प्राचीन
इतिहास में दुष्ट और अत्याचारी राजाओं के साथ-साथ प्रजावत्सल राजाओं के भी आख्यान
पढ़ने को मिलते हैं । भारत की वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में “प्रजावत्सलता” का
गुण एक स्वप्न भर होकर रह गया है । वर्तमान भारत के ऐतिहासिक आख्यानों में हमारी
आने वाली पीढ़ियों को शासकों के केवल एक ही वर्ग के आख्यान पढ़ने को मिल सकेंगे । यह
असंतुलन कलियुग की चरमावस्था का द्योतक है तथापि अभी हम किसी अवतार की सम्भावनाओं
के समीप भी नहीं हैं । हमें अपने उद्धार का पथ स्वयं ही निर्मित करना होगा ।
प्रजा
को वर्तमान शासकों से यह आशा करने का कोई आधार नहीं है कि वे लोकहित का कोई कार्य या
उद्धार जैसा कोई महान कार्य कर सकेंगे । विश्व के सभी देशों में न्यूनाधिक यही
स्थिति है । सत्ताधीश लोकहित्त के न्यूनतम कार्य भी उतने ही करते हैं जितने कि
सत्ता में बने रहने के लिए अपरिहार्य हों । प्रजा की स्थिति पिंजरे में बन्द उस
शेर की तरह होती है जिसे केवल जीवित भर रहने के लिए भोजन दिया जाता हो । आधुनिक
औद्योगिक वैश्वीकरण केवल निर्मम शोषण के सुदृढ़ स्तम्भों पर टिका हुआ है । रेशम पथ
को पुनः स्थापित करने के पीछे चीन की तड़प और तिकड़म इसका ताजा उदाहरण है । आधुनिक
तकनीक और वैश्वीकरण ने निर्ममता एवं शोषण को और भी व्यापक कर दिया है ।
अब हमें
यह निर्मम सत्य स्वीकार कर लेना चाहिए कि सत्ता, औद्योगिक क्रांति और शोषण का
गठबन्धन उस निरंकुश शक्ति के लिए आवश्यक है जिसके लिए सत्ताधीश लालायित रहते हैं ।
हमें यह सत्य भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि सत्ताधीशों की जाति से प्रजा की जाति
पूरी तरह भिन्न हुआ करती है । हमारे देश में प्रशासनिक अधिकारी नामक एक तीसरी जाति
और होती है जो सत्ताधीशों के लिए हथियार का काम करती है । आदर्श के भूखे और जागरूक
लोगों को सत्ताधीशों और उनके हथियारों की
धूर्तता कभी रास नहीं आती ।
सत्ताधीशों
की योजनाओं और आश्वासनों के छल को समझने के लिए हमें सत्ताधीशों और संतों के
उद्देश्यों एवं उनकी कार्यप्रणाली को ध्यान में रखते हुए विश्लेषण करना चाहिए ।
सत्ताधीश चौथ वसूलने वाले दबंगों की जाति का वह संगठित धड़ा है जिसने शोषित प्रजा
से ही बड़ी चालाकी और धूर्तता से चौथ वसूलने के अधिकार को प्राप्त कर लिया है ।
अर्थात् भेड़िए ने खरगोश का शिकार करने की मान्यता खरगोश से ही प्राप्त कर ली है । आम
आदमी को यह स्वीकार करना होगा कि भेड़िए से किसी सात्विक गुण की आशा नहीं की जा
सकती । मर्यादापुरुषोत्तम या विक्रमादित्य जैसे लोग विरले ही होते हैं । रावण, कंस
और जरासन्ध की भीड़ से मर्यादापुरुषोत्तम के आदर्शों की आशा नहीं की जानी चाहिए ।
हम
सत्ताधीशों से यह आशा नहीं कर सकते कि वे शासन तंत्र के आदर्श मूल्यों को जीते हुए
लोककल्याण में प्रवृत्त होंगे । यह एक उच्च मानवीय गुण है जो सात्विक संतों के ही
आचरण में मिल सकता है । इसका सबसे बड़ा प्रमाण है दुनिया भर में फैले आतंकवाद को
पोषित करने वाले आर्थिक स्रोतों को संरक्षण देने वाले देशों के राजनीतिज्ञों की
महत्वाकांक्षाएं । शक्तिसम्पन्न देश चाहें तो आतंकवाद को समूल नष्ट करने में
विलम्ब नहीं होगा ।
मिथ्या आश्वासनों,
दम्भपूर्ण मिथ्या प्रदर्शनों और आत्म प्रशंसा के आडम्बर में मुग्ध राजनीतिज्ञ से
लोककल्याण की आशा करना व्यर्थ है ।
समाज
अपनी स्वाभाविक ऊर्जा से लुढ़कता हुआ चलता है, लोग अपनी दिव्य ऊर्जा से आगे बढ़ते
हैं, सत्ता का उसमें कोई योगदान नहीं होता, प्रत्युत सत्ताएं तो उनके मार्ग की
अवरोधक ही होती हैं । यह सब लिखने का उद्देश्य आलोचना करना नहीं अपितु वास्तविकता
को समझ कर स्वीकार करना और तदनुसार अपने उत्थान का मार्ग स्वयं तलाश करना है ।
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