गुरुवार, 16 मई 2019

भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद...


वर्ष 2014 में भाजपा की (मोदी की) सरकार आयी तो सारे विपक्षी हिंदू-राष्ट्रवाद को लेकर सशंकित हो उठे । केंद्र में भाजपा की सरकार आने से भारत को संघीय लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था से मुक्त करने का स्वप्न देखने वालों को झटका लगना स्वाभाविक था ।
भारत की एक बहुत बड़ी विडम्बना यह रही है कि यहाँ हर किसी के मन में अपने क्षेत्र का शहंशाह बनने की प्रबल इच्छा रहती है । कश्मीर में तो ऐसे लोगों की बहुत बड़ी संख्या है, अफ़ज़ल गुरु भी उन्हीं में से एक था । भारत की संसद पर आक्रमण करने के दोषी अफ़ज़ल गुरु को वर्ष 2014 में मृत्यु दण्ड दे दिया गया जिसे भारत के अलगाववादियों का एक बहुत बड़ा समूह अपनी पराजय के रूप में देख रहा था ।
कश्मीर भारत की एक दुःखती हुयी रग है । वर्ष 1990-91 में जब मण्डल आयोग को लेकर पूरे देश में विश्वनाथ प्रताप सिंह का विरोध हो रहा था, जयपुर के आमेर पैलेस के एक बड़े से हॉल में सुबह-सुबह हमने सुना कि रामबाग में दुकानों को आग लगा दी गयी है और शहर में कर्फ़्यू लगा दिया गया है । इस घटना के मात्र दो दिन पहले ही आमेर पैलेस के इसी हॉल में मेरी भेंट एक कश्मीरी छात्र से हुयी थी जिसने कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा और घाटी में दशकों से छाई दहशत का बयान किया था ।  
कश्मीर घाटी को हिंदू-मुक्त बनाने के लिए इस्लामिक कट्टर पंथियों के दशकों से कहर ढा रहे अमानुषिक अत्याचार घाटी के हिंदुओं पर दिनोदिन बढ़ते जा रहे थे और भारत की तत्कालीन सरकार कश्मीरी हिंदुओं को सुरक्षा दिला सकने में असफल हो रही थी । जयपुर में रहते समय मेरी अच्छी मित्रता हो गयी थी उस कश्मीरी छात्र से । वह जब भी मुझसे मिलने आता तो उसकी चर्चाओं में कश्मीर एक मुख्य विषय हुआ करता । वर्ष 1990-91 में इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा कश्मीरी पंडितों को अपनी बहू-बेटियाँ वहीं छोड़कर कश्मीर घाटी खाली कर देने का फ़रमान दे दिया गया था जिससे कश्मीरी पंडित दहशत में थे । अराजकता, असामाजिकता, जेनोसाइड, क्रूरता और अमानवीय आचरण की यह एक चरम स्थिति थी जिसके बाद कश्मीर घाटी खाली होने लगी और कश्मीरी पंडित अपने ही देश में शरणार्थी बनने को विवश हो गये । कश्मीर या भारत की सरकार अपने नागरिकों को सुरक्षा देने का अपना संवैधानिक दायित्व पूरा कर सकने में पूरी तरह असफल सिद्ध हो चुकी थीं जिससे भारत के इस्लामिक कट्टरपंथी और गज़वा-ए-हिंद अभियान के रणनीतिकार उत्साहित थे । वर्ष 2014 में भाजपा की मोदी सरकार के आने के बाद इन रणनीतिकारों ने दिल्ली और प्रधानमंत्री मोदी को अपने कठोर विरोध का केंद्र बना लिया था ।
वर्ष 2016 में फरवरी के नवें दिन दिल्ली के विश्वविख्यात जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्वयं को अलगाववादी बुद्धिजीवी मानने वाले कुछ युवकों ने कश्मीरी कवि आगा शाहिद अली के काव्य संकलन –“The country without a post office” जो कि मूल रूप से “Kashmir without a post office” के नाम से लिखी गयी थी, पर चर्चा के लिए एक कार्यक्रम आयोजित किया जिसका एक छद्म किंतु मुख्य उद्देश्य संसद पर आक्रमण करने वाले अफज़ल गुरु के मृत्युदण्ड की तीसरी बरसी मनाकर देश और दुनिया को अलगाववाद की नीति का संदेश देना था ।      
क्रिटिक को प्रगति का अनिवार्य तत्व और अपना आदर्श मानने वाली जे.एन.यू. की संस्कृति इस बार अपने उछाल पर थी । अलगाववादी बुद्धिजीवियों ने भारत की राजधानी के प्रख्यात विश्वविद्यालय परिसर में पाकिस्तान ज़िंदाबाद’, ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह’, ‘हम क्या चाहते आज़ादी’, 'हम लेके रहेंगे आज़ादी', 'गो इंडिया गो बैक', 'संग-बाजी वाली आज़ादी’, 'कश्मीर की आज़ादी तक जंग रहेगी – जंग रहेगी', 'भारत की बर्बादी तक आज़ादी की जंग रहेगी', 'हम छीन के लेंगे आज़ादी, लड़के लेंगे आज़ादी', 'तुम कितने अफ़ज़ल मारोगे, हर घर से अफ़ज़ल निकलेगा', 'तुम कितने मकबूल मारोगे, हर घर से मकबूल निकलेगा', 'अफ़ज़ल हम शर्मिंदा हैं, तेरे क़ातिल ज़िंदा हैं', 'अफ़ज़ल तेरे ख़ून से इंकलाब आएगाऔर इंडियन आर्मी को दो रगड़ा'… जैसे उत्तेजक नारे लगाकर भारत के प्रधानमंत्री को अपना संदेश देने का फिर एक सफल प्रयास किया ।
राजनीति की भाषा में इस तरह के नारे अलगाववाद और हिंसक विद्रोह की भूमिका माने जाते हैं ।  अफ़ज़ल हम शर्मिंदा हैं, तेरे क़ातिल ज़िंदा हैंऔर तुम कितने अफ़ज़ल मारोगे, हर घर से अफ़ज़ल निकलेगाजैसे नारों से भारत के सर्वोच्च न्यायालय एवं भारत राष्ट्र की सम्प्रभुता को सार्वजनिकरूप से चुनौती दी जाती रही ...पूरी दुनिया के साथ-साथ भारत की भीरु प्रजा भी इस बगावती ऐलान को देखती और सुनती रही ।    
इन अलगाववादी बुद्धिजीवियों में जे.एन.यू. के अध्येताओं के साथ-साथ कुछ कश्मीरी युवक-युवतियाँ भी सम्मिलित थे । इनमें से कई लोग मार्क्स और शोपेनहॉर को अपना आदर्श मानते थे और केरल में प्रारम्भ हुये “किस ऑफ़ लव” आंदोलन के भागीदार रह चुके थे ।
जे.एन.यू. परिसर में हुयी इस बगावत से वामपंथी विचारधाराओं को पटखनी देने और अपनी हिंदूवादी विचारधारा को प्रखर करने का एक संयोगजन्य अवसर सत्तारूढ़ दल को मिल चुका था । अब राष्ट्रवाद, देशभक्ति, राष्ट्रभक्ति, राजद्रोह और राष्ट्रद्रोह जैसे भारीभरकम शब्दों पर वैचारिक और कूटनीतिक बहस पूरे देश में प्रारम्भ हो गयी । भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसे शब्दों और इन पर होने वाली बहसों से भारत की आम प्रजा परिचित हो रही थी । जे.एन.यू. बगावत के अगुआ रहे कन्हैया कुमार भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों में व्याख्यान के लिये आमंत्रित किये जाने लगे । न चाहते हुये भी कन्हैया कुमार को पूरे देश ने एक बगावती राजनेता के रूप में स्थापित होते हुये देखा । मार्क्सवादी दल ने कन्हैया कुमार को बेगूसराय संसदीय क्षेत्र से अपना प्रत्याशी बनाकर राजनीतिक अखाड़े में उतारा तो कन्हैया कुमार पर एक सुस्थापित राजनेता की मोहर भी लग गयी । इस माह के अंतिम सप्ताह में बेगूसराय की प्रजा के निर्णय की प्रतीक्षा पूरे देश के साथ-साथ दुनिया भर की वामपंथी सत्ताओं को भी है ।

2 टिप्‍पणियां:

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.