गुरुवार, 13 मई 2021

कोरोना काल में टीवी पत्रकारों का योगदान...

             कोरोना जैसे राष्ट्रीय संकट के समय भी दर्दों के सौदागर बाज नहीं आ रहे, यह बहुत दुःखद है । कुछ टीवी न्यूज़ चैनल वाले नकारात्मक और भ्रामक समाचारों के उत्पादन गृह बनते जा रहे हैं । इन्हें न तो वायरोलॉज़ी की कोई जानकारी होती है न मेडिकल साइंस की फिर भी कोरोना और इसके इलाज के विषयों पर अपने निर्णयात्मक आरोपों के साथ सरकारों और चिकित्सकों को कटघरे में खड़ा करते रहने में ये लोग रात-दिन एक किये दे रहे हैं । यह सब माहौल को और भी पैनिक बनाता है । ऐसे चैनल्स को प्रतिबंधित किया जाना चाहिये ।

समाचार दिखाये जा रहे हैं कि कोरोना टेस्ट किये बिना केवल लक्षणों के आधार पर ही डॉक्टर्स कोरोना का इलाज़ शुरू कर देते हैं । यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि आज दिनांक तक कोरोना का कोई विशिष्ट इलाज़ है ही नहीं, जो भी इलाज़ किया जा रहा है वह सब लाक्षणिक ही है इसलिये टेस्ट करने से चिकित्सा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला है । हाँ यह अवश्य है कि यदि टेस्ट पॉज़िटिव आता है तो रोगी व्यक्ति से अन्य लोगों में संक्रमण फैलने की सम्भावनाओं को न्यून करने के उपाय करने में सुविधा होती है । किंतु यह काम तो बिना टेस्ट के भी किया जा सकता है । व्यावहारिक बात यह है कि टेस्ट रिपोर्ट आने तक की अवधि में रोगी की व्यवस्था कोरोना पॉज़िटिव जैसी होनी चाहिये या कोरोना निगेटिव जैसी? इसका निर्णय कैसे होगा? वैज्ञानिक दृष्टिकोण तो यह है कि सारी सम्भावनाओं को न्यूनतम करने की दृष्टि से सम्भावित कोरोना या उससे मिलते-जुलते लक्षणों को देखते ही कोरोना पॉज़िटिव जैसी ही व्यवस्था की जानी चाहिये । इसलिये टेस्ट नहीं होने या टेस्ट की रिपोर्ट देर से आने का चिकित्सा पर कोई प्रभाव पड़ने वाला नहीं है । इस समय किसी पर उँगली उठाने की अपेक्षा मिलजुल कर काम करने की आवश्यकता है किंतु इस तरह की कोई संस्कृति या कार्यप्रणाली हमारे देश में अभी तक निर्मित ही नहीं हो सकी । सभी राजनीतिक दलों को इस आपदा में एक साथ खड़े होने की आवश्यकता है और सबसे बड़ी आवश्यकता तो इस बात की है कि जो लोग चिकित्सा विज्ञान से सम्बंधित नहीं हैं उन्हें इन विषयों पर कोई वैज्ञानिक टिप्पणी करने से बचना चहिये । यूँ भी पल-पल बदलते कोरोना के स्वरूप के साथ ही चिकित्सा के निर्णय और रणनीति भी बदलती जा रही है जिससे आम लोगों में भय और अविश्वास का वातावरण बनता जा रहा है । ऐसे में टीवी पत्रकारों से अपेक्षा की जाती है कि वे व्यवस्था पर प्रश्न अवश्य उठायें पर चिकित्सा कैसे करनी है इस विषय पर कोई भी अधिकृत टिप्पणी न करें इस आपदा में उनका यही योगदान सबसे बड़ा योगदान होगा । आर.टी.पी.सी.आर टेस्ट, रेम्डेसिविर और ऑक्सीजन को लेकर मीडिया में बहुत अधिक बबाल मचा दिया गया है जबकि ये सब उतने आवश्यक नहीं हैं जितने कि तुरंत लाक्षणिक चिकित्सा, आइसोलेशन, शांति,  धैर्य और राष्ट्रीय एकजुटता ।       

सोमवार, 10 मई 2021

भारत में आज भी रहते हैं दैत्य-दानव और असुर...

      प्राचीन भारत के पौराणिक आख्यानों में हम दैत्य-दानव और असुर जैसे आततायी समुदायों के बारे में पढ़ते रहे हैं । क्या आज भी उन समुदायों का भारत में अस्तित्व है या फिर कालक्रम से अब वे सब समाप्त हो गये हैं, इस विषय पर चर्चा करने से पहले मैं सन् 1962 के उन दिनों की बात बताना चाहूँगा जब पिता जी चीनी युद्ध के सम्बंध में रोज शाम को घर के सभी सदस्यों के सामने नये-नये समाचार दिया करते थे । उन समाचारों में भारत-चीन युद्ध की बातें और हीरोशिमा-नागासाकी पर डाले गये बमों की यादें भी हुआ करतीं । हमने पहली बार पिता जी के मुँह से माओ जेदांग और च्यांग्काई शेक जैसे अज़ीब नाम सुने । लोग आपस में चर्चायें करते कि चीन तो भारत का मित्र था यह अचानक उसने भारत पर हमला क्यों कर दिया? माँ भी अपने बचपन के किस्से सुनाया करतीं कि बरतानिया हुकूमत के दिनों में लोग किस तरह फिरंगियों से डरा करते और गाँव के लोग उन्हें देखते ही छिप जाया करते । दादी के किस्सों में अच्छे राजा, बुरे राजा, दैत्य राजा और दानवों की बातें हुआ करती थीं । मेरे बाल मन में बुरे और हिंसक लोगों के शब्दचित्र जमा होते रहे । मैं सोचा करता कि हो न हो फिरंगी और चीनी भी दैत्य, दानव या फिर असुर ही होते होंगे ।   

वे दहशत भरे दिन थे, मुझे रात में डरावने सपने आया करते । तब मेरी उम्र मात्र चार साल की थी, मैं सपने में देखा करता कि हाथ में बंदूकें लिये चीनी सेना ने हमारे गाँव को घेर लिया है और ऊपर आकाश में बम गिराने वाले जहाज मँड़रा रहे हैं । मैं दिन में भी चारपायी से नीचे उतरने में डरा करता, और पूरे दिन घर भर में यही खोजा करता कि कहीं कोई चीनी सैनिक तो नहीं है । सूरज डूबने के साथ ही मेरी मुश्किलें बढ़ जाया करतीं, मुझे लगता कि मेरे सो जाने के बाद किसी भी क्षण चीनी सेना टनकपुर तक आ जायेगी । जैसे-तैसे रात कटती तो सुबह होते ही थोड़ी राहत मिलती कि चलो एक दिन और निकला । गाँव के लोग बातें करते कि भारतीय सेना के पास हथियार नहीं हैं, चीनी सेना अगर टनकपुर तक आ गयी तो बरेली और लखनऊ पर चीन का कब्ज़ा हो गायेगा ।

उस समय ये ख़बरें भी आया करतीं कि भारत की आमजनता ने युद्ध के लिये अपने जेवर तक नेहरू जी को दान में दे दिये । उस समय एक ख़बर और भी आया करती कि बाजार में न तो चॉकलेट है, न जेबी मंघाराम के बिस्किट और न गेहूँ । चार साल की उम्र में मैंने जमाखोरी और कालाबाजारी जैसे शब्दों को भी सुना । मैं इन शब्दों के अर्थ नहीं जानता था पर इतना अवश्य जान गया कि ये दोनों शब्द अच्छे नहीं हैं और इन्हीं दोनों शब्दों के कारण बाजार में कोई भी चीज बहुत ऊँचे दाम पर बेची जाती है । मैं मन में सोचा करता कि नेहरू जी अगर इन दोनों शब्दों को हटा दें तो हर बच्चे को चॉकलेट और जेबी मंघाराम के बिस्किट पुराने दामों पर ही मिल जाया करेंगे ।

आज एक बार फिर भारत में चीन की दहशत है । चीन ने भारत के विरुद्ध विषाणु युद्ध छेड़ दिया है । गुरिल्लायुद्ध में विश्वास रखने वाले चीन ने अपनी युद्ध नीति में छल का स्तर और भी गिरा दिया है । लोग मर रहे हैं, दिल्ली में इलाज़ से लेकर शव को मरघट तक ले जाने और फिर दाह संस्कार करने के लिये मृतकों के घरवालों को पानी की तरह पैसा बहाना पड़ रहा है । लोग कोरोना पीड़ितों को बड़ी निर्ममता से लूट रहे हैं । कोरोना एक अवसर बन गया है, लोग दवाइयों और ऑक्सीजन की जमाखोरी और कालाबाजारी कर रहे हैं । कोरोना से संक्रमित आदमी एक निर्बल शिकार है जिसे बहुत से जंगली कुत्तों ने घेर लिया है और वे उसके मरने से पहले ही नोच कर खा जाने के लिये उतावले हो गये हैं ।

इन दोनों संकटों में चीन, दहशत, युद्ध, दर्द में अवसर, जमाखोरी और कालाबाजारी जैसे कुछ शब्द उभय हैं जिनकी पुनरावृत्ति आश्चर्यजनक है । दैत्य-दानव और असुर जैसे समुदाय भारत में आज भी हैं और अब वे पहले से भी अधिक क्रूर और आततायी हो गये हैं ।

शुक्रवार, 7 मई 2021

सत्ता और सम्मान...

यदि यह राजतंत्र होता तो अब तक ममता बनर्जी ने तलवार की दम पर पश्चिम बंगाल को भारत से जीत कर एक पृथक राज्य बना लिया होता ।

विधानसभा चुनाव के समय ममता बनर्जी ने कहा था कि वे ख़ून की नदियाँ बहा देंगी, …चुनाव के बाद सबको देख लेंगी...। चुनाव हो गया और चुनाव परिणाम आते ही ममता ने सबसे पहले अपने दोनों वादों को पूरा कर दिया । तब से आज एक सप्ताह बाद भी बंगाल में ख़ून की नदियाँ बहायी जा रही हैं, यौनहिंसायें हो रही हैं, आगजनी और छुरेबाजी हो रही है, कश्मीर की तर्ज़ पर धमकी दी जा रही है कि हिंदू या तो इस्लाम स्वीकार करें या फिर मरने के लिये या बंगाल छोड़ने के लिये तैयार रहें । हिंदुओं के नस्लीय उन्मूलन से भारत का कोई प्रगतिशील नागरिक अब चिंतित नहीं है, धर्मनिरपेक्षता का यह उत्कृष्ट उदाहरण है ।

पश्चिम बंगाल के मुस्लिम बहुल जिलों से हिंदुओं का पलायन शुरू हो चुका है और दुनिया के तीस से भी अधिक देशों में इन घटनाओं को लेकर विरोध प्रदर्शन शुरू हो चुके हैं । अब कोई मन की बात नहीं करता, हर ज़िम्मेदार आदमी इस समय मनमोहन सिंह बन गया है । धार्मिक हिंसाओं और कश्मीर घाटी से हिंदुओं के पलायन से डरे हुये हिंदुओं ने भाजपा को वोट दिया था ...इस लोभ में वोट दिया कि मोदी हिंदुओं की रक्षा करेंगे । निर्बल का लोभ कभी पूरा नहीं होता । हिंदुओं के सम्राट बने मोदी और अमित शाह ने हिंदुओं को निराश किया । पश्चिम बंगाल में हिंसा जारी है और भारत का हिंदू असहाय है ।

बंगाल वह धरती है जहाँ अंधविश्वास, विज्ञान, संगीत, कला, देशभक्ति और क्रांति के साथ विश्वासघात का भी ख़ूब खेला होता रहा है । बंगाल की धरती कई बार रक्तरंजित होती रही है जिसके कारण वहाँ की धरती पर विदेशियों का भी शासन रहा, यहाँ तक कि अरबी शासकों के ग़ुलामों का भी । 

सत्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में इत्योपिया से लाये गये हब्शी गुलामों और ख़्वाज़ासरों की तलवारों में ताकत थी । मौका आते ही उन्होंने अपनी तलवारों का स्तेमाल किया और बंगाल पर कुछ समय के लिये हुकूमत भी की । यह वह दौर था जब सत्ता के लिये तलवारों के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं हुआ करता था । भय और हिंसा से सत्ता की छीनाझपटी का वह दौर आज भी बीता नहीं है । पिछले माह सम्पन्न हुये पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों के समय प्रारम्भ होकर अब तक जारी हिंसा के इस कटु सत्य को भारत भले ही न देख पा रहा हो पर शेष दुनिया तो देख ही रही है ।

डर से सत्ता तो पायी जा सकती है पर सम्मान नहीं, बिल्कुल नहीं । बंगाल में लम्बे समय से भय का साम्राज्य रहा है, पहले लॉर्ड कर्जन का फिर लेफ़्ट का और अब ममता बनर्जी का । ममता बनर्जी के उग्र रूप को टीवी पर देख कर बच्चे डर जाते हैं, मैं सहम जाता हूँ, और अब तो लेफ़्ट भी ममता से डरने लगा है । कंगना रानावत का ट्विटर अकाउण्ट प्रतिबंधित हो जाने के बाद तो अब कोई ममता के विरुद्ध एक शब्द बोलने का साहस नहीं कर सकेगा । अभिव्यक्ति की आज़ादी का दुरुपयोग करते हुये सार्वजनिक मंचों पर ममता बंगाल में ख़ून बहा देने की धमकी दे सकती हैं किंतु ममता के विरुद्ध कोई एक शब्द भी नहीं बोल सकता । यही है असली लोकतंत्र जिसके लिये बंगाल के कई क्रांतिकारियों ने यातनायें सहते हुये अंग्रेज़ों से लोहा लिया था ।

चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की जीत के साथ ही टीवी समाचारों में ममता की तारीफ़ों के पुल बाँधे जाने लगे । हमारी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का यही चरित्र रहा है, हारने वाला बुरा होता है और जीतने वाला पल भर में ही अच्छा हो जाता है । तृणमूल कांग्रेस के हिंसक चरित्र से डरते हुये भी मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि ममता बनर्जी के डर ने मेरे मन से उस स्त्री के प्रति सम्मान को शून्य कर दिया है । स्वतंत्र भारत के सबसे क्रूर शासकों में एक स्त्री का नाम लिखा जा चुका है ।

धर्म और जाति का विरोध करने वाले अंग्रेज़ों ने धर्म और जाति के आधार पर ही भारत में हुकूमत भी की और टुकड़े भी किये । समाज को जोड़ने की पैरवी करने वाले ब्रिटिशर्स ने समाज को जम कर छिन्न-भिन्न किया । 19 जुलाई 1905 में लॉर्ड कर्ज़न ने मुस्लिम बहुल पूर्वी बंगाल को अलग करने की घोषणा की । सन् उन्नीस सौ सैंतालीस में एक बार फिर उग्र धार्मिक ध्रुवीकरण हुआ । इण्डिया के सत्ताधीशों को अंग्रेज़ों की सियासी शातिराना चालें ख़ूब अच्छी लगती हैं । अंग्रेजों के छल अब हमारी परम्परा के महत्वपूर्ण अंग हैं ।

सत्ता के लिये बंगाल विधानसभा चुनाव में दो अहंकार आपस में टकराये । एक ने दूसरे पर विजय पायी । हारने के बाद भी ममता को सरकार बनाने का अवसर मिला । मैं इसे लोकतंत्र की ख़ूबसूरती कहकर महिमामण्डित करता हूँ, आप इसे लोकतंत्र की अलोकतांत्रिक परम्परा मानते हैं । मानने और होने में यही तो फ़र्क है ।

नंदीग्राम में जीत के उन्माद में हिंसा और आगजनी का प्रारम्भ हुआ ताण्डव अब बंगाल के कई जिलों में फैलता जा रहा है । मैं इसे भी लोकतंत्र कहता हूँ, आप इसे गुण्डत्व कहते हैं, कहते रहिये क्या फ़र्क पड़ता है । ममता और मोदी दोनों एक-दूसरे को बंगाल हिंसा के लिये दोषी ठहरा रहे हैं, ठहराते रहिये हिंदुओं के नरसंहार पर इस दोषारोपण से क्या फ़र्क पड़ता है, वह तो हो ही रहा है, होता ही रहेगा । चुनाव आयोग ने समय रहते यदि कानूनी कार्यवाही की होती तो शायद यह सब न होता । पश्चिम बंगाल के कुछ जिले कश्मीर घाटी की राह पर चल पड़े हैं । कल सारा आरोप पाकिस्तान पर थोप देना, मामला ख़त्म ।

इण्डिया जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म एक प्रमुख फ़ैक्टर हुआ करता है जहाँ धार्मिक दंगे होते हैं, धार्मिक आधार पर नरसंहार होते हैं, धार्मिक हिंसा होती है, धार्मिक नफ़रत होती है और चुनाव में धर्म एक महत्वपूर्ण निर्णायक तत्व होता है । यहाँ धर्म और धर्मनिरपेक्षता दोनों एक साथ चलते हैं । एक मौन है, दूसरी वाचाल है ।

राजा प्रजा को अफ़ीम खिलाता है और ख़ुद मदिरा पीकर उन्मत्त हो विचरण करता है । हमने तो भारत में लोकतंत्र के इसी स्वरूप को देखा है । कश्मीरी पंडितों को कश्मीर से निष्कासित कर दिया गया, सब तमाशा देखते रहे और अब पश्चिम बंगाल से हिंदुओं को निष्कासित किया जा रहा है, सब तमाशा देख रहे हैं । जय हो भारत भाग्य विधाता ! जय हो मोदी ! जय हो ममता ! जय हो चुनाव आयोग ! जय जय जय जय हो !

-फ़िल्म सिटी नोयडा से अचिंत्य


सिस्टम का हिस्सा...

         न धन था, न अवसर इसलिये त्यागी बन गया । फिर जैसे ही अवसर मिला तो सांसारिक भी बन गया और प्रचण्ड बेइमान भी । सामने ऐश्वर्य हो और अवसर भी अनुकूल हो तो स्वयं को ऐश्वर्य भोग से विरत रख पाना बड़े-बड़े सिद्धांतवादी संतों के लिये भी सम्भव नहीं होता ।

प्रवचन और आदर्शों का बखान उनकी विशेषतायें हैं तथापि वे मानते हैं कि जो सिस्टम का हिस्सा नहीं बनेगा उसे जीने नहीं दिया जायेगा ...। वे पूरी दुनिया को अपनी मुट्ठी में कर लेना चाहते हैं । लोक कल्याण और वसुधैव कुटुम्बकम के नारों के पीछे छिपे शातिराना छल के साथ वे अपनी पताका फहराना चाहते हैं । वे बड़ी मासूमियत से कहते हैं कि वे पवित्र हैं और उनके उद्देश्य पूरी तरह सात्विक हैं किंतु कुछ लोग उनकी संस्था को कलंकित कर रहे हैं । यह एक शातिराना स्पष्टीकरण है जो मुझे कभी संतुष्ट नहीं कर पाता । वे अपनी संस्था के ऐसे सदस्यों का बहिष्कार क्यों नहीं करते जो उच्च पदों पर पहुँचते ही सारे आदर्शों को आग लगाकर सिस्टम का हिस्सा बनने में पल भर की भी देर नहीं लगाते ?

निश्चित ही उनकी संस्था पतित नहीं है किंतु उनके बहुत से लोग पतित हैं । मुझे पवित्र संस्थाओं के उन पतित लोगों और एक महाभ्रष्ट व्यक्ति में कोई अंतर दिखायी नहीं देता । उनका दावा है कि वे भारत से भ्रष्टाचार को समाप्त करना चाहते हैं ...और इसके लिये उन्हें भ्रष्टाचार में सम्मिलित होना होगा । मेरी अल्पबुद्धि इस रहस्य को कभी समझ नहीं सकी । उनके पास आदर्श वाक्यों की कमी नहीं होती, वे विष से विष की चिकित्सा करने का उदाहरण देते हैं, किंतु...  

किंतु बड़ी चतुराई से वे इस सत्य की उपेक्षा करते रहते हैं कि विष की चिकित्सा में प्रयुक्त होने वाले विष को पहले शुद्ध होकर अमृत होना होता है । पवित्र संस्था के अपवित्र लोग इस सत्य की प्रायः उपेक्षा करते पाये जाते हैं । वे इस बात को स्वीकार नहीं करना चाहते कि अच्छे उद्देश्य के लिये चुना गया भ्रष्ट मार्ग कभी भी अपने गंतव्य तक नहीं पहुँचा करता । आप कितने भी पवित्र क्यों न हों किंतु जब आप किसी सिस्टम का हिस्सा बनते हैं तो आप उस सिस्टम को आत्मसात करते हैं, उसके आगे की यात्रा में सात्विकता का कोई स्थान नहीं हुआ करता । पवित्र संस्थाओं को ईमानदारी से मंथन करना होगा ।

ईश्वर को यह सदा ही अपेक्षा रहती है कि कुछ लोगों को असत के विरुद्ध आवाज़ उठाना ही चाहिये भले ही इसके लिये उन्हें गम्भीर स्थितियों का सामना क्यों न करना पड़े ।

यह भारत का दुर्भाग्य है जहाँ कुछ लोग देश को बेचने की होड़ में हैं तो कुछ लोग हिंदुत्व को बेचने की होड़ में । साधुवेश में घूमने वाले रावणों के विरुद्ध आवाज़ उठानी होगी । अब सारा दायित्व आम आदमी पर है वह चाहे तो देश और मनुष्यत्व को बचा ले और चाहे तो प्रतिक्रियाशून्य बना रहे ।