यहूदी
देश... इस्लामिक देश... ईसाई देश...
कहाँ है हिंदू देश ?
इज़्रेल अत्याधुनिक वैज्ञानिक संसाधनों और उपलब्धियों वाला देश है
किंतु यह भी पर्याप्त नहीं लगा उसे । आख़िर अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों की पहचान के अतिरिक्त
उसे एक और पहचान... धार्मिक पहचान की ज़रूरत क्यों पड़ी ? और क्यों उसे अपनी राष्ट्रीय राजधानी तेल अबीब से यरूशलम ले जाने का निर्णय
करना पड़ा जिसका तुरंत ही अमेरिका द्वारा समर्थन भी कर दिया गया ?
हम इस विषय पर चिंतन करेंगे किंतु इससे पहले इज़्रेल की उस आंतरिक
स्थिति पर भी चर्चा करना आवश्यक है जिसमें 47 प्रतिशत जनप्रतिनिधियों ने संसद में इसका
विरोध किया । यूँ 53 प्रतिशत बहुमत के आधार पर ज़्यूस नेशन बिल को गणितीय मज़बूती के
साथ पारित कर दिया गया । यह अंतर बहुत अधिक नहीं है, दूसरे 47
प्रतिशत मतों को यूँ ही कूड़ेदान में नहीं फेका जा सकता । ज़ाहिर है कि आने वाले दिनों
में इज़्रेल की 20 प्रतिशत अरबी मुस्लिम जनता अपनी धार्मिक और भाषायी पहचान को स्थापित
करने के लिए संघर्ष करेगी । यहाँ यह स्पष्ट करना प्रासंगिक है कि अरबी अब इज़्रेल की
आधिकारिक भाषा नहीं रही, इसका स्थान अब हिब्रू ने ले लिया है
। वर्षों से अपनी धार्मिक और भाषायी पहचान स्थापित करने के संघर्ष में एक ओर जहाँ यहूदियों
को सफलता मिली है वहीं अरबों को उनकी धार्मिक और भाषायी पहचान के खोने का दुःख उन्हें
संघर्ष के लिए प्रेरित करेगा ।
किंतु वास्तव में मामला न तो धर्म का है और न भाषा का । असली मामला
तो है प्राकृतिक और औद्योगिक संसाधनों पर अपने-अपने वर्चस्व की सियासत का । चारों ओर
अरब देशों से घिरे इज़्रेल को शह देने वाले अमेरिका के अपने स्वार्थ हैं जो हमेशा की
तरह किसी भी मामले में घी डालने का काम करते हैं ।
हमें भारत के संदर्भ में इस पूरी घटना को देखने की आवश्यकता है ।
भारत में मुसलमानों के लिये उनके धर्मगुरुओं द्वारा शरीया कानून की माँग करना एक देश
के भीतर दो तरह की व्यवस्थाओं की स्थापना की माँग करना है जिसके दूरगामी परिणाम कैसे
हो सकते हैं इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है । यह सब तब और महत्वपूर्ण हो जाता
है जब देश के भीतर आइसिस और पाकिस्तान के झण्डों को लहराने की बढ़ती घटनाओं के साथ तिरंगे
को जलाने और भारत के हजार टुकड़े करने की कसमें खाए जाने की घटनायें अनियंत्रित होती
जा रही हों, जब कश्मीर में दशकों से दहकती आग रोज-ब-रोज भड़कती
जा रही हो, जब पूर्वांचल के अल्पसंख्यक हिंदुओं को बहुसंख्यक
और बहुसंख्यक ज़मात के लोगों को अल्पसंख्यक माने जाने के अज़ीब गणित को सुधारने की चिंता
किसी को न होती हो... ।
अंत में हमेशा की तरह यह फिर कहना चाहूँगा कि वास्तव में धर्म का
दृष्टव्य और प्रभावी स्वरूप सियासत में ही देखने को मिलता है जिसका एकमात्र उद्देश्य
लोगों में असुरक्षा का भय उत्पन्न कर अपनी हुक़ूमत स्थापित करना रहा है ।