दो अक्टूबर
और गांधी जयंती भारत में एक-दूसरे के पर्याय बन चुके हैं । दो अक्टूबर को ही जन्मे
लालबहादुर शास्त्री गांधी के आभामण्डल में पूरी तरह खो चुके हैं । गांधी जयंती के दिन
शास्त्री जयंती नेपथ्य में चली जाया करती है । शास्त्री जी को दो अक्टूबर के दिन खोजना
पड़ता है ।
- कभी-कभी
कोई विराट आभा मण्डल उस ब्लैक होल की तरह होता है जो अपने समीप आने वाले हर आभा मण्डल
को निगल जाता है । फ़िलहाल मंथन का विषय गांधी और शास्त्री नहीं बल्कि “किसकी झोली में
गांधी” है ।
- 1947 से
2014 तक गांधी एक ही झोली के लिए आरक्षित हुआ करते थे फिर 2014 में अचानक एक झोली और
खुल गई । गांधी एक हैं झोलियाँ दो हो गईं ।
- भारतीय
नोट पर गांधी हैं, गांधी पर वोट हैं, वोट एक संख्या है, संख्या से सत्ता का मार्ग प्रशस्त होता है ।
- गांधी
अब विचार नहीं वस्तु हैं, वस्तु के लिए छीना झपटी हुआ करती है, छीना झपटी पहले
कलह में और अंत में हिंसा में बदल जाया करती है । अहिंसा की बात करने वाले गांधी के
नाम पर अब हिंसा का वातावरण निर्मित हो गया है ।
- गांधी
किसी आश्रम से निकलकर सड़क पर आ गए हैं, गांधी के एक ओर हैं गोडसे और दूसरी
ओर हैं एक और गांधी जो स्वयं को गांधी का उत्तराधिकारी मानते हैं । हवा में कुछ हाथ
प्रकट होने लगे हैं जो असली और नकली गांधी पर उँगलियाँ उठाने लगे हैं । गांधी अवाक
हैं.. वे कुछ बोल नहीं पाते, पहले भी जब बोल पाते थे तब कितने
लोग उनकी बातें सुन पाते थे ?
- शायद गांधी
एक मात्र ऐसे हैं जिन्हें लेकर छीना-झपटी का वातावरण बन गया है । हिटलर, मुसोलिनी,
लेनिन, स्टालिन और माओ को लेकर कभी कोई छीना-झपटी
नहीं हुई ...मरने के बाद इनमें से कोई भी अपने देश के परस्पर विरोधी दलों के लिए गांधी
नहीं बन पाया ।
- गांधी
की आत्मा से यदि पूछा जाय कि परस्पर विरोधी दलों के लिए गांधी बनने का अनुभव कैसा रहा
तो शायद उनका उत्तर होगा कि किसी भी जननेता के लिए इससे अधिक दुर्भाग्य की बात और कुछ
नहीं होगी ।
- गांधी
अब एक वस्तु हैं, गांधी अब एक नारा हैं, गांधी अब एक सीढ़ी हैं, गांधी अब एक सत्ता के साधन हैं
...गांधी अब गांधी नहीं रहे, वे एक वस्तु हो गए हैं ।
गाँधी का आभामंडल शास्त्री को ही नहीं अपितु उनके स्वयं के आदर्शों और विचारों को लील रहा है....गाँधी को आत्मसात किये बिना गाँधी नाम का जाप करने वाले नाटककारों का अभिनय देखने वाले सारे दर्शक मूर्ख नहीं।
जवाब देंहटाएंहर वर्ष यही ढोल और नगाड़े बजते है उत्सव समाप्त होते ही सबके असली चेहरे सामने होते है।
सामयिक बेहद सार्थक लेख सर।
धन्यवाद श्वेता जी! मेरा संदेश आप तक पहुँचा,लिखना सार्थक हुआ ।
जवाब देंहटाएंVery good write-up. I certainly love this website. Thanks!
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