मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017
शिक्षण संस्थाओं में अमर्यादित और निरंकुश होते विरोध-प्रदर्शन...
फ़ौज़ी
पिता के अनुशासन में पली-बढ़ी लेडी श्रीराम कॉलेज की छात्रा गुरमेहर कौर को
राष्ट्रवादियों के विरुद्ध मोर्चा क्यों खोलना पड़ा ? इस प्रश्न का उत्तर हम सबको
आइना दिखा सकता है ।
अब
किस्सा यूँ है कि रामजस कॉलेज के प्रबन्धन ने एक समारोह में जे.एन.यू. के छात्र
उमर ख़ालिद को आमंत्रित किया जिसका अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की स्थानीय इकाई
द्वारा विरोध किया गया । विरोध प्रदर्शन हिंसा में बदल गया और दिल्ली के अन्य
कॉलेजेज़ के छात्रों को भी समर्थन या विरोध में उतरना पड़ा । ये वही उमर ख़ालिद हैं
जो पिछले वर्ष नौ फरवरी को भारत की राजधानी दिल्ली में भारत के हजार टुकड़े करने,
भारत की बर्बादी तक जंग जारी रखने और पाकिस्तान ज़िन्दाबाद जैसे कई उत्तेजक नारों
के साथ पूरे देश में चर्चित हुये थे । इन नारों के बाद देश-विदेश के कई विश्वविद्यालयों में उमर ख़ालिद के पक्ष में
व्याख्यानों औ प्रदर्शनों की बाढ़ आ गयी थी । भारतीय विश्वविद्यालयों के विद्वान
प्रोफ़ेसर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में अपने पूरे तर्कशास्त्र के साथ
सक्रिय होकर उमर ख़ालिद, शेहला रशीद शोरा और कन्हैया के साथ खड़े नज़र आये । इन
घटनाओं ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खीचा किंतु तथाकथित राष्ट्रवादी और
विखण्डनवादी समूहों के अतिरिक्त अन्य बुद्धिजीवियों ने तमाशा देखने से अधिक और
किसी सक्रियता का प्रदर्शन नहीं किया । मेरे लिए यह स्थिति व्यथित करने वाली थी ।
विखण्डनकारियों के समूह को उत्तर दिया जाना आवश्यक था, मेरी पुस्तक “प्रतिध्वनि”
इसी का परिणाम थी जो इसी वर्ष जनवरी में दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में
प्रदर्शित हुयी ।
हम
गुरमेहर कौर की बात कर रहे थे । 22 फ़रवरी को जब रामजस कॉलेज में छात्रों के दो समूहों
का विरोध प्रदर्शन हिंसक हो उठा और हिंसा का आरोप अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद पर
लगाया जाने लगा तो गुरमेहर कौर को विद्यार्थी परिषद के विरोध में सामने आना पड़ा ।
गुरमेहर कौर के अनुसार वे विरोध प्रदर्शन के हिंसक स्वरूप के विरुद्ध हैं, वे इसे
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन मानती हैं । पिछले कुछ वर्षों से भारत के
बुद्धिजीवियों में “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” एक चर्चित और विवादास्पद विषय रहा
है । हमें चिंतन की इन दो परस्पर विरोधी धाराओं पर गहन और निष्पक्ष मंथन करना होगा
।
उमर
ख़ालिद और शेहला रशीद शोरा आदि के साथ खड़ा बुद्धिजीवियों का एक विशाल समूह उन लोगों
की अभिव्यक्ति को सम्मान देने के पक्ष में है जो भारत की सम्प्रभुता को चुनौती
देने वाले हैं । इनका तर्क है कि भारत के साथ रहने या नहीं रहने के लिए भारत के किसी
भी व्यक्ति को बाध्य नहीं किया जा सकता । किसी देश की सीमायें सरकार द्वारा नहीं
नागरिकों द्वारा निर्धारित की जानी चाहिये । इसलिये भारत के हर नागरिक को भारत में
रहने, न रहने, पाकिस्तान में सम्मिलित होने या अपने लिए भारत को खण्डित कर नये देश
निर्मित करने का नैसर्गिक अधिकार है । यूँ, इस मत के पोषक लोग अपने तर्कों में
जाति, समुदाय, वर्ग, धर्म और सरहदों को मनुवादी मानते हुये इन्हें शांति और विकास
के लिए बाधक तत्व मानते हैं । इनके अनुसार धरती के सभी मनुष्यों की केवल एक ही
जाति है जिनके लिए पूरी धरती ही एक देश है । विभिन्न देशों का निर्माण कुछ लोगों
की स्वार्थपरता और शासन करने की इच्छा का परिणाम है जिसका आधार विभाजन और परिणाम
शोषण है ।
सुनने
में यह अच्छा लगता है किंतु व्यावहारिक धरातल पर देखें तो यह किसी यूटोपिया से कम
नहीं है । मनुवाद की कितनी भी भर्त्सना क्यों न की जाय, मनुस्मृति के सिद्धांतों
की व्यावहारिकता को नकारा नहीं जा सकता । कई नकारात्मक पक्षों के बाद भी वर्गभेदों,
सम्प्रदायों, सरहदों, रक्तसमूहों, और चिंतन की विभिन्नताओं को समाप्त किया जा सकना
सम्भव नहीं है । इन्हें व्यवस्थित करना ही होगा । सीमाविहीन एक विराट देश की
कल्पना नितांत अव्यावहारिक है । वर्गविहीन और अभिन्नमत मानवसमाज की स्थापना की ज़िद
आदर्श किंतु अव्यावहारिक है ।
आप इनकी
मानसिकता के विश्लेषण में दो परस्पर विरोधी विचार पायेंगे । ये लोग एक ओर तो सरहद रहित
एक वैश्विक गाँव की वकालत करते हैं किंतु वहीं भारत को खण्ड-खण्ड कर अपने लिए
पृथक-पृथक कई देशों के निर्माण के नारे लगाते हैं । इनके वैश्विक गाँव में भारत को
पाकिस्तान में सम्मिलित किए जाने की उद्घोषणा इनके वैचारिक छल का स्पष्ट प्रमाण है
। रामजस कॉलेज, जे.एन.यू. जाधवपुर विश्वविद्यालय आदि के विद्वान प्रोफ़ेसर्स की दृष्टि में ऐसे वैचारिक छलों की अभिव्यक्ति
को स्वतंत्रता मिलनी ही चाहिये । हम इस तरह के छलपूर्ण और भ्रमोत्पादक विचारों की
अभिव्यक्ति को वर्गभेदकारी, विखण्डनकारी और मनुष्य समाज के लिए अहितकारी मानते हैं
। किंतु तब, क्या किसी विचार को प्रतिबन्धित कर दिया जाना चाहिये ? यदि हमारे मन
में किसी की हत्या का विचार उत्पन्न हो रहा है तो क्या उसे प्रतिबन्धित नहीं किया
जाना चाहिये ? नियम, कानून, संविधान, व्यवस्थायें... ये सब प्रतिबन्ध ही तो हैं ।
हमें तय करना होगा कि बहुसंख्य समाज के लिए क्या हितकारी और अहितकारी है । हमें
उसकी सीमायें और व्यवस्थायें तय करनी होंगी । स्वतंत्रता के नाम पर स्वेच्छाचारिता
को प्रश्रय नहीं दिया जा सकता ।
अब
प्रश्न यह उठता है कि व्यवस्थापक कौन है ? प्रतिबन्ध का अधिकार किसे होना चाहिये ?
क्या किसी व्यक्ति, समुदाय, संस्था या राजनीतिक दल को यह अधिकार मिल जाना चाहिये ?
तो फिर सरकारों और उनके अंगों का क्या औचित्य ? वैचारिक टकराव जब आमने सामने होता
है तो वहाँ भीड़ की मानसिकता उग्र हो उठने की सम्भावनायें होती हैं ऐसी
परिस्थितियों पर नियंत्रण करना स्थानीय प्रशासन का दायित्व है । विरोधी को
बलात्कार की धमकी देना या हिंसक कार्यवाही करना किसी भी स्थिति में स्वस्थ
मानसिकता का परिचायक नहीं माना जा सकता । यह अलोकतांत्रिक, अमानवीय, निन्दनीय और
आपराधिक है । दूसरी ओर गुरमेहर हिंसक झड़प में शिकार हुये लोगों को निर्दोष बताते
हुये उनके समर्थन में उतर पड़ी हैं । हम स्पष्टरूप से हिंसक झड़प का विरोध करते हैं
किंतु शिकार हुये लोगों को निर्दोष नहीं मान सकते । उमर ख़ालिद जैसे लोगों के
समर्थन में सामने आने वाला व्यक्ति निर्दोष नहीं माना जा सकता । विवेक और संविधान
के आलोक में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और स्वेच्छाचारिता में स्पष्ट विभाजन रेखा
है जिसे स्वीकार किया जाना चाहिये । ऐसा प्रतीत होता है कि गुरमेहर युवा भीड़ की
एकांगी मानसिकता की शिकार हो गयी हैं वहीं अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने पत्थर
का विरोध करने के लिए हाथ में पत्थर उठा लिए हैं ।
गुरमेहर
कौर को पिछले वर्ष कन्हैया, उमर ख़ालिद और शेहला रशीद ब्रिगेड की विरोध शैली को भी
स्मरण करना चाहिये । इस सम्बन्ध में गत वर्ष यानी 2 मई 2016 को चेहरे की चौपाल पर
मेरी एक टिप्पणी का पुनरावलोकन प्रासंगिक है –
“हम
तुम्हारा विरोध करेंगे किंतु तुम्हें हमारा विरोध करने का कोई अधिकार नहीं ....
इसी
जीवनदर्शन से प्रभावित कन्हैया समर्थकों ने पटना में कन्हैया के एक विरोधी को जम
कर पीट दिया । कन्हैया की कॉंफ़्रेंस में भारतमाता की जय लगाते हुये काले झण्डे
दिखाने वाले एक युवक को कन्हैयाभक्तों द्वारा पीटे जाने के बाद पुलिस ने हिरासत
में ले लिया ।
यहाँ यह
बताना आवश्यक है कि वीवीआईपी सुरक्षा व्यवस्था केवल कन्हैया के लिये है कन्हैया
समर्थकों द्वारा पिटने वाले विरोधियों की सुरक्षा के लिये नहीं । यही नीतिश बाबू
का लोकतंत्र है और यही कन्हैया के साम्यवाद का सच्चा स्वरूप है ।
कन्हैया
ने अपनी राजनीति की शुरुआत ही पश्न पूछने और विरोध करने के अधिकार एवं अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता की माँग से की है । साम्यवाद दूसरों का विरोध करता है किंतु दूसरों
को अपने विरोध या आलोचना का अधिकार नहीं देता । साम्यवादी अपने विरोधियों को अपना
घोर शत्रु मानते हैं और उनकी हत्या कर देने के अभ्यस्त रहे हैं । साम्यवादी देशों
का इतिहास ऐसी जघन्य हत्याओं से भरा पड़ा है” ।
सोमवार, 27 फ़रवरी 2017
केवल माओवादी
नहीं सीखा मेरी कलम ने चुप रहना
तुम जब-जब बनाओगे
किसी लड़की को मीना खलखो
मेरी कलम मुखरित हो उठेगी ।
आग बुझाने वाले हाथ
जब लगाने लगें आग
और तापते रहें
सारा दिन सारी रात
तो लाल रंग से लिखा जायेगा
कि क्या हुआ था मीना खलखो के साथ ।
आठ साल की उम्र होती ही कितनी है
इतने ही साल और भी जिये थे तुमने
माँ और सहेलियों के साथ
बीनते हुये महुआ, अण्डी, चार ...
और बस !
इतने में ही पहचान ली गई थीं तुम
कि हो गयी हो अब
नोची जाने के लिए तैयार
अचानक
एक दिन बना दी गयीं तुम
एक और निर्भया ।
कोई नहीं जानता
उस दिन
जंगल से उठा लेने के बाद
क्या हुआ तुम्हारे साथ
रात साढ़े तीन बजे गाँव वालों ने सुनी थी
तीन गोलियों की आवाज़
और देखी थी सुबह
तुम्हारी लाश ।
निर्भया की तरह तुम ज़िन्दा नहीं थीं सुबह तक
यह बताने के लिए
कि किस तरह नोचा गया था तुम्हारा शरीर
क्या हुआ था दिन भर और रात भर
तुम्हारे साथ ।
आग लगाने वालों ने तो
यह भी बताया था कि
लोंगरखोला के जंगलों में
किस तरह बुझाते रहे थे वे आग
सारा दिन सारी रात
तुम्हारे साथ ।
सचमुच
ज़िस्मानी आग कितनी भयानक होती है
कि रच लेती है कूट साक्ष्य
और
जिसने जीते जी नहीं देखी कभी बन्दूक
उसकी लाश के हाथों में थमा देती है ए.के. सैंतालीस
बना देती है माओवादी
गढ़ लेती है मुठभेड़ की कहानी ।
आज
मुश्किल हो गया है मेरे लिए
फ़र्क़ कर पाना
तुममें
और ख़ूंख़ार माओवादियों में ।
मुझे
अपने चारों ओर दिखायी देने लगे हैं
माओआदी और केवल माओवादी
देखो !
अब कभी मेरे सामने देशभक्ति की बात मत करना ।
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