पता नहीं यह विषय विवादित है या बना दिया गया है
! हम इतना ही कह सकते हैं कि कोई भी वैज्ञानिक दृष्टि "किंतु-परंतु" से परे
देखने का प्रयास करती है । सत्यान्वेषण कुछ बिंदुओं या तथ्यों के आधार पर नहीं हो सकता
। समग्रता और विहंगम दृष्टि अपेक्षित है इसके लिये । पूर्वाग्रह, भावुकता और संकुचित दृष्टि को छोड़कर आगे बढ़ना होगा
। सबसे पहले हमें आर्यावर्त के प्राचीन इतिहास, भारतीय उपमहाद्वीप
और उसके आसपास फैले द्वीपीय देशों के पारस्परिक सम्बंधों...उनमें समानताओं,
वैदिक साहित्य और पुराणेतिहास के अतिरिक्त भाषाओं और लिपियों के विकासक्रम
को भी भारत के मूलनिवासियों के परिप्रेक्ष्य में देखना होगा ।
हमें यह भी याद रखना होगा कि बंगाल की खाड़ी से
लेकर गुजरात तक के तटीय क्षेत्रों के आसपास मध्य एशिया, अफ़्रीका और योरोप से व्यापारियों का आना-जाना और
बसना होता रहा है । गोवा और चंदननगर में आज भी पुर्तगालियों की कॉलौनी हैं । कोच्चि
में अरबों और अफ़्रीकंस के वंशज रहते हैं । अब आप कल्पना कीजिये कि कुछ समय बाद यह सभ्यता
किसी कारण से समाप्त हो जाती है । फिर दस हजार साल बाद संयोग से इन्हीं स्थानों की
खुदाई की जाय ...जो कि भारत के विभिन्न प्रांतों में हैं तो इन सबकी डी.एन.ए. संरचना
में ज़बरदस्त भिन्नता देखने को मिलेगी । अब आप इस रिपोर्ट के आधार पर भारत के मूलनिवासियों
की गुत्थी तक कभी नहीं पहुँच सकेंगे । हमें ध्यान रखना होगा कि दुनिया भर में लोगों
के आने-जाने और बसने की दीवानगी नृवंशों की विशेषता रही है । हुंजा घाटी के लोगों को
ग्रीक सैनिकों का वंशज माना जाता है । किसी दिन यह किस्सा स्मृति से निकल जायेगा
...फिर हजारों साल बाद इनके उत्तराधिकारियों के डी.एन.ए. ग्रीक लोगों के डी.एन.ए. के
अधिक क़रीब पाये जाने पर क्या हुंजा वैली ग्रीक सभ्यता का केंद्र मान ली जायेगी ?
या यह माना जायेगा कि ग्रीकों ने हुंजा के मूल निवासियों को मारकर वहाँ
अपनी बसाहट कर ली ? इन तथ्यों के आधार पर आप अपने उद्देश्य के
अनुरूप किसी भी तरह का निष्कर्ष निकाल सकते हैं ।
अब जरा अमेरिका-कनाडा और योरोप के उन शहरों की
तरफ़ रुख किया जाय जहाँ आज भारतवंशी (भारत, नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान और
अफ़गानिस्तान)जाकर स्थायी रूप से बस गये हैं । दस हजार साल बाद वहाँ मिले इस तरह के
नगरों और खुदाई से प्राप्त नरकंकालों से आप किस तरह का निष्कर्ष निकालेंगे?
मुझे लगता है कि मूल निवासी का यह प्रश्न ही बेमानी
है । मनुष्य घुमंतू रहा है ...आगे भी रहेगा । हमें दो बातों पर सोचने की आवश्यकता है
...हमारा घुमंतू स्वभाव और व्यापार ।
सभ्यता ने हमें तीन मुख्य चीजें दी हैं - शासन, व्यापार और वैश्विक बसाहट । एक समय वह भी था जब
सिल्क, मसाले, चाय और इसी तरह की और भी
बहुत सारी चीजों की दुनिया भर में माँग और मुनाफ़ा कमाने की ज़रूरत ने कारवाँ कल्चर को
जन्म दिया । दुनिया भर के देश सिल्क और टी.हॉर्स जैसे कई रूट्स से होकर न जाने कितने
पड़ावों पर ठहरते हुये महीनों की यात्रायें किया करते थे । भाषा, लिपि और संस्कृति के साथ-साथ इन कारवाँओं के लोगों ने अपने जींस भी स्थानीय
लोगों को दिये । यह प्रक्रिया आज भी चल रही है । जेनेटिक प्योरिटी न कभी थी और न कभी
आगे रहेगी । हम सब मनुष्य हैं और यह पूरी धरती हमारी है । हम सब इस धरती के मूल निवासी
हैं ।
हाँ! आने वाले समय में जब चंद्रमा या मंंगल पर
हमारी नयी बस्तियाँ बस जायेंगी ...मूल निवासी का मुद्दा वहाँ काम आयेगा ।
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