शासकीय सेवाओं
में सम्मान की तलाश...
सुप्र यानी सुरेंद्र प्रपात सिंह का विश्वास है कि जातिगत
आधार पर शासकीय सेवाओं में दिये जाने वाले आरक्षण से उनके सम्मान की तलाश पूरी होती
है । हम इसका अर्थ यह भी निकाल सकते हैं कि उनके लिये शासकीय सेवा का उद्देश्य लोकहित
में गुणवत्तापूर्ण भागीदारी नहीं बल्कि व्यक्तिगत सम्मान भर पाना है ।
सुरेंद्र प्रताप सिंह को पत्रकारिता का महानायक माना जाता
है । नवभारत टाइम्स आदि समाचार पत्रों में समय-समय पर प्रकाशित उनके सम्पादकीय लेखों
का संकलन किया है आर. अनुराधा ने और पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया है राजकमल प्रकाशन
ने ।
पुस्तक को सामाजिक न्याय, सांप्रदायिकता, राजनीति-कांग्रेस, राजनीति-तीसरा मोर्चा, राजनीति-भाजपा, चुनाव-राजनीति, कश्मीर-समस्या समाधान, राजकाज-भ्रष्टाचार, अर्थनीति, समाज-संस्कृति, पत्रकारिता और परिशिष्ट में
वर्गीकृत कर सजाया गया है । परिशिष्ट में फ़िल्म “पार” के चुनिंदा संवादों के अतिरिक्त
गणेश जी के दूध पीने और उपहार सिनेमा अग्निकाण्ड पर टीवी रिपोर्टिंग के कुछ अंशों का
समावेश किया गया है ।
मुझे लगता है कि सप्र जी के आलेखों पर गम्भीर विमर्श की
आवश्यकता है । मैं धीरे-धीरे उनके आलेखों पर अपने विचार रखने का प्रयास करूँगा ।
पुस्तक के सामाजिक न्याय खण्ड
का पहला लेख है “मुद्दा नौकरी नहीं सम्मान है” जिसमें सुप्र आरक्षण के प्रबल
समर्थन में खड़े दिखायी देते हैं । वे “समाज में बराबरी का अधिकार पाने के लिए” शासकीय
सेवाओं में जातिगत आरक्षण हेतु कई शताब्दियाँ भी कम ही मानते हैं । उनके अनुसार, इस सम्बंध में वे विमर्श
तो चाहते थे किंतु इसके लिये उन्हें मित्रवत वातावरण का अभाव नज़र आया । सामाजिक और
शैक्षिक पिछड़ेपन के लिये वे ऐतिहासिक और आनुवंशिक कारणों को उत्तरदायी मानते हैं साथ
ही अनारक्षित वर्ग द्वारा आरक्षण के विरोध में दिये गये किसी भी तर्क को स्वीकार करने
के लिये वे तैयार भी नहीं होते । वे मानते हैं कि हिंदू समाज में शोषण और दमन का
जो व्यवस्थित चक्र हजारों साल से जाति व्यवस्था को आधार बनाकर चलाया जाता रहा है
उसे एक बार उल्टा चलाए बिना जाति व्यवस्था को समाप्त कर पाना छलावा ही होगा । सप्र
जी जातीय पिछडेपन को सवर्णों की साज़िश मानते हैं जो शोषित वर्ग के जायज अधिकारों
को हड़पना चाहते हैं । उनके अनुसार आरक्षण का विरोध करने वाले फासीवादी होते हैं जिन्हें
तर्क और न्याय से चिढ़ होती है ।
सात दशकों में आरक्षण से हुये सामाजिक परिवर्तनों की
वास्तविकता को देख चुकने के बाद भारतीय समाज को उसका निष्पक्ष गुणात्मक विश्लेषण करना
चाहिए । हमें यह सत्य स्वीकार करना होगा कि शासकीय सेवाओं में आरक्षण का उद्देश्य यदि
वर्ग विशेष का विकास करना है तो यह सिर्फ़ उतने कुनबे का ही मात्र आर्थिक विकास भर होगा, समग्र समाज और देश का सर्वाङ्गीण
विकास नहीं । क्योंकि कोई भी शासकीय सेवा पूरे समाज के लिये होती है न कि केवल एक परिवार
के लिये ! यही कारण है कि पिछले सात दशकों के बाद भी लोगों का पिछड़ापन दूर नहीं हो
सका है । आरक्षण का व्यक्तिगत लाभ केवल कुछ परिवारों तक ही सिमट कर रह गया है ।
सुप्र जैसे पत्रकार शासकीय सेवाओं में भी वर्गों के प्रतिनिधित्व
की बात करते हैं तो आश्चर्य होता है ।
प्रतिनिधित्व की आवश्यकता समाज को वर्गों में बांटती है
। विभिन्न वर्गों के राजनीति में प्रतिनिधित्व की तरह ही शासकीय सेवाओं में भी प्रतिनिधित्व
की बात को आश्चर्यजनक रूप से मौलिक अधिकार माना जाने लगा जबकि दोनों की प्रकृति अलग
है और उद्देश्य भी । सुप्र को लगता है कि आरक्षित वर्गों की तरह ही पिछड़े वर्गों को
भी शासकीय सेवाओं में अपने वर्गीय प्रतिनिधित्व के लिये आरक्षण मिलना चाहिये । किंतु
शासकीय सेवाओं में किसी भी वर्ग के आरक्षण की माँग को विवेकसम्मत नहीं माना जा सकता
। प्रतिनिधित्व एक सांख्यिकीय हठ है जिसका गुणात्मकता से कोई सम्बंध नहीं होता । और
बात जब गुणात्मकता की हो तो कोई समझौता क्यों किया जाना चाहिये ? खोये की मिठायी में नीबू-मिर्च
के प्रतिनिधित्व की और भिण्डी की सब्जी में दूध के प्रतिनिधित्व की माँग कितनी व्यावहारिक
और वैज्ञानिक हो सकती है इस पर पूरे समाज को चिंतन करने की आवश्यकता है ।
हम यह समझ पाने में असमर्थ हैं कि जिसे वैज्ञानिक
कार्यों में रुचि नहीं है उसे इस कार्य में प्रतिनिधित्व क्यों दिया जाना चाहिये ? जो क्रिकेट नहीं खेल
सकता उसे क्रिकेट में प्रतिनिधित्व क्यों दिया जाना चाहिये ? जो शिक्षा के लिए सुपात्र
नहीं है उसे शिक्षा में प्रतिनिधित्व क्यों दिया जाना चाहिये ? लोग यह क्यों नहीं समझना
चाहते कि गुणात्मक दक्षता के प्रतिनिधित्व के लिये आरक्षण एक अतार्किक, अवैज्ञानिक और
अन्यायपूर्ण व्यवस्था है जो उसके वास्तविक पात्रों के नैसर्गिक अधिकारों के बलात्
अपहरण का षड्यंत्र है ।
सप्र ने अपने आलेख में चार बातें बलपूर्वक कहने का
प्रयास किया है – 1-सामाजिक बराबरी के लिये जातीय आधार पर आरक्षण “जायज अधिकार” है, 2- जातीय दृष्टि से पिछड़े
लोगों के जायज अधिकारों को हड़पना सवर्णों की साजिश है, 3- आरक्षण का विरोध करने वाले
फासीवादी होते हैं जिन्हें तर्क और न्याय से चिढ़ होती है, 4- दक्षिण अफ़्रीका के
गोरे (नस्लीय शोषण की) अपनी सड़ी व्यवस्था तर्कों के सहारे लागू रखना चाहते हैं ।
शोषण और दमन के लिये सवर्णों को उत्तरदायी ठहराते समय
सप्र जी यह नहीं बताते कि जाति विशेष के लोग पिछड़े क्यों ? वे कब पिछड़ गए ? पिछड़े होने से पहले समाज में
उनकी स्थिति क्या थी ? पिछड़ेपन के मापदण्ड क्या हैं
? क्या शोषण का उलटा चक्र चलाने से शोषण पर सदा के लिये विराम
लग सकेगा ? क्या शोषण के अनवरत चक्र को सभ्य समाज का प्रतीक माना
जाना चाहिए ?
हमारे देश के विद्वान जब भी आरक्षण को अपना अधिकार
सिद्ध करने के लिए तर्क प्रस्तुत करते हैं तो वे शोषण और पिछड़ेपन के मूल कारणों के
इतिहास की पूरी तरह उपेक्षा सी करते हुये प्रतीत होते हैं । उनके पास एक ही रटा
रटाया तर्क होता है कि इस सबका कारण सवर्णों का जातिगत विद्वेष रहा है । वे इस बात
पर भी कोई चिंतन प्रायः नहीं करना चाहते कि प्राचीन भारतीय समाज की समाज व्यवस्था
के उत्कर्ष और उसके पराभव के वास्तविक कारण क्या रहे ?
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