बुधवार, 14 फ़रवरी 2018

बदमाश औरतें

सर्दियों की एक दोपहर । मरीज़ों की भीड़ के बीच डाकिए ने पैकेट थमाया, एक कागज पर हस्ताक्षर लिए और चला गया । ओपीडी निपटाने के बाद एक बजे भोजनावकाश में पैकेट खोला तो सामने थी “बदमाश औरतें” ।
मेरी कल्पना के मंच पर चेहरे को काले नकाब से ढके, हाथ में बंदूक उठाए घोड़े को भगाती पुतली बाई नुमा कुछ औरतें धूल के गुबार उड़ाती हुईं निकल गईं । थोड़ा साहस जुटाया... किताब खोली... तब तक पुतलीबाई जा चुकी थी । वह वापस नहीं आई, मैंने चैन की सांस ली किंतु...
किंतु...  पहले सफ़े पर ही अस्पताल का एक कमरा दिखाई दिया । यह बर्न यूनिट था, अपनी ख़ास गंध के साथ । सफ़ेद पट्टियों में लिपटे ज़ख़्म... कराहते लोग... कुछ ज़िंदगी तो कुछ दर्द से मुक्ति के लिए मौत माँगते लोग । उफ़्फ़ ! दर्द... दर्द... दर्द... और दर्द । बेड नम्बर एक पर ही मिल गई चुन्नियों में लिपटे दर्द ... दर्द की महक और ख़ामोश चीखों वाली हीर । ख़ामोशियों के जंगल में वक़्त धीरे से मुस्कराया, हीर ने मेरी तरफ़ नज़रें उठाकर देखा फिर बोली  “अभी और इम्तहां बाकी है ....” । मैंने कहा – “बिना इम्तहां भी कोई ज़िंदगी होती है भला”! 
बात सुनकर हीर मुस्कराई, दर्द मुस्कराया, कुछ और नज़्में भी मुस्कराने लगीं । अस्पताल के वार्ड में रात घिर आई थी, अँधेरों ने फफोलों को छू दिया, सिसकती रात के ज़िस्म से फिर रिसने लगीं कुछ नज़्में ।
ठहरी हुई औरत भीतर से कितनी भरी हुई है... यह कोई नहीं जानता और वह झील की तरह शरीफ़ मान ली जाती है । दुनियादारी की मानें तो यही रिवाज़ है ।
कभी-कभी भरी हुई कोई औरत ठहर नहीं पाती... वह झील नहीं...  बहती हुई सरिता बन जाती है और पुराने रिवाज़ टूटने लगते हैं । पास खड़े बरगद को किसी रिवाज़ का टूटना अच्छा नहीं लगता... तो पल भर में बहती नदी सैलाब के आरोपों से घेर दी जाती है । दुनियादारी की मानें तो यह भी एक रिवाज़ है ।
रिवाज़ें जब टूटती हैं तो “आग पर कदम” रखने पड़ते हैं । यह आग सवाल करती है, हीर भी सवाल करती है ...और सवाल करने वाली हर औरत की तरह चुप-चुप रहने वाली शर्मीली हीर भी एक “बदमाश औरत” बन कर नज़्मों की छाती में सुलगते अक्षरों की अगन बो देने के लिए बेताब हो उठती है । आग बो देने का यह संकल्प ही हीर की संवेदनाओं को झील से निकालकर बहती नदी बना देता है । सूखे पेड़ पर टंगी कविता बह उठती है, किसी रचनाकार की रचनाधर्मिता का यह चरम बिंदु है ।
औरतें कविता नहीं लिखतीं, ख़ुद हो जाती हैं कविता... और बेदर्द दुनिया की बेहयाई तो देखिए कि बड़ी चालाकी से हर हमदर्दी का लफ़्ज़ औरत के ज़िस्म से लिबास उतारने और उसे तवायफ़ बनाने में जुट जाता है । लेकिन हक़ीकत का एक और पहलू यह भी है कि हीर की सबसे छोटी नज़्म “तवायफ़-1” पल भर में में लोगों को नंगा कर देती है और पाठक भौंचक हो देखता रह जाता है ।
हीर की नज़्मों में अँधेरे की ग़िरफ़्त में घुटती रोशनी की कुछ कतरे हैं, आनंद की तलाश में छटपटाते दर्दों के काफ़िले हैं, बेपनाह मोहब्बत में डूबे बेहद नाज़ुक शीशे हैं, दुनिया को नंगा करती चीखें हैं, शराफ़त के चोले में दम घुटकर मर जाने से इंकार कर देने वाली बदमाश औरते हैं और है शाश्वत प्रेम की तलाश । यह तलाश ही साहित्य को प्रवाह देती है और उसे मरने से बचाती है ।   
धुप्प अँधेरेमें कहीं कंकरीली कहीं दलदली तो कहीं तपती रेतीली धरती पर भटकने की अभ्यस्त हीर ने पता नहीं कब अपने आसपास बिखरी...  नम हो चुकी राख में से चिंगारियाँ खोजकर अपने सीने में सहेज लेने में महारत हासिल कर ली थी... नदी की रेत में से सोने के बारीक कण खोजते किसी वंचित सोनझरिया की तरह । हीर की सहेजी ये चिंगारियाँ अब सम सामयिक साहित्य की ही नहीं बल्कि सैद्धांतिक क्रिटिक की भी अमानत बन चुकी हैं ।      

नज़्म हमारे आपके चारों ओर हर वक़्त साया बनकर चलती है पर दिखती कभी नहीं । नज़्म को देखन के लिए हीर जैसी आँखें चाहिए । जब कोड़े बरसते हैं तो नज़्म गर्भ में आती है । इस नज़्म के पैदा होने की राह में चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं, हाथों में छुरे लिए चारों ओर खड़े ज़र्राह मौके की तलाश में हैं । नज़्म को गर्भपात से ख़ुद को बचाना होगा । हीर को यह बात अच्छी तरह पता है इसलिए एक सजग गर्भिणी की ज़िम्मेदारियों को निभाती हुई हीर ने दर्द की कई मंजिले तय कर ली हैं । हीर की यह यात्रा... यह तलाश... यह क्रांति... अनवरत चालू है... उन्हें यह पक्का यक़ीन है कि कुछ अधूरी नज़्में...  ताउम्र का साथ निभा जाती हैं...  लिखे जाने के इंतज़ार में । 


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