आपस में
टकराते धर्म जब विनाश को आमंत्रित करने लगें तो दुनिया के हर देश को चीन बन जाना चाहिए
। कानपुर, बलिया, बाराबंकी, प्रतापगढ़ और खण्डवा आदि नगरों में कल से हो रही हिंसा के
परिप्रेक्ष्य में हमें चीन के धार्मिक दृष्टिकोण पर गम्भीरता से चिंतन करना होगा ।
दो समुदायों की धार्मिक परम्पराओं... दुर्गा पूजा और मोहर्रम पर आपस में टकराती
विचारधाराएं अपने हिंसक स्वरूप में प्रकट होकर धार्मिक स्वतंत्रता के औचित्य पर प्रश्न
चिन्ह लगा रही हैं ।
देश को सोचना
होगा कि धर्म यदि इतने असहिष्णु हैं तो उनकी समाज और देश के लिए आवश्यकता ही क्या
है ? आप कहेंगे कि धर्म नहीं, लोग असहिष्णु हैं । तब मैं कहूँगा कि वह धर्म ही
कैसा जो लोगों को सहिष्णु बना सकने में सक्षम नहीं है ? हमें उस तत्व की आवश्यकता
है जो लोगों को सहिष्णु बना सके ।
मोहर्रम
के अवसर पर, कश्मीर और बंगाल के बाद अब भारत के अन्य स्थानों में भी धार्मिक एकता
के सिद्धांत के नाम पर एक बार फिर रोहिंग्याओं और पाकिस्तान के पक्ष में उत्तेजक
नारे लगाए गये । राष्ट्र से पहले जब धर्म को प्राथमिकता दी जाने लगे तो समझ लेना
चाहिए कि राष्ट्रीय एकता गौण है और राजनीतिक व्यवस्थाएं समाज के लिए निरर्थक हो
चुकी हैं ।
आज भारत
की सांस्कृतिक और धार्मिक पृष्ठभूमि बहुत अधिक धुंधली हो चुकी है और भारतीय पहचान समाप्तप्राय
है । वर्तमान भारत के दो धर्म आपस में बारम्बार टकराते हैं, उनकी विचारधाराएं,
उनके आदर्श, उनकी मान्यताएं और उनके जीवनमूल्य परस्पर विरोधी हैं । सत्ताएं ऐसे
अवसरों का लाभ उठाने के लिए प्रतीक्षित रहती हैं । वे यह प्रदर्शित करना चाहती हैं
कि वे ही भारत में गांधी के वादे को पूरा कर पाने में सक्षम हैं यानी मुसलमानों को
उनकी आस्थाओं-विचारों और मूल्यों के साथ रहने की स्वतंत्रता दे पाने में उनकी बराबरी
कोई नहीं कर सकता । धर्माधारित द्विराष्ट्र सिद्धांत का यदि अक्षरशः पालन किया गया
होता तो शायद आज यह स्थिति नहीं होती । किंतु दुर्भाग्य से यह स्थिति तो 1947 में ही
निर्मित हो चुकी थी । और अब मुस्लिम नेताओं से लेकर उनके धर्मगुरुओं ने शिक्षित युवाओं
के साथ भारत में एक और आंतरिक राष्ट्र की नींव डाल दी है जिसके मूल्य और आदर्श
भारत से भिन्न हैं । ...तो स्पष्ट है कि तमाम झूठे आश्वासनों और नारों का गुबार एक
दिन भीषण आग बनकर प्रकट होने वाला है । अब समस्या यह है कि वर्तमान स्थितियों के
होते हुये भारत को इस आग से कैसे बचाया जाय ? मुझे लगता है कि हमारे पास सभी
धार्मिक अनुष्ठानों के सार्वजनिक प्रदर्शनों पर पूरी तरह रोक लगाने के अतिरिक्त अब
और कोई उपाय नहीं है ।
इन विषयों
को लेकर टीवी चैनल्स पर बुद्धिजीवियों की असहिष्णु बहस निराश करती है । धार्मिक समुदायों
की खुले आम चुनौतियों से उनके लक्ष्य की ओर निरंतर मिल रहे संकेतों के बाद भी इस
देश की जनता अज़ीब नीम बेहोशी की स्थिति में है । भारत की भौगोलिक और राजनीतिक
सीमाएं एक बार फिर करवट बदलने के लिए तैयार हैं, इसे हर हाल में रोकना ही होगा ।
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