बुधवार, 28 दिसंबर 2016

चाहत


// एक //  


उसने वादा किया था
कि मुझे हर वह चीज मिलेगी उसके होटल में
जो मैं चाहूँगा ।
मैंने चाही थी  
मात्र थोड़ी सी वह गंध
जो आम के सूखे पड़े पत्तों के ढेर पर
प्रथम वर्षा की बूँदों की थपकी से जागती है,
मैंने चाही थी
तनिक सी वह गंध
जो हरा चारा काटते समय
कसमसा कर उठती है कटिया वाले कमरे से,
मैंने चाहे थे
ताजे भुने चने के होरे
जिन पर इंल्ज़ाम न हो किसी पेस्टीसाइड से यारी का,
मैंने चाहा था
लोटा भर धारोष्ण दूध
उस गाय का
जिसने कभी न खाया हो कपिला पशु आहार
बल्कि चराते हों जिसे चरवाहे
घूम-घूम कर गीत गाते हुए,
मैंने चाहा था
केले के पत्ते पर रखा गरम-गरम ताजा गुड़
जिसके लिए टूट पड़ते थे हम सब बचपन में,
मैंने चाही थी
एक कटोरा ठण्डी रसियाउर
बेला भर मलाई वाले दही के साथ,
मैंने चाही थी
कांसे की थाली में
दो मकुनी के साथ थोड़ा सा चोखा
किंतु मैं निराश हुआ...
इनमें से कुछ भी नहीं मिलता
इस फ़ाइव स्टार होटल में ।


//दो // 



छुक-छुक वाली रेलगाड़ी
पुक-पुक वाली चक्की
अब नहीं चलती
गंगाराम को अपने ज़माने से अच्छा
कुछ नहीं लगता ।
जब पहली बार सरकारी ट्यूब-वेल खुदा
फिर ग्राम-प्रधान का ट्यूब-वेल खुदा
तो सूख गया था गंगाराम का कुआँ
और बंद हो गया था पुर
बैल हो गये थे उदास
वे नहीं सुन पाते थे गंगाराम का ददरिया ।
उसी गंगाराम को
जवानी के दिनों में प्यार हो गया था
खेत में पानी बराते समय
नन्हें लाल की बिटिया से
जब वह चलाता था पुर
और आलू के खेत में खुरपी लेकर खड़ी रहती थी
बरहा काटने और बंद करने की प्रतीक्षा में
नन्हें लाल की बिटिया ।
वह उखाड़कर देती थी गंगाराम को
आलू के बरहों के बीच-बीच उगी मूली
गंगाराम को वह मूली मीठी लगती थी ।
सुना है
अब गंगाराम ने छोड़ दिया है मूली खाना । 


2 टिप्‍पणियां:

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.