यदि यह राजतंत्र
होता तो अब तक ममता बनर्जी ने तलवार की दम पर पश्चिम बंगाल को भारत से जीत कर एक पृथक
राज्य बना लिया होता ।
विधानसभा
चुनाव के समय ममता बनर्जी ने कहा था कि वे ख़ून की नदियाँ बहा देंगी, …चुनाव
के बाद सबको देख लेंगी...। चुनाव हो गया और चुनाव परिणाम आते ही ममता ने सबसे पहले
अपने दोनों वादों को पूरा कर दिया । तब से आज एक सप्ताह बाद भी बंगाल में ख़ून की
नदियाँ बहायी जा रही हैं, यौनहिंसायें हो रही हैं, आगजनी और छुरेबाजी हो रही है, कश्मीर की तर्ज़ पर
धमकी दी जा रही है कि हिंदू या तो इस्लाम स्वीकार करें या फिर मरने के लिये या
बंगाल छोड़ने के लिये तैयार रहें । हिंदुओं के नस्लीय उन्मूलन से भारत का कोई
प्रगतिशील नागरिक अब चिंतित नहीं है, धर्मनिरपेक्षता का यह
उत्कृष्ट उदाहरण है ।
पश्चिम
बंगाल के मुस्लिम बहुल जिलों से हिंदुओं का पलायन शुरू हो चुका है और दुनिया के
तीस से भी अधिक देशों में इन घटनाओं को लेकर विरोध प्रदर्शन शुरू हो चुके हैं । अब
कोई मन की बात नहीं करता, हर ज़िम्मेदार आदमी इस समय मनमोहन सिंह बन गया है । धार्मिक हिंसाओं और
कश्मीर घाटी से हिंदुओं के पलायन से डरे हुये हिंदुओं ने भाजपा को वोट दिया था
...इस लोभ में वोट दिया कि मोदी हिंदुओं की रक्षा करेंगे । निर्बल का लोभ कभी पूरा
नहीं होता । हिंदुओं के सम्राट बने मोदी और अमित शाह ने हिंदुओं को निराश किया ।
पश्चिम बंगाल में हिंसा जारी है और भारत का हिंदू असहाय है ।
बंगाल
वह धरती है जहाँ अंधविश्वास, विज्ञान, संगीत, कला, देशभक्ति और
क्रांति के साथ विश्वासघात का भी ख़ूब खेला होता रहा है । बंगाल की धरती कई बार
रक्तरंजित होती रही है जिसके कारण वहाँ की धरती पर विदेशियों का भी शासन रहा,
यहाँ तक कि अरबी शासकों के ग़ुलामों का भी ।
सत्रहवीं
शताब्दी के आरम्भ में इत्योपिया से लाये गये हब्शी गुलामों और ख़्वाज़ासरों की
तलवारों में ताकत थी । मौका आते ही उन्होंने अपनी तलवारों का स्तेमाल किया और
बंगाल पर कुछ समय के लिये हुकूमत भी की । यह वह दौर था जब सत्ता के लिये तलवारों
के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं हुआ करता था । भय और हिंसा से सत्ता की छीनाझपटी
का वह दौर आज भी बीता नहीं है । पिछले माह सम्पन्न हुये पश्चिम बंगाल के विधानसभा
चुनावों के समय प्रारम्भ होकर अब तक जारी हिंसा के इस कटु सत्य को भारत भले ही न
देख पा रहा हो पर शेष दुनिया तो देख ही रही है ।
डर से
सत्ता तो पायी जा सकती है पर सम्मान नहीं, बिल्कुल नहीं । बंगाल में
लम्बे समय से भय का साम्राज्य रहा है, पहले लॉर्ड कर्जन का
फिर लेफ़्ट का और अब ममता बनर्जी का । ममता बनर्जी के उग्र रूप को टीवी पर देख कर
बच्चे डर जाते हैं, मैं सहम जाता हूँ, और
अब तो लेफ़्ट भी ममता से डरने लगा है । कंगना रानावत का ट्विटर अकाउण्ट प्रतिबंधित
हो जाने के बाद तो अब कोई ममता के विरुद्ध एक शब्द बोलने का साहस नहीं कर सकेगा ।
अभिव्यक्ति की आज़ादी का दुरुपयोग करते हुये सार्वजनिक मंचों पर ममता बंगाल में ख़ून
बहा देने की धमकी दे सकती हैं किंतु ममता के विरुद्ध कोई एक शब्द भी नहीं बोल सकता
। यही है असली लोकतंत्र जिसके लिये बंगाल के कई क्रांतिकारियों ने यातनायें सहते
हुये अंग्रेज़ों से लोहा लिया था ।
चुनाव
में तृणमूल कांग्रेस की जीत के साथ ही टीवी समाचारों में ममता की तारीफ़ों के पुल
बाँधे जाने लगे । हमारी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का यही चरित्र रहा है, हारने
वाला बुरा होता है और जीतने वाला पल भर में ही अच्छा हो जाता है । तृणमूल कांग्रेस
के हिंसक चरित्र से डरते हुये भी मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि ममता बनर्जी
के डर ने मेरे मन से उस स्त्री के प्रति सम्मान को शून्य कर दिया है । स्वतंत्र
भारत के सबसे क्रूर शासकों में एक स्त्री का नाम लिखा जा चुका है ।
धर्म और
जाति का विरोध करने वाले अंग्रेज़ों ने धर्म और जाति के आधार पर ही भारत में हुकूमत
भी की और टुकड़े भी किये । समाज को जोड़ने की पैरवी करने वाले ब्रिटिशर्स ने समाज को
जम कर छिन्न-भिन्न किया । 19 जुलाई 1905 में लॉर्ड कर्ज़न ने मुस्लिम बहुल पूर्वी
बंगाल को अलग करने की घोषणा की । सन् उन्नीस सौ सैंतालीस में एक बार फिर उग्र
धार्मिक ध्रुवीकरण हुआ । इण्डिया के सत्ताधीशों को अंग्रेज़ों की सियासी शातिराना
चालें ख़ूब अच्छी लगती हैं । अंग्रेजों के छल अब हमारी परम्परा के महत्वपूर्ण अंग
हैं ।
सत्ता
के लिये बंगाल विधानसभा चुनाव में दो अहंकार आपस में टकराये । एक ने दूसरे पर विजय
पायी । हारने के बाद भी ममता को सरकार बनाने का अवसर मिला । मैं इसे लोकतंत्र की
ख़ूबसूरती कहकर महिमामण्डित करता हूँ, आप इसे लोकतंत्र की
अलोकतांत्रिक परम्परा मानते हैं । मानने और होने में यही तो फ़र्क है ।
नंदीग्राम
में जीत के उन्माद में हिंसा और आगजनी का प्रारम्भ हुआ ताण्डव अब बंगाल के कई
जिलों में फैलता जा रहा है । मैं इसे भी लोकतंत्र कहता हूँ, आप
इसे गुण्डत्व कहते हैं, कहते रहिये क्या फ़र्क पड़ता है । ममता
और मोदी दोनों एक-दूसरे को बंगाल हिंसा के लिये दोषी ठहरा रहे हैं, ठहराते रहिये हिंदुओं के नरसंहार पर इस दोषारोपण से क्या फ़र्क पड़ता है,
वह तो हो ही रहा है, होता ही रहेगा । चुनाव
आयोग ने समय रहते यदि कानूनी कार्यवाही की होती तो शायद यह सब न होता । पश्चिम
बंगाल के कुछ जिले कश्मीर घाटी की राह पर चल पड़े हैं । कल सारा आरोप पाकिस्तान पर
थोप देना, मामला ख़त्म ।
इण्डिया
जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म एक प्रमुख फ़ैक्टर हुआ करता है जहाँ धार्मिक दंगे
होते हैं, धार्मिक आधार पर नरसंहार होते हैं, धार्मिक हिंसा
होती है, धार्मिक नफ़रत होती है और चुनाव में धर्म एक
महत्वपूर्ण निर्णायक तत्व होता है । यहाँ धर्म और धर्मनिरपेक्षता दोनों एक साथ
चलते हैं । एक मौन है, दूसरी वाचाल है ।
राजा
प्रजा को अफ़ीम खिलाता है और ख़ुद मदिरा पीकर उन्मत्त हो विचरण करता है । हमने तो
भारत में लोकतंत्र के इसी स्वरूप को देखा है । कश्मीरी पंडितों को कश्मीर से
निष्कासित कर दिया गया, सब तमाशा देखते रहे और अब पश्चिम बंगाल से हिंदुओं को निष्कासित किया जा
रहा है, सब तमाशा देख रहे हैं । जय हो भारत भाग्य विधाता !
जय हो मोदी ! जय हो ममता ! जय हो चुनाव आयोग ! जय जय जय जय हो !
-फ़िल्म सिटी नोयडा से
अचिंत्य