सनातन
धर्म में मूर्ति पूजा
विश्व
की सभी सभ्यताओं में धार्मिक या अध्यात्मिक अनुष्ठानों के लिये किसी न किसी रूप
में मूर्तियों का प्रयोग होता रहा है । फिर एक समय आया जब लोगों ने मूर्तियों का
विरोध प्रारम्भ कर दिया । यह भी कहा गया कि निराकार ब्रह्म की उपासना करने वाली
सभ्यता में साकार मूर्ति का प्रयोग विरोधाभासी होने से पाखण्ड है ।
यह सच
है कि शक्ति निराकार है, मूर्ति साकार है । ब्रह्म निराकार है, सृष्टि साकार
है । यह भी सच है कि हमारी स्थूल काया को भोजन से मिलने वाली शक्ति निराकार है
किंतु रोटी साकार है । स्थूल से सूक्ष्म की प्राप्ति एक नित्य साधना है जो स्थूल
काया के लिये आवश्यक है । जब यह स्थूल काया नहीं रहेगी तब हमें स्थूल भोजन की भी
आवश्यकता नहीं रहेगी ।
देशप्रेम
मृत्यु
के भय से यूक्रेन के लोग देश छोड़कर विदेशों में शरण ले रहे हैं, मृत्यु
का सामना करने विदेशों में बसे यूक्रेनी नागरिक अपने देश वापस आ रहे हैं ।
ज़ेलेंस्की
चने के झाड़ पर चढ़कर आसमान में छलाँग लगाने के लिये संघर्षरत हैं । चने के झाड़ के
नीचे यूक्रेन तबाह हो रहा है, यह तबाही कोई सरकार नहीं
झेलती, आम नागरिक झेलते हैं ।
रूस के
लोग, जो अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं, युद्ध रोकने के लिये
अपनी ही सरकार के विरुद्ध प्रदर्शन कर रहे हैं । यूक्रेन के लोग, जो हर पल मृत्यु का सामना कर रहे हैं, युद्ध रोकने
के लिये नहीं कोई प्रदर्शन नहीं कर रहे । भारतीय चिंतन कहता है – “विपत्ति में प्राणरक्षा सर्वोपरि है, जीवन ही नहीं
रहेगा तो किसी संकट का सामना कौन करेगा!”
लोकतंत्र/राजतंत्र
वरिष्ठ
पत्रकार सतीश के सिंह और आशुतोष का आरोप है कि –
- हिन्दूवादियों ने देश को धर्म और जाति में बाँटकर समाज को रसातल में
पहुँचा दिया है । अर्थात, भारतीय समाज धर्म और जाति निरपेक्ष
होना चाहिये” । मैं जानना चाहता हूँ कि क्यों?
- इन्हीं पत्रकारों की यह भी एक प्रचण्ड माँग है कि “सभी
धर्म और जाति के लोगों को सत्ता में प्रतिनिधित्व मिलना ही चाहिये । अर्थात,
भारतीय समाज धर्म और जाति सापेक्ष होना ही चाहिये” । मैं जानना चाहता हूँ कि क्यों?
इतिहास
बताता है कि मानवरचित कोई भी शासन व्यवस्था त्रुटिरहित नहीं होती । व्यवस्था की
ढेरों बुराइयों के बाद भी आज दुनिया में लोकतंत्र का बोलबाला है, तथापि
मैं राजतंत्र के पक्ष में हूँ ।
आज
भारतीय लोकतंत्र, सत्ता में सभी सम्प्रदायों और जातियों की सक्रिय भागीदारी के लिये हुंकार
भरता हुआ दिखायी देता है । जाति-धर्म और वर्गभेद के धुरविरोधी रहनेवाले वामपंथी और
धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के लोग भी धार्मिक और जातीय आधार पर सत्ता में
प्रतिनिधित्व की अनिवार्यता पर बल देते हुये दिखायी देते हैं ।
दुर्भाग्य
से, धर्म और जाति को हवा नहीं देने के लिये संकल्पित लोगों द्वारा ही धर्म और
जाति की जड़ें और भी मज़बूत करने के लिये किये जाने वाले षड्यंत्रों से आम आदमी अपनी
रक्षा कर पाने में सफल नहीं हो पाता ।
उत्तरप्रदेश
में हो रहे विधानसभा चुनावों में राजनीतिक दलों के नेताओं का भी सारा गुणा-भाग इसी
समीकरण के चारो ओर घूमता रहता है । ऐसे नेताओं को हवा देने वाले दुर्बुद्धिजीवियों
की हमारे देश में एक बड़ी संख्या उपलब्ध है जो “पानी बुझाने के लिये आग फैलाने”
और “दंगे समाप्त करने के लिये दंगाइयों के
पक्ष में वकालत” करते हुये देखे जा सकते हैं । बड़ी-बड़ी
डिग्रीधारी इस समूह के लोगों के पास सांख्यिकीय आँकड़े होते हैं जिनका अपनी शर्तों
पर विश्लेषण करने और निष्कर्ष निकालने का साम्यवादी हठ होता है, इस हठ को वे लोकतंत्र के लिये आवश्यक मानते हैं । इसे मैं और सरल कर दूँ,
यथा - उनकी समस्या होती है कि मिर्च के पौधे से गन्ने का पौधा कैसे
उगाया जाय, फिर उनकी शर्त होती है कि इस समस्या का समाधान
बुधग्रह पर खड़े होकर साइबेरिया के संदर्भ में करके बताइये, अपना
मनुवादी ज्ञान मत बघारिये ।
आरक्षण
के पक्ष में चीख-चीख कर कुतर्क करने वाले ये दुर्बुद्धिजीवी राष्ट्रपति और
प्रधानमंत्री से लेकर कलेक्ट्रेट के चपरासी तक हर धर्म और जाति के लोगों को
प्रतिनिधित्व देना लोकतंत्र की अनिवार्य शर्त मानते हैं । ऐसे लोग इन्हीं शर्तों
के साथ भारतीय समाज को धर्म और जातिविहीन बनाने की वैचारिकी (आइडियोलॉज़ी) के साथ
विश्वविद्यालयों से लेकर यू-ट्यूब और टीवी चैनल्स पर प्रस्तुत होते रहते हैं । मैं
इसे कुतर्कवाद कहता हूँ ।
भारतीय
समाज वर्ण व्यवस्था को मानता है, जाति व्यवस्था तो उनकी
आजीविका के लिये अपनाये गये शिल्प या कर्म विशेष में विशिष्टता का द्योतक है जिसे
न तो वैदिक ऋषियों ने बनाया, न मनु ने और न ब्राह्मणों ने । यह
व्यवस्था स्वयं ही विकसित हुयी थी जो अब अपने सही अर्थों में समाप्त हो गयी है,
केवल जातियों के नाम भर शेष रह गये हैं जिनका कोई औचित्य नहीं रहा ।
राजतंत्र
में जाति और धर्म के आधार पर प्रतिनिधित्व का कोई हठ नहीं होता, जो
जिस योग्य है वह उसी तरह की भागीदारी का अधिकारी हो जाता है । ब्राह्मण वर्ण के
परशुराम क्षत्रिय वर्ण के राम की चरण वंदना करते हैं । भारतीय वैदिक व्यवस्था में
संत और ऋषि किसी भी वर्ण के क्यों न हों वे हर किसी के लिये पूज्य माने जाते रहे
हैं । यहाँ योग्यता को अधिकृत किया गया है, धर्म, वर्ण या जाति को नहीं, यही कारण है कि भारत की
राजतांत्रिक व्यवस्था में प्रायः ब्राह्मणेतर लोग ही राजा और ब्राह्मण वर्ण के लोग
अमात्य और महामात्य होते रहे हैं । भारत का इतिहास बताता है कि राजतंत्र में कभी
किसी ने धर्म या समूह के प्रतिनिधित्व के आधार पर सत्ता में भागीदारी की दावेदारी
नहीं की ।
समस्या
की जड़ यहाँ है
रोमिला
थापर, अरुंधती राय, आशुतोष, पुण्यप्रसून
वाजपेयी, बरखा दत्त, विनोद दुआ,
कन्हैया, ख़ालिद और इसी मानसिकता के और न जाने
कितने लोगों की एक परम्परा है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती जा रही है । हमें उनके चिंतन
और अर्थहीन क्रिटिक पर दुःख करने की अपेक्षा इस समस्या के मूल पर चिंतन करना होगा
जो फ़्रेंकफ़र्त स्कूल से अनुप्राणित और पोषित है ।
फ़्रेंकफ़र्त
स्कूल यानी योरोप की नागफनी भारत में
दिन जिस
भारत के शिक्षाविद और राजनीतिज्ञ यह समझ लेंगे कि “जब तक राजनीति और
समाजशास्त्र की पुस्तकों में कार्लमार्क्स, ल्यूकाश, थियोडोर अडोर्नो, लेनिन, और
शॉपेनहॉर जैसे लोगों के सिद्धांत पढ़ाये जाते रहेंगे तब तक भारत में किसी भी तरह के
सुधार की आशा करना व्यर्थ है”, उसी दिन से भारत में सुधार की
तीव्र गति दिखायी देनी शुरू हो जायेगी ।
एक
अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र के अंतर्गत हमारे पाठ्यक्रमों से राजनीति, दर्शन
और समाजशास्त्र में भारत के मौलिक चिंतन को पूरी तरह लुप्त कर दिया गया है । चाणक्य,
विक्रमादित्य, विदुर आदि के चिंतन को कलंकित
घोषित किया किया जा चुका है । नयी पीढ़ी से अनुरोध है कि कचरे में फेके जा चुके
भारतीय चिंतन का एक बार अध्ययन करके तो देख लें, शर्त यही है
कि उन्हें अपने सारे पूर्वाग्रहों और निर्णयों को कुछ देर के लिये परे हटाना हो ।
विकृत
मार्क्सवादी चिंतन से ग्रस्त, मार्क्सवादी मॉडर्निज़्म के
लिये समर्पित और व्यक्तिगत जीवनशैली में मोनार्ची के तत्वों से युक्त परस्पर
विरोधाभासी और जटिलतम ताने-बाने में जकड़े किसी प्राणी को देखते ही समझा जा सकता है
कि वह आधुनिक भारतीय प्रशासनिक सेवा का कोई उच्च अधिकारी अथवा किसी विश्वविद्यालय
का प्रोफ़ेसर हो सकता है ।
हम
स्वतंत्र भारत के लोग यह जानते और भोगते आये हैं कि हमारे प्रशासनिक सेवाओं के
अधिकारियों का व्यवहार एक निरंकुश राजा की तरह होता है, उनकी
योजनायें प्रजा के लिये नहीं बल्कि अपने सम्राट के हितलाभ के लिये होती हैं ।
सम्राट के हित गोरे पादरियों द्वारा छोड़ी गयी जूठन को समृद्ध करते रहने में सिद्ध
होते हैं ।
कुछ
चिंतक इस बात से परेशान हैं कि हमारी विकृत हो चुकी शिक्षा समाज को घुन की तरह
खोखला करती जा रही है । हमें इण्डियन एजूकेशन के मौलिक तत्वों पर चिंतन करना होगा
जिसकी जड़ें फ़्रेंकफ़र्त स्कूल से लेकर जेएनयू तक फैली हुयी हैं । आज भारत का शायद
ही कोई विश्वविद्यालय हो जहाँ इसकी फूल-पत्तियाँ न पायी जाती हों ।
कोचिंग
सेंटर्स में प्रशासनिक सेवाओं के अभ्यर्थियों के लिये दी जाने वाली शिक्षा भारत को
कितना विकृत कर रही है इसका अनुमान भी आम आदमी को नहीं लग पाता और हम गम्भीर
योरोपीय विकृति के शिकार होते रहते हैं ।
आधुनिकता
का आदर्श
एडोर्नो
जैसे लोगों को दर्शन और समाजशास्त्र का विद्वान माना जाता है जो सभी प्रचलित
परम्पराओं को तोड़ने, परिवार और समाज के तानेबाने को छिन्न-भिन्न करने और व्यक्तिगत रुचियों को
सर्वोपरि रखने के लिये “आइडियलिज़्म ऑफ़ मॉडर्निटी” जैसे विकृत सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं । योरोपीय समाज के लिये उनके
सिद्धांत उपयोगी हो सकते हैं जहाँ की लोकपरंपरायें न तो समृद्ध रही हैं और न वैदिक
सिद्धांतों से अनुप्राणित । हम अलास्का की जीवनशैली को भारत के लिये आदर्श नहीं
मान सकते किंतु भारतीय शिक्षाविदों को जीवन का सार तत्व वहीं दिखायी देता है ।