने की अपेक्षा मूल कारणों के उच्छेद के उपायों पर चिंतन
करने की आवश्यकता है। हिंदूधर्म के प्रसंग में हम उन धार्मिक पाखण्डियों की कठोर
शब्दों में निन्दा करते हैं जो सनातनधर्म के तत्वों को जाने बिना हिंदूधर्म के
स्वयम्भू उद्धारकर्ता बन गये हैं। सनातनधर्म की दुर्गति के लिये ऐसे ही
छद्मधर्माधिकारी उत्तरदायी हैं। सनातनधर्म के अस्तित्व के लिये प्रबुद्ध हिंदुओं
को जाग्रत होना ही होगा।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " सही उपयोग - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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