कौन करे
किसका अभिनंदन
कुल गर्दभ के करते मंथन ।
बस ! यही तेरा एक इष्ट !
शेष
केवल अनिष्ट, केवल अनिष्ट
!
चिंतनशून्य हुए जब-जब तुम
तर्कशून्य हुए तब-तब तुम
रीति उपेक्षित
सागर मंथन की
नहीं वासुकी नहीं मंदराचल
चहुँ ओर व्याप्त तुमुल कोलाहल
हो रहा क्रंदन ही क्रंदन ।
हैं सूने सारे देवालय
प्रज्वलित नहीं कहीं कोई दीप
तिमिर गहन में
पथ विहीन तू
चला जा रहा किधर बता तो !
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